शुभकामनायें सभी को...
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
शुभकामनायें सभी को, आगत नवोदित साल की,
शुभ की करें सब साधना, चाहत समय खुशहाल की।
शुभ 'सत्य' होता स्मरण कर, आत्म अवलोकन करें,
शुभ प्राप्य तब जब स्वेद-सीकर राष्ट्र को अर्पण करें।
शुभ 'शिव' बना, हमको गरल के पान की सामर्थ्य दे,
शुभ सृजन कर, कंकर से शंकर, भारती को अर्घ्य दें।
शुभ वही 'सुन्दर' जो जनगण को मृदुल मुस्कान दे,
शुभ वही स्वर, कंठ हर अवरुद्ध को जो ज्ञान दे।
शुभ तंत्र 'जन' का तभी जब हर आँख को अपना मिले,
शुभ तंत्र 'गण' का तभी जब साकार हर सपना मिले।
शुभ तंत्र वह जिसमें, 'प्रजा' राजा बने, चाकर नहीं,
शुभ तंत्र रच दे 'लोक' नव, मिलकर- मदद पाकर नहीं।
शुभ चेतना की वंदना, दायित्व को पहचान लें,
शुभ जागृति की प्रार्थना, कर्त्तव्य को सम्मान दें।
शुभ अर्चना अधिकार की, होकर विनत दे प्यार लें,
शुभ भावना बलिदान की, दुश्मन को फिर ललकार दें।
शुभ वर्ष नव आओ! मिली निर्माण की आशा नयी,
शुभ काल की जयकार हो, पुष्पा सके भाषा नयी।
शुभ किरण की सुषमा, बने 'मावस भी पूनम अब 'सलिल',
शुभ वरण राजिव-चरण धर, क्षिप्रा बने जनमत विमल।
शुभ मंजुला आभा उषा, विधि भारती की आरती,
शुभ कीर्ति मोहिनी दीप्तिमय, संध्या-निशा उतारती।
शुभ नर्मदा है नेह की, अवगाह देह विदेह हो,
शुभ वर्मदा कर गेह की, किंचित नहीं संदेह हो।
शुभ 'सत-चित-आनंद' है, शुभ नाद लय स्वर छंद है,
शुभ साम-ऋग-यजु-अथर्वद, वैराग-राग अमंद है।
शुभ करें अंकित काल के इस पृष्ट पर, मिलकर सभी,
शुभ रहे वन्दित कल न कल, पर आज इस पल औ' अभी।
शुभ मन्त्र का गायन- अजर अक्षर अमर कविता करे,
शुभ यंत्र यह स्वाधीनता का, 'सलिल' जन-मंगल वरे।
*
मयकदा पास हैं पर बंदिश हैं ही कुछ ऐसी ..... मयकश बादशा है और हम सब दिलजले हैं !!
31 दिस॰ 2009
29 दिस॰ 2009
देशी एंटी वायरस- इस्तेमाल करके देखें
का बताएं भैया! हम तो ठेठ गंवईहा ठहरे. कछु कहत हैं तो लोग मजाक समझत हैं. अरे भाई हमको मजाक आती ही नहीं है. लेकिन जो बात दिल से कह देत हैं (बिना दिमाग लगाये) वो मजाक बन जात है ससुरी. अगर हम बात दिमाग लगा के करत हैं तो लोगन का रोवे का परत है, का बताएं बड़ी समस्या हो गई है. अभी हम देखत रहे समस्या चहुँ ओर ठाडी है. टरने को नांव ही नहीं लेत है. लेकिन हम ठहरे गंवईहा बिना समस्या टारे हम ना टरे.
अब देखिये ना कितना शोर मचा रहता है कि कम्पूटर मा कोई जिनावर घुस गवा है. जिसके कम्पूटर मा घुस जात है उसको कम्पूटर ठाड़ हो जात है, बिगाड़ हो जात है. कच्छू करई नई देत है. हम एक भैया से पूछे भैया ये कौन सा जिनावर है जो कम्पूटर को और तुमाये को भी हलाकान कर डारे है? तो उन्होंने बताये के वायरस होत है. एक तरह को कीट है. तो हमने पूछो "कम्पूटर में कीट को काय काम है?" तो बोले जब इंटरनेट चलत है तो जो दुश्मन बैरी होय ना, वो अपनों जासूस भेज देत है हलाकान करबे के लिए. ये कीट भी दो तरह के होत हैं, एक है मित्र कीट दुसर है दुश्मन कीट, फेर दुश्मन कीट के हटाने के लाने मित्र कीट को बुलाओ फेर दुनो में लड़ाई होत है और मित्र कीट दुश्मन कीट को खा के ख़तम कर देत है. बस इत्ती सी बात है. अब वा के लिए तो इत्ती सी बात है और हमारे जैसे देहाती गंवईहन के लिए इत्ती सारी बात है. हमारे तो भेजे में ही नहीं घुसी. चलो भलो हुवो भेजे मे नहीं घुसी, नहीं तो माथ अलग पिराई और डाक्टर की भेट पूजा अलग होती.
अब जो हमारे मित्र रहे कम्पूटर वारे, वो बुलागर रहे. कम्पूटर मा लिखत रहे, लिख लिख के बहुत बड़े लेखक बन गए. बड़ो नांव हो गयो वा को. हमने एक दिन पूछो बताओ तो भैया का लिखत हो? हमको तो कछु पतों चले. तो भईया उनने कम्पूटर खोल के दिखायो और वो बांचन लागे हम मूड हिला -हिला के सुनत रहे. एक जगह लिखे रहे, हमकू चड्डी खरीदना है. पुरानी वाली फट गई है, वो पट्टे वाले कपडे की बनी थी अब वो कपड़ा नहीं मिल रहा है. हम बहुत ढूंढ़ डारे, हमारे सारे आस पास के मित्र भी ढूंढ़ डारे, उनको भी नहीं मिल रही है. हम आपसे गुजारिश कर रहे है.कि कोई हमें बता दे कि ये चड्डी को पट्टा वाला कपडा कहाँ मिलेगो. तो बताने वारे को हम बहुत बहुत धन्यवाद देंगे. हम ये चड्डी का कपड़ा इसलिए ढूंढ़ रहे हैं कि इसको धारण करने के बाद स्वर्गिक आनंद आता है. मिल जाये तो आप भी इस्तेमाल करके देखें.
