26 फ़र॰ 2009

मेरे शहर की शिलाए कोमल

है मेरी माटी की भीनी खुशबू
मेरे शहर की शिलाए कोमल
जो इस को पाए वो इसको गाए
इधर का मंजर न होता ओझल
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न भूल पाया हूँ तंग गलियाँ
जहां है चौड़े दिलों के आँगन
जहाँ सभी को सभी ने जाना
शहर जबलपुर विशाल दरपन
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यहीं कबीरा सिखाने आया
यही कहीं से उठा था ओशो
इसे थी ताक़त नूर ने दी
जी हाँ सुभद्रा ! किरण थी वो तो
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यहीं से ज्ञान रंजित पहल उठी थी
यहीं से पीतल का घोड़ा दौडा
यही से अमृत ने पूजी रेवा
यहीं मिलन का फलक था चौड़ा
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यहीं मुकुल ने सपन सजाए
यहीं सुरों के सजा दूं मेले
सहर जबलपुर की तासीर देखो
न तुम अकेले न मैं अकेला
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7 टिप्‍पणियां:

  1. यहीं कबीरा सिखाने आया
    यही कहीं से उठा था ओशो
    इसे थी ताक़त नूर ने दी
    जी हाँ सुभद्रा ! किरण थी वो तो
    bahut hi sundar rachana

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  2. सचमुच महान है आपका शहर ..अपने शहर के प्रति आपके प्रेम की झलक इस रचना में है...बहुत सुंदर ।

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  3. सुन्दर रोचक प्रस्तुति बधाई

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  4. na tu akela na main akeli
    fir dil kyo khoje nayi saheli.
    vo isliye ki khud ko pyar chahiye.
    sanso ko jodne ke liye do tar chahiye.

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  5. बहुत खूब !!
    मेरे शहर की शिलाएं भी .........
    सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए शुभकामनाएं ....

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!