एक जगह वो लिखे रहे हमारी भैंसिया गुम गई है. तालाब में गई थी नहाने. चरवाहों वही भूल गवो, कल से नहीं आई है. हम गांव में बहुत ढूंढ़ लिए, नहीं मिल रही है. भैंसिया जाने के गम में हमारी अम्मा ने रात को दूध नहीं पियो है. उनको बड़ा सदमा लगो है, सुबह-सुबह गश खा के गिर पड़ी. इधर हमारी बीवी भी परेशान किये दे रही है. उनके मईके से दो सारे आये हुए है. गांव में पहलवानी करते हैं. उनको दूध की जरुरत है. जब से ये आये है इनको देख के भैंसिया फरार हो गई है. अब ये सारे हमारे महीने भर की तनखा को दूध तीन दिन में पी जायेंगे. मोल को दूध बहुतै मंहगो है. ये सारेन को देख के हमरो तो बी पी बढ़ जात है.
श्रीमती कह रही है के दूध लेके आओ हमारे भैया लोगों के लिए, नहीं तो हम मईके जात हैं और भईया लोगो दूध नहीं मिलत है तो ये बौरा जात है कहत रहे की दूध नहीं मिलो तो जीजी! आज जीजाजी को राम-नाम-सत् समझो. तुम्हारे लिए नयो जीजा ढूंढ़ देंगे. अब बताओ भैया हम फँस गए है. एक तरफ कुंवा दूसरी तरफ खाई, और ये खाई भी हमने एक होंडा के चक्कर में खुदाई. तो भईया बाकी बात तो मैं बाद में भी लिख दूंगा. अभी हमारी भैंसिया को पता बताय दो. आपकी मेहरबानी होगी. मुर्रा नसल की भैंस है टेम्पलेट का रंग काला है. अगल बगल में विजेट लगे हैं. दो कान, दो सींग एक मुहं, दो आंख, चार पैर, एक पूंछ है और एक निशानी है उसके पहचान की, वो जहाँ कही भी जात है, दांत निपोर के पगुरावत रहत है.
हमने भी कहा क्या बढ़िया लिखते हैं मान गए भैया. आप तो हमारे शहर की नाक है. अब हमें भी कुछ लिखना सीखा दीजिये ना कंप्यूटर में. देखिये अभी एक सुन्दर गजल उतर रही है. लिख तो देंगे लेकिन छापेंगे कहाँ? इस लिए हमें भी ये बुलागरी सीखा दीजिये.
अब उनसे गुरु मन्त्र पा के नर्मदा मैईया को नांव ले के बुलागरी चालू कर दी. अब जैसे ही हमने दो चार गजल लिखी हमारे कम्पूटर पे भी दुश्मन कीट को हमला हो गवो. हमने इजीनियर बुलावो तो उसने बताया कि इन दुश्मन कीटों को मारने के लिए एक हजार को खर्च है मित्र कीट की फ़ौज बुलानी पड़ेगी. हम तो डर गए थे. दे दिये हजार रूपये, भईया वो इंजिनियर हजार रूपये की सीडी लाया और हमारे कम्पूटर में लगा के बोला" अब ठीक हो गया है" कोई समस्या नहीं है. कुछ दिन भईया बढ़िया चलो कम्पूटर, फेर एक दिन खड़ो हो गवो. चल के नहीं दे. हमने सोचा इंजिनियर बुलाएँगे, वो फेर हजार रूपये ले जायेगा. मित्र कीट डाले हैं करके मुरख बना के चले जायेगा.
तो हमने भी जुगत लगाईं और इसकी देशी दवाई करबे की सोची. भाई देशी दवाई बहुत फायदा करत है. बस रोग पकड़ में आ जाये. हमारे घर में लकड़ी के चक्का वारी बैल गाड़ी है. वा में जब चक्का जाम हो जाय, तब कालू राम काला वाला मोबिल आईल पॉँच रूपये का डालते रहे हैं. गाड़ी भी बढ़िया चलत है और बैलान को भी आराम है. वो भी दुआ दे रहे हैं. तो हमने ठान लिया देशी इलाज करना है कम्पूटर का. पाच रूपये का तेल मंगाए और डाल दिये कम्पूटर में.
बस फिर क्या था? तब से हमारा कम्पूटर शानदार चल रहा है. अब बता देते हैं क्या हुआ? जैसे ही हमने काला मोबिल आईल डाला, सारे दुश्मन कीट (वायरस) का मुंह काला हो गया. अब उनको डर हो गया. अगर बाहर निकले तो पहचाने जायेंगे, काला मुंह लेके कहाँ जायेंगे? जो देखेगा वो दुत्कारेगा. और बिरादरी वाले भी बोलेंगे. कहाँ काला मुंह करवा के आये हो? इसलिए उस दिन से वो हमारे कम्पूटर में दुबके बैठे है. बाहर निकालने की हिम्मत नहीं कर रहे और हम मजे से बुलागरी कर रहे हैं. अगर आपको भी कम्पूटर में कोई वायरस की समस्या हो तो देशी ईलाज करके देखो. हमने किया है और उसका भरपूर लाभ उठा रहे है. बुजुर्ग कहत रहे "फायदे की चीज हो तो सबको बताओ और घाटे की है तो हजम कर जाओ, इसलिए ये बात हम बुजुर्गों का सम्मान करते हुए कह रहे हैं. भईया हम तो गंवईहा ठहरे.
ललित शर्मा, लीजिये छत्तीसगढ़ी व्यंजनों का आनंद
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:: कमांडर के आदेश ::
चिपकाएँगें
आदेश का तत्काल पालन सुनिश्चित हो
गीतिका: वक्त और हालात की बातें --संजीव 'सलिल'
गीतिका
संजीव 'सलिल'
वक्त और हालात की बातें
खालिस शह औ' मात की बातें..
दिलवर सुन ले दिल कहता है .
अनकहनी ज़ज्बात की बातें ..
मिलीं भरोसे को बदले में,
महज दगा-छल-घात की बातें..
दिन वह सुनने से भी डरता
होती हैं जो रात की बातें ..
क़द से बहार जब भी निकलो
मत भूलो औकात की बातें ..
खिदमत ख़ुद की कर लो पहले
तब सोचो खिदमात की बातें ..
'सलिल' मिले दीदार उसी को
जो करता है जात की बातें..
***************
संजीव 'सलिल'
वक्त और हालात की बातें
खालिस शह औ' मात की बातें..
दिलवर सुन ले दिल कहता है .
अनकहनी ज़ज्बात की बातें ..
मिलीं भरोसे को बदले में,
महज दगा-छल-घात की बातें..
दिन वह सुनने से भी डरता
होती हैं जो रात की बातें ..
क़द से बहार जब भी निकलो
मत भूलो औकात की बातें ..
खिदमत ख़ुद की कर लो पहले
तब सोचो खिदमात की बातें ..
'सलिल' मिले दीदार उसी को
जो करता है जात की बातें..
***************
ब्रिगेडिअर्स मोर्चा सम्हाल लें
ब्रिगेडिअर्स मोर्चा सम्हाल लें आज किसी ने हमारे ब्लॉग पर एक अवार्ड से घातक हमला किया है
इस बात से हमारी सीमाओं पे खतरा बढ़ गया है आप सबको अब सावधान होने की ताकीद की जाती है
इस कवायद से हम वार्मअप होंगे तथा उस झूठे अवार्ड दाता को पकड़ पायेंगे जिसने है हमको दिया है ये वाला अवार्ड
इस बात से हमारी सीमाओं पे खतरा बढ़ गया है आप सबको अब सावधान होने की ताकीद की जाती है
कौन कहाँ तैनात होगा
और क्या करेगा ? शत्रु को पहचाने दिव्य दृष्टि का अनुप्रयोग जारी करें किसी एक पोस्ट ब्रिगेडीअर की पोस्ट के तुरंत बाद पोस्ट न करेंगें कम से कम बारह घंटे
उड़न तश्तरी
उड़न तश्तरी
खेत सम्हालें
_______________________इस कवायद से हम वार्मअप होंगे तथा उस झूठे अवार्ड दाता को पकड़ पायेंगे जिसने है हमको दिया है ये वाला अवार्ड
Awarded to जबलपुर-ब्रिगेड
26 दिस॰ 2009
सिलसिला-ए-उल्फ़त
उनसे मेरी उल्फ़तों का सिलसिला,
चल निकला -- चल निकला
चल निकला -- चल निकला
इश्क़ का सैलाब, शक्ले-अश्क लेकर,
ढल निकला -- ढल निकला
--बवाल
___________________________________
तो बवाल भाई फिर ये भी आज़मा लेतें हैं ....?
_______________________
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तो बवाल भाई फिर ये भी आज़मा लेतें हैं ....?
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जबलपुर के संगीतकार सुनील पारे
जी की ब्रिगेड के लिए खास पेश कश ____________________
बवाल भाई आपकी पोस्ट में हस्तक्षेप के लिए माफ़ करेंगे मैं चाहता हूँ
आपकी पोस्ट के ऊपर कोई पोस्ट तब तक न आये जब तक की आप के सुधि पाठक इधर आ रहें हैं
सादर :"मुकुल"25 दिस॰ 2009
'बड़ा दिन' --संजीव 'सलिल'
'बड़ा दिन'
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
http://divyanarmada.blogspot.com
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
http://divyanarmada.blogspot.com
मेरा प्यार
तुम्हरी यादो के सहारे,
हम यूँ ही जी रहे है।
कभी तुमको देख कर,
हम यूँ जी-जी कर मर रहे है।
ग़र एहसास को समझो,
हम प्यार तुम्ही से करते है।
तुम समझो या न समझो,
हम प्यार तुम्ही से करते है।।
तोड़ के सारे बंधन को,
रिश्तो को उन नातो को।
प्यार तुम्हारा पाने को,
हद से गुजर जाने को।।
इश्क की गहराई को,
कभी नापा नही जाता।
प्यार को ग़र समझो,
तो प्यार की गहराई को खुद नापो।।
हीर रांझा तो हम इतिहास है,
इश्क हमारा तुम्हारा सिर्फ आज है।
मेरे दिल के सपनो में आती हो सिर्फ तुम,
आ कर पता नही कब चली जाती हो तुम।।
हम यूँ ही जी रहे है।
कभी तुमको देख कर,
हम यूँ जी-जी कर मर रहे है।
ग़र एहसास को समझो,
हम प्यार तुम्ही से करते है।
तुम समझो या न समझो,
हम प्यार तुम्ही से करते है।।
तोड़ के सारे बंधन को,
रिश्तो को उन नातो को।
प्यार तुम्हारा पाने को,
हद से गुजर जाने को।।
इश्क की गहराई को,
कभी नापा नही जाता।
प्यार को ग़र समझो,
तो प्यार की गहराई को खुद नापो।।
हीर रांझा तो हम इतिहास है,
इश्क हमारा तुम्हारा सिर्फ आज है।
मेरे दिल के सपनो में आती हो सिर्फ तुम,
आ कर पता नही कब चली जाती हो तुम।।
फोटो :श्री गोकुल शर्मा जी ,श्री जैन,के साथ ब्लॉगर श्री महेंद्र जी सम्मानित हुए
श्री सनत जैन
मंचासीन बाएँ से श्री मोहन शशि,महेंद्र मिश्र,श्री गोविन्द मिश्र,श्री आशुतोष श्रीवास्तव,श्री सनत जैन,श्रीयुत काशीनाथ बिल्लोरे श्री उमेश नारायण,=>
सव्यसाची माँ प्रमिला देवीबिल्लोरे ,एवं स्व० हीरालाल गुप्त मधुकर जिनकी स्मृति में दिए जातें हैं ये सम्मान
महेंद्र मिश्र जी को सम्मानित करते हुए सव्यसाची कला ग्रुप के अध्यक्ष एस के बिल्लोरे ,सचिव कार्तिक बैनर्जी,कुलपति(पशु चिकित्सा वि०वि०) श्री गोविन्द मिश्र मध्य में श्री महेंद्र मिश्र,कुलपति रा० दुर्गावती वि० वि० श्री आशुतोष श्रीवास्तव, श्री उमेश नारायण जी
डाक्टर आशुतोष श्रीवास्तव
कुलपति रानी दुर्गावती वि० वि०
श्री सनत जैन का सम्मान-अलंकरण
विचार अभिव्यक्ति : श्री गोकुल शर्मा
उपस्थित जन समूह
इन चित्रों का छायाकार है नन्हा छायाकार चिंमय बिल्लोरे जिसे हम गुरु कहतें हैं
24 दिस॰ 2009
23 दिस॰ 2009
डूबे जी
डूबे जी की रचनात्मकता से आप सभी बखूबी परिचित हैं आज उनके बनाए गए दो कार्टून एक साथ पेश हैं दौनों को रियलिटी शो ही मान लेना ही चाहिए काश ये कार्टून संसद और विधान सभाओं में निर्वाचितों तक पहुँच सकते तो शायद..............................................................................................................................
22 दिस॰ 2009
स्मृति दीर्घा: संजीव 'सलिल'
स्मृति दीर्घा:
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
21 दिस॰ 2009
ललित जी के मोहल्ले के भाग्यशाली लोग जो दफ्तर सही समय पर जातें हैं
जबलपुर ब्रिगेड के ब्रिगेडियर महफूज़ जी ने यहाँ एक साथ आपने इतने लोगों को अपना पन देके कैद कर लिया अपने पास ऐसी कैद-कर सकने की रब सारे ब्लागर्स को दे यही सोच से ही हिंदी में उम्दा बातें इस जाल पर छा सकतीं हैं . रवीन्द्र प्रभात जी तो अक्टूबर माह से ही स्नेह रस बरसाने लगतें है उनकी परिकल्पना भी अनोखी है सब को जोड़ते हुए ब्लॉग'स का वार्षिक विश्लेषण कदापि सरल काम नहीं है. इधर बी एस पाबला को भी कोई घमंड नहीं है की वे सभी को एक सूत्र में जोड़ रहें हैं "जन्म-दिन की सूचना देकर" कुल मिला कर अच्छाई अभी तक ज़िंदा है , मूछों पे ताव देकर को भी चुनौती दे सकता है किन्तु ललित शर्मा जी जी किसी की मदद करने के बाद ही अपनी मूंछों पर अंगूठे-तर्जनी को घुमाया फिराया करतें हैं. और ताऊ महाराज के क्या कहने खूब ज़बरदस्त आत्मीयता बाँट रहे हैं .
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सु सुभीता-खोली में किये गए चिंतन से उपजी यह पोस्ट सबके सामने लाना ज़रूरी है अत: इधर टांक रहा हूँ
सु सुभीता-खोली में किये गए चिंतन से उपजी यह पोस्ट सबके सामने लाना ज़रूरी है अत: इधर टांक रहा हूँ
की मूंछें देखिये और नीचे वाले फोटो को देख कर जानिये दफ्तर जाने के लिए सबसे सही समय कौन बता सकता है ?
घडी सही है या शर्मा जी मेरे हिसाब से शर्मा जी ऐसा इस लिए कि हर दफ्तर जाने वाले को शर्मा जी चेहरा याद करके दफ्तर के लिए एक घंटे पूर्व घर से निकलना चाहिए . अब सवा नॉ बज चुका है आप झट एक टिप्पणी छोडिये और दफ्तर के लिए निकलिए .
-ललित जी, (मुझे माफ़ कर देना) आपका स्मरण हो आया और लगा कि दफ्तर जाने का सही समय आप की मूंछों से बेहतर कौन सुझा सकता है घडी का क्या चली चली न चली सच आपके मोहल्ले में आप की मूंछें ही ही याद दिलाती होंगीं....... हमारे मोहल्ले में तो सारे अड़ोसी-पड़ोसी मुछ मुंडे हैं और हम रोज़ दफ्तर जाने में लेट हो जातें हैं आपके मुहल्ले के करमचारी कितने भाग्यशाली है ....!
है न .......?
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अजय भाई की यह प्रेम कहानी जब घर मन पता चली तो हमारी जैसी दुर्दशा करवा दी तनेजा जी ने
बीवीयाँ सब सह लेतीं हैं किन्त सौतन की कल्पना भी नहीं सह पातीं तनेजा साहब
जब ये तस्वीर देखी श्रीमती जी ने तो हमारी वो ख़बर ली की हमारे चेहरे के हवाइयां और तस्वीर के सारे रंग उड़ गए
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खैर छोडिये हम भी क्या बात कर रहे आज तो े ब्लॉग जबलपुर-ब्रिगेड को खूबसूरत बना दिया ललित जी ने कौन वही ख़ूबसूरत मूंछों वाले जिनने सुभीता-खोली ,के महत्त्व पर मीमांसा के है .चलो सारे ब्रिगेडियर साथियो "सेल्यूट करो तो ललित जी को "जे वाला आदेश "मिस रामप्यारी" ने भेजा है
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20 दिस॰ 2009
नव गीत: सारे जग को -संजीव 'सलिल'
नव गीत:
सारे जग को/जान रहे हम,
*
संजीव 'सलिल'
सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...
जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.
माया ममता
मोह लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...
पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.
श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...
जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.
उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...
******************
सारे जग को/जान रहे हम,
*
संजीव 'सलिल'
सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...
जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.
माया ममता
मोह लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...
पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.
श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...
जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.
उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...
******************
19 दिस॰ 2009
का बताएं भैया! हम तो निपट गंवईहा ठहरे.!!!
भैया हम ठहरे गंवईहा, निपट मुरख. लेकिन संगत हमेशा ज्ञानियों और विज्ञानियों का ही किये. कहते हैं ना "सत्संगति किम ना करोति पुंसाम" इनकी संगत करने से हमें बिना पढ़े ही ज्ञान मिल जाता है. ....
कौन पुस्तकों में मगज खपाए. अपना उल्लू सीधा करने के लायक समझ ही लेते हैं. बस किसी ज्ञानी के पास जाकर पाँव लागी किये और मुंह फार के चेथी खुजाते हुए बैठ गए. फिर धीरे कोई एक प्रश्न ढील दिये. अब ज्ञानी महाराज हमको मुरख जान कर प्रश्न का उत्तर धारा प्रवाह दे देते हैं. अगर उसका उत्तर नहीं मिलता तो हमें चाय पिला कर कह देते हैं कि कल आना यार आज मूड नहीं कर रहा है.....
हम उसनके सामने एक प्रश्नवाचक जिन्न खड़ा करके रात भर चैन की नींद सोते हैं और उधर ज्ञानी जी रात भर जाग के ग्रंथों के पन्नो में अपना मूड खपाते रहते हैं. क्योकि कल उनको एक मुरख के सवाल का जवाब देना है. अगर नहीं दे पाए तो उनकी विद्वता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जायेगा. इज्ज़त का सवाल है....
अगर नहीं दे पाए तो हम तो गंवईहा मुरख ठहरे, पुरे गांव में घूम - घूम के कह आयेंगे सुबह-सुबह लोटा धर के कि ज्ञानी जी को तो कुछ नहीं आता फालतू विद्वान् बनने का ढोंग करते रहते हैं. अब ज्ञानी जी अपनी इज्जत बचाने के लिए रात भर जाग कर हमारे प्रश्न का उत्तर ढूंढते हैं, हम सुबह सुबह उनके घर जा धमकते हैं और गरमा-ग़रम चाय और पकोड़े के साथ मनवांछित ज्ञान भी पा जाते हैं. ज्ञानी जी की भी इज्जत बच जाती है और हमें भी बिना पढ़े ,बैठे बिठाये गुप्त ज्ञान मिल जाता है.
भैईया हम तो निपट गंवईहा ठहरे. एक दिन पान की गुमटी के सामने खड़े थे पान लगवाने के लिए. अम्मा ने भेजा था और कहा था सीधा जाना और आना बीच में कहीं रुक मत जाना. हम जब पहुंचे तो कई लोग वहां खड़े थे.
चंदू बोला- पंडित जी आप तो बहुत ज्ञानी हैं. हमारे भानजों की शादी है और विवाह करने के लिए कोई महाराज नहीं मिल रहे हैं. अक्षय तृतीया है. सभी पंडित बुक हो गये हैं. अगर आप ये शादी करवा देते तो हमारा बोझ हल्का हो जाता. ........
हम भी खाली थे. क्योंकि कोई तो हमारे पास आता ही नहीं था. इसलिए कि हम चौथी फेल, बस सुन सुन के याद कर लेते थे और जब कभी मौका मिलता दुसरे गंवारों के बीच अपने ज्ञान का छौंक लगा कर विद्वान् बन जाते थे. हमने भी सोचा कुछ कमाने का मौका मिल रहा है. काहे हाथ से जाने दें. बस हाँ कर दी.
अगला भी बहुत कांईया जजमान था. ये हम जानते थे. हमने वहीं पर सौदा पॉँच सौ एक रूपये में तय कर लिया. अब अम्मा का पान पंहुचा कर हम पहुँच गये ज्ञानी जी के पास और प्रश्न कर दिया की "विवाह में कितने मंत्र पढ़े जाते हैं और भांवर कैसे कराई जाती है? उन्होंने मुझे दो घंटे समझाया. हम विधि ज्ञान तो ले लिए लेकिन बात अब मंत्र पाठ पर अटक गई. अरे जब पढ़ना आये तब तो मंत्र पढेंगे.
तभी हमें शोले फिलम का जय और बीरू का सीन याद आ गया. बीरू कहता है हम एक-एक, दस-दस पे भारी पड़ेंगे और फिर जय से कहता है, "कंही ज्यादा तो नहीं बोल दिया. तब बीरू कहता है "अरे जब कह ही दिया है तो देख भी लेंगे". जब हमने भांवर का ठेका ले ही लिया तो देखा जायेगा. निपटा के ही आयेंगे.
अब अक्षय तृतीया को चल दिये विवाह संपन्न कराने. सब तैयारी करके दूल्हा दुल्हन को बैठा कर जैसे ही हमने मंत्र पढना शुरू किया तभी एक बोला .............
"महाराज क्या पढ़ा रहे हो?"
हमने कहा "मंत्र पढ़ रहे हैं और क्या?"
तो वो बोला " ये मंत्र नहीं है. ये तो आप हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं. इससे क्या शादी होती है?
हमने कहा-" भैया पॉँच सौ रूपये में क्या बेद पढने वाला महाराज मिलेगा? अगर तेरे घर में बहु को ठहरना है तो हनुमान चालीसा से ही ठहर जाएगी, नहीं तो गुरु वशिस्ठ को भी बुलाने के बाद भी नहीं रुकेगी.............
जजमान ने सोचा की महाराज नाराज हो कर मत चले जाएँ नहीं तो विवाह कौन करावेगा, जजमान ने बोलने वाले को धमका कर चुप कराया और हमें कहा महाराज आप नाराज ना हों, आपके मुंह से निकला हुआ हर वाक्य मंत्र है बस आप पढ़ते रहिये, बस फिर क्या था. हमने हनुमान चालीसा पढ़ के शादी करवा दी, माल अन्दर किया और आ गए.
कौन पुस्तकों में मगज खपाए. अपना उल्लू सीधा करने के लायक समझ ही लेते हैं. बस किसी ज्ञानी के पास जाकर पाँव लागी किये और मुंह फार के चेथी खुजाते हुए बैठ गए. फिर धीरे कोई एक प्रश्न ढील दिये. अब ज्ञानी महाराज हमको मुरख जान कर प्रश्न का उत्तर धारा प्रवाह दे देते हैं. अगर उसका उत्तर नहीं मिलता तो हमें चाय पिला कर कह देते हैं कि कल आना यार आज मूड नहीं कर रहा है.....
हम उसनके सामने एक प्रश्नवाचक जिन्न खड़ा करके रात भर चैन की नींद सोते हैं और उधर ज्ञानी जी रात भर जाग के ग्रंथों के पन्नो में अपना मूड खपाते रहते हैं. क्योकि कल उनको एक मुरख के सवाल का जवाब देना है. अगर नहीं दे पाए तो उनकी विद्वता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जायेगा. इज्ज़त का सवाल है....
अगर नहीं दे पाए तो हम तो गंवईहा मुरख ठहरे, पुरे गांव में घूम - घूम के कह आयेंगे सुबह-सुबह लोटा धर के कि ज्ञानी जी को तो कुछ नहीं आता फालतू विद्वान् बनने का ढोंग करते रहते हैं. अब ज्ञानी जी अपनी इज्जत बचाने के लिए रात भर जाग कर हमारे प्रश्न का उत्तर ढूंढते हैं, हम सुबह सुबह उनके घर जा धमकते हैं और गरमा-ग़रम चाय और पकोड़े के साथ मनवांछित ज्ञान भी पा जाते हैं. ज्ञानी जी की भी इज्जत बच जाती है और हमें भी बिना पढ़े ,बैठे बिठाये गुप्त ज्ञान मिल जाता है.
भैईया हम तो निपट गंवईहा ठहरे. एक दिन पान की गुमटी के सामने खड़े थे पान लगवाने के लिए. अम्मा ने भेजा था और कहा था सीधा जाना और आना बीच में कहीं रुक मत जाना. हम जब पहुंचे तो कई लोग वहां खड़े थे.
चंदू बोला- पंडित जी आप तो बहुत ज्ञानी हैं. हमारे भानजों की शादी है और विवाह करने के लिए कोई महाराज नहीं मिल रहे हैं. अक्षय तृतीया है. सभी पंडित बुक हो गये हैं. अगर आप ये शादी करवा देते तो हमारा बोझ हल्का हो जाता. ........
हम भी खाली थे. क्योंकि कोई तो हमारे पास आता ही नहीं था. इसलिए कि हम चौथी फेल, बस सुन सुन के याद कर लेते थे और जब कभी मौका मिलता दुसरे गंवारों के बीच अपने ज्ञान का छौंक लगा कर विद्वान् बन जाते थे. हमने भी सोचा कुछ कमाने का मौका मिल रहा है. काहे हाथ से जाने दें. बस हाँ कर दी.
अगला भी बहुत कांईया जजमान था. ये हम जानते थे. हमने वहीं पर सौदा पॉँच सौ एक रूपये में तय कर लिया. अब अम्मा का पान पंहुचा कर हम पहुँच गये ज्ञानी जी के पास और प्रश्न कर दिया की "विवाह में कितने मंत्र पढ़े जाते हैं और भांवर कैसे कराई जाती है? उन्होंने मुझे दो घंटे समझाया. हम विधि ज्ञान तो ले लिए लेकिन बात अब मंत्र पाठ पर अटक गई. अरे जब पढ़ना आये तब तो मंत्र पढेंगे.
तभी हमें शोले फिलम का जय और बीरू का सीन याद आ गया. बीरू कहता है हम एक-एक, दस-दस पे भारी पड़ेंगे और फिर जय से कहता है, "कंही ज्यादा तो नहीं बोल दिया. तब बीरू कहता है "अरे जब कह ही दिया है तो देख भी लेंगे". जब हमने भांवर का ठेका ले ही लिया तो देखा जायेगा. निपटा के ही आयेंगे.
अब अक्षय तृतीया को चल दिये विवाह संपन्न कराने. सब तैयारी करके दूल्हा दुल्हन को बैठा कर जैसे ही हमने मंत्र पढना शुरू किया तभी एक बोला .............
"महाराज क्या पढ़ा रहे हो?"
हमने कहा "मंत्र पढ़ रहे हैं और क्या?"
तो वो बोला " ये मंत्र नहीं है. ये तो आप हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं. इससे क्या शादी होती है?
हमने कहा-" भैया पॉँच सौ रूपये में क्या बेद पढने वाला महाराज मिलेगा? अगर तेरे घर में बहु को ठहरना है तो हनुमान चालीसा से ही ठहर जाएगी, नहीं तो गुरु वशिस्ठ को भी बुलाने के बाद भी नहीं रुकेगी.............
जजमान ने सोचा की महाराज नाराज हो कर मत चले जाएँ नहीं तो विवाह कौन करावेगा, जजमान ने बोलने वाले को धमका कर चुप कराया और हमें कहा महाराज आप नाराज ना हों, आपके मुंह से निकला हुआ हर वाक्य मंत्र है बस आप पढ़ते रहिये, बस फिर क्या था. हमने हनुमान चालीसा पढ़ के शादी करवा दी, माल अन्दर किया और आ गए.
तो का बताएं भैया! हम तो निपट गंवईहा ठहरे.
18 दिस॰ 2009
हिन्दी में हालावाद महाकवि केशव पाठक के फाउनटेन पेन से झर कर आया...?
मुक्तिबोध की ब्रह्मराक्षस का शिष्य, कथा को आज के सन्दर्भों में समझाने की कोशिश करना ज़रूरी सा होगया है । मुक्तिबोध ने अपनी कहानी में साफ़ तौर पर लिखा था की यदि कोई ज्ञान को पाने के बाद उस ज्ञान का संचयन,विस्तारण,और सद-शिष्य को नहीं सौंपता उसे मुक्ति का अधिकार नहीं मिलता । मुक्ति का अधिकारक्या है ज्ञान से इसका क्या सम्बन्ध है,मुक्ति का भय क्या ज्ञान के विकास और प्रवाह के लिए ज़रूरीहै । जी , सत्य है यदि ज्ञान को प्रवाहित न किया जाए , तो कालचिंतन के लिए और कोई आधार ही न होगा कोई काल विमर्श भी क्यों करेगा। रहा सवाल मुक्ति का तो इसे "जन्म-मृत्यु" के बीच के समय की अवधि से हट के देखें तो प्रेत वो होता है जिसने अपने जीवन के पीछे कई सवाल छोड़ दिये और वे सवाल उस व्यक्ति के नाम का पीछा कर रहेंहो । मुक्तिबोध ने यहाँ संकेत दिया कि भूत-प्रेत को मानें न मानें इस बात को ज़रूर मानें कि "आपके बाद भी आपके पीछे " ऐसे सवाल न दौडें जो आपको निर्मुक्त न होने दें !जबलपुर की माटी में केशव पाठक,और भवानी प्रसाद मिश्र में मिश्र जी को अंतर्जाल पर डालने वालों की कमीं नहीं है किंतु केशवपाठक को उल्लेखित किया गया हो मुझे सर्च में वे नहीं मिले । अंतरजाल पे ब्लॉगर्स चाहें तो थोडा वक्त निकाल कर अपने क्षेत्र के इन नामों को उनके कार्य के साथ डाल सकतें है । मैं ने तो कमोबेश ये कराने की कोशिश की है । छायावादी कविता के ध्वजवाहकों में अप्रेल २००६ को जबलपुर के ज्योतिषाचार्य लक्ष्मीप्रसाद पाठक के घर जन्में केशव पाठक ने एम ए [हिन्दी] तक की शिक्षा ग्रहण की किंतु अद्यावासायी वृत्ति ने उर्दू,फारसी,अंग्रेजी,के ज्ञाता हुए केशव पाठक सुभद्रा जी के मानस-भाई थे । केशव पाठक का उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..">उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..[०१] करना उनकी एक मात्र उपलब्धि नहीं थी कि उनको सिर्फ़ इस कारण याद किया जाए । उनको याद करने का एक कारण ये भी है-"केशव विश्व साहित्य और खासकर कविता के विशेष पाठक थे " विश्व के समकालीन कवियों की रचनाओं को पड़ना याद रखना,और फ़िर अपनी रचनाओं को उस सन्दर्भ में गोष्टीयों में पड़ना वो भी उस संदर्भों के साथ जो उनकी कविता की भाव भूमि के इर्द गिर्द की होतीं थीं ।समूचा जबलपुर साहित्य जगत केशव पाठक जी को याद तो करता है किंतु केशव की रचना धर्मिता पर कोई चर्चा गोष्ठी ..........नहीं होती गोया "ब्रह्मराक्षस के शिष्य " कथा का सामूहिक पठन करना ज़रूरी है। यूँ तो संस्कारधानी में साहित्यिक घटनाओं का घटना ख़त्म सा हो गया है । यदि होता भी है तो उसे मैं क्या नाम दूँ सोच नहीं पा रहा हूँ । इस बात को विराम देना ज़रूरी है क्योंकि आप चाह रहे होंगे [शायद..?] केशव जी की कविताई से परिचित होना सो कल रविवार के हिसाबं से इस पोस्ट को उनकी कविता और रुबाइयों के अनुवाद से सजा देता हूँ सहज स्वर-संगम,ह्रदय के बोल मानो घुल रहे हैं
शब्द, जिनके अर्थ पहली बार जैसे खुल रहे हैं .
दूर रहकर पास का यह जोड़ता है कौन नाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
दूर,हाँ,उस पार तम के गा रहा है गीत कोई ,
चेतना,सोई जगाना चाहता है मीत कोई ,
उतर कर अवरोह में विद्रोह सा उर में मचाता !
कौन गाता ? कौन गाता ?
है वही चिर सत्य जिसकी छांह सपनों में समाए
गीत की परिणिति वही,आरोह पर अवरोह आए
राम स्वयं घट घट इसी से ,मैं तुझे युग-युग चलाता ,
कौन गाता ? कौन गाता ?
जानता हूँ तू बढा था ,ज्वार का उदगार छूने
रह गया जीवन कहीं रीता,निमिष कुछ रहे सूने.
भर न क्यों पद-चाप की पद्ध्वनि उन्हें मुखरित बनाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
हे चिरंतन,ठहर कुछ क्षण,शिथिल कर ये मर्म-बंधन ,
देख लूँ भर-भर नयन,जन,वन,सुमन,उडु मन किरन,घन,
जानता अभिसार का चिर मिलन-पथ,मुझको बुलाता .
कौन गाता ? कौन गाता ?
शब्द, जिनके अर्थ पहली बार जैसे खुल रहे हैं .
दूर रहकर पास का यह जोड़ता है कौन नाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
दूर,हाँ,उस पार तम के गा रहा है गीत कोई ,
चेतना,सोई जगाना चाहता है मीत कोई ,
उतर कर अवरोह में विद्रोह सा उर में मचाता !
कौन गाता ? कौन गाता ?
है वही चिर सत्य जिसकी छांह सपनों में समाए
गीत की परिणिति वही,आरोह पर अवरोह आए
राम स्वयं घट घट इसी से ,मैं तुझे युग-युग चलाता ,
कौन गाता ? कौन गाता ?
जानता हूँ तू बढा था ,ज्वार का उदगार छूने
रह गया जीवन कहीं रीता,निमिष कुछ रहे सूने.
भर न क्यों पद-चाप की पद्ध्वनि उन्हें मुखरित बनाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
हे चिरंतन,ठहर कुछ क्षण,शिथिल कर ये मर्म-बंधन ,
देख लूँ भर-भर नयन,जन,वन,सुमन,उडु मन किरन,घन,
जानता अभिसार का चिर मिलन-पथ,मुझको बुलाता .
कौन गाता ? कौन गाता ?
_________________________________________________________________________________
हिन्दी में हालावाद केशव पाठक के फाउनटेन पेन से झर कर आया।
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17 दिस॰ 2009
यह कैसे हो सकता है कि जबलपुर ब्रिगेड हो और जबलपुर के बारे में जानकारी न हो
भारत के भौगोलिक केन्द्र महाकोशल क्षेत्र में स्थित, शुभ्र संगमरमर के धवल चट्टानों के लिये प्रसिद्ध, मध्यप्रदेश की संस्कारधानी, जबलपुर का नाम भला किसने नहीं सुना होगा? अत्यन्त पावन नर्मदा नदी के तट पर बसा हुआ जबलपुर मध्यप्रदेश के प्रमुख नगरों में से एक है और वर्तमान में यह मध्यप्रदेश का एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक एवं शैक्षणिक केन्द्र है। जबलपुर चारों ओर से वन्यप्रान्तों से घिरा हुआ नगर है अतः इस अनेक अभ्यारण्यों का प्रवेशद्वार भी कहा जा सकता है।
नामकरण
माना जाता है महर्षि जाबालि, जिन्हें जब्बल ऋषि के नाम से भी जाना जाता है, की तपोभूमि होने के कारण इस क्षेत्र का नाम जबलपुर हुआ। पूर्व में इसे जब्बलपुर कहा जाता था, अंग्रेजों के शासनकाल में भी इस नगर के नाम का अंग्रेजी हिज्जा Jabbalpore (जब्बलपोर) ही था जो कि कालान्तर में Jabalpur (जबलपुर) हो गया।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जबलपुर शब्द अरेबिक शब्द "जबल" अर्थात् पर्वत और संस्कृत शब्द "पुरा" अर्थात् नगर के मेल से बना है।
इतिहास
जबलपुर का अत्यन्त ही प्राचीन व गौरवशाली इतिहास रहा है। महाभारत में भी इस नगर का उल्लेख पाया जाता है। किसी समय यह महान मौर्य और गुप्त साम्राज्य का भी हिस्सा रह चुका है। ईसा पूर्व 875 में कल्चुरि वंश के राजाओं का आधिपत्य इस क्षेत्र में हुआ और जबलपुर उनकी राजधानी बनी। 13 वीं सदी में इस क्षेत्र को गोंड शासकों ने हथिया लिया और यह नगर उनकी राजधानी बनी। इसीलिये यह क्षेत्र गोंडवाना के नाम से भी जाना जाता है। 16 वीं सदी तक यह गोंडवाना के शक्तिशाली राज्य के रूप में परिणित हो चुका था। इस नगर को हैहयवंशी राजाओं की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त है। उस काल में इस नगर को त्रिपुरी के नाम से जाना जाता था।
अनेक बार मुगल शासकों ने इस राज्य पर अपना आधिपत्य जमाने का प्रयास किया। अपने राज्य की स्वतन्त्रता बनाये रखने के लिये गोंड महारानी दुर्गावती ने बादशाह अकबर की से सेना से लोहा लेते हुए अपने प्राण विसर्जित किया। अंततः यह क्षेत्र सन् 1789 में मराठों के अधिकार में आ गया। सन् 1817 में इसे ब्रिटिश शासन ने मराठों से जीत लिया और यहाँ पर अपनी महत्वपूर्ण छावनी स्थापित किया।
दर्शनीय स्थल
जबलपुर मध्यप्रदेश का एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। विश्वप्रसिद्ध भेड़ाघाट में चांदनी रात में शुभ्र संगमरमर की धवल छटा का आनन्द लेने के लिये देश विदेश के पर्यटकों का यहाँ मेला सा लगता है। मदनमहल का किला, संग्राम सागर, तिलवारा घाट, भेड़ाघाट, धुँआधार, चौंसठ योगिनी मन्दिर, त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर आदि अनेक दर्शनीय स्थल यहाँ पर स्थित हैं।
_________________________________________________________
नामकरण
माना जाता है महर्षि जाबालि, जिन्हें जब्बल ऋषि के नाम से भी जाना जाता है, की तपोभूमि होने के कारण इस क्षेत्र का नाम जबलपुर हुआ। पूर्व में इसे जब्बलपुर कहा जाता था, अंग्रेजों के शासनकाल में भी इस नगर के नाम का अंग्रेजी हिज्जा Jabbalpore (जब्बलपोर) ही था जो कि कालान्तर में Jabalpur (जबलपुर) हो गया।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जबलपुर शब्द अरेबिक शब्द "जबल" अर्थात् पर्वत और संस्कृत शब्द "पुरा" अर्थात् नगर के मेल से बना है।
इतिहास
जबलपुर का अत्यन्त ही प्राचीन व गौरवशाली इतिहास रहा है। महाभारत में भी इस नगर का उल्लेख पाया जाता है। किसी समय यह महान मौर्य और गुप्त साम्राज्य का भी हिस्सा रह चुका है। ईसा पूर्व 875 में कल्चुरि वंश के राजाओं का आधिपत्य इस क्षेत्र में हुआ और जबलपुर उनकी राजधानी बनी। 13 वीं सदी में इस क्षेत्र को गोंड शासकों ने हथिया लिया और यह नगर उनकी राजधानी बनी। इसीलिये यह क्षेत्र गोंडवाना के नाम से भी जाना जाता है। 16 वीं सदी तक यह गोंडवाना के शक्तिशाली राज्य के रूप में परिणित हो चुका था। इस नगर को हैहयवंशी राजाओं की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त है। उस काल में इस नगर को त्रिपुरी के नाम से जाना जाता था।
अनेक बार मुगल शासकों ने इस राज्य पर अपना आधिपत्य जमाने का प्रयास किया। अपने राज्य की स्वतन्त्रता बनाये रखने के लिये गोंड महारानी दुर्गावती ने बादशाह अकबर की से सेना से लोहा लेते हुए अपने प्राण विसर्जित किया। अंततः यह क्षेत्र सन् 1789 में मराठों के अधिकार में आ गया। सन् 1817 में इसे ब्रिटिश शासन ने मराठों से जीत लिया और यहाँ पर अपनी महत्वपूर्ण छावनी स्थापित किया।
दर्शनीय स्थल
जबलपुर मध्यप्रदेश का एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। विश्वप्रसिद्ध भेड़ाघाट में चांदनी रात में शुभ्र संगमरमर की धवल छटा का आनन्द लेने के लिये देश विदेश के पर्यटकों का यहाँ मेला सा लगता है। मदनमहल का किला, संग्राम सागर, तिलवारा घाट, भेड़ाघाट, धुँआधार, चौंसठ योगिनी मन्दिर, त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर आदि अनेक दर्शनीय स्थल यहाँ पर स्थित हैं।
_________________________________________________________
प्रतिभाशाली हैं तो अलबेला खत्री पर यकीन करिए
यहाँ आप एक चटके से पहुँच जावेंगे अलबेला खत्री के मिशन पर यहाँ क्लिक से आपको सारी जानकारी मिल जाएगी .
खत्री जी जारी रखिये सहयोग सभी के लिए
_________________________________________________________यहाँ आप एक चटके से पहुँच जावेंगे अलबेला खत्री के मिशन पर यहाँ क्लिक से आपको सारी जानकारी मिल जाएगी .
खत्री जी जारी रखिये सहयोग सभी के लिए
नव गीत: हर चेहरे में... --संजीव 'सलिल'
नव गीत:
हर चेहरे में...
संजीव 'सलिल'
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मिल्न-विरह में, नयन-बयन में.
गुण-अवगुण या चाल-चलन में.
कहीं मोह का,
कहीं द्रोह का
संघर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मन की मछली, तन की तितली.
हाथ न आयी, पल में फिसली.
क्षुधा-प्यास का,
श्वास-रास का,
नित तर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
चंचल चितवन, सद्गुण-परिमल.
मृदुल-मधुर सुर, आनन मंजुल.
हाव-भाव ये,
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
गिरि-सलिलाएँ, काव्य-कथाएँ
कही-अनकही, सुनें-सुनाएँ.
कलरव-गुंजन,
माटी-कंचन
नव दर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
बुनते सपने, मन में अपने.
समझ नाते जग के नपने.
जन्म-मरण में,
त्याग-वरण में
संकर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
हर चेहरे में...
संजीव 'सलिल'
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मिल्न-विरह में, नयन-बयन में.
गुण-अवगुण या चाल-चलन में.
कहीं मोह का,
कहीं द्रोह का
संघर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मन की मछली, तन की तितली.
हाथ न आयी, पल में फिसली.
क्षुधा-प्यास का,
श्वास-रास का,
नित तर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
चंचल चितवन, सद्गुण-परिमल.
मृदुल-मधुर सुर, आनन मंजुल.
हाव-भाव ये,
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
गिरि-सलिलाएँ, काव्य-कथाएँ
कही-अनकही, सुनें-सुनाएँ.
कलरव-गुंजन,
माटी-कंचन
नव दर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
बुनते सपने, मन में अपने.
समझ नाते जग के नपने.
जन्म-मरण में,
त्याग-वरण में
संकर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
जाने कहां कहां से गुजरा हूं अब मैं दिल्ली पहुंचा हूं (अविनाश
___________________________________________________________
समय के साथ साथ कारवां आगे और बड़ा और भी बड़ा हो गया जब अविनाश जी ने ब्रिगेड
का विनम्र आग्रह स्वीकारा आज हम उनके आभारी हैं इस लिए कि व्यस्त किन्तु थके नहीं होते
अविनाश जी का हार्दिक अभिनंदन है
उनकी इस पोस्ट के साथ
जबलपुर-ब्रिगेड
____________________________________________________________
दिल्ली से गया था गोवा
रहा 4 दिसम्बर तक वहां
फिर छुक छुक बढ़ चला
मुंबई की ओर।
उस मुंबई की ओर
जहां नहीं है समय
किसी के पास
किसी के लिए और
विश्वास तो है ही नहीं।
पर ये मिथक अब टूट गया है
इसे ही तोड़ना चाहता था
आखिर तक जूझना चाहता था मैं।
5 दिसम्बर शनिवार की दोपहर तक
मुझसे आकर अमिताभ श्रीवास्तव मिले
जिनके प्यार का वास्तव में कोई जवाब नहीं
औरंगाबाद से वे चले आये
मुझसे मिलने की खातिर।
वे मिले ही थे कि
फोन एक और आ गया
फोन ने पहले से
कमल शर्मा बतला दिया
वे भी दिल के धनी हैं
बहुत दूरी से आये थे
और फिर हम तीनों
मनोज गुप्ता जी के घर
बैठकर घंटों बतियाये थे।
पहली मुलाकातों में
यूं ही बातों-बातों में
घंटे कई बीत गये
पर विचार अभी तक न रीते थे
विचार रीतते भी नहीं हैं
सदा जीतते भी नहीं हैं।
समय आ गया जाने का
भाव न लें दो आने का
अनिता कुमार को भी आना है
वे भी बस आने ही वाली हैं
पर अमिताभ को पहुंचना था औरंगाबाद
और कमल शर्मा को मजबूरी थी
पर मिट गई खूब सारी दूरी थीं।
निकल लिये हम तीनों
छोड़ने उनको मैं भी साथ चला
पर अभी कुर्ला (ईस्ट) के नेहरू नगर
में अभ्युदय बैंक तक ही पहुंचे थे
कि अनिता कुमार जी का भी फोन आ गया
उनसे मिलने का रोमांच तीनों को भा गया।
आईं और वे भी हो गईं शामिल
आपसे में हम रहे थे खूब मिल
सडक पर ही बतिया रहे थे
फोटो भी खींच-खिंचवा रहे थे
तभी बहुत कमाल हो गया
हम कुल चार रहे
पर फोटो में तीन से अधिक
समा नहीं पाए
कैमरा मोबाइल की यही माया है
चित्र खींचने वाले की नहीं आती छाया है।
मुझ पर अभी ताजी और लंबी
स्मृतियों की खूब घनी छाया है
छाया यह बनी रहनी चाहिये
स्मृतियों की पालकी सदा बहनी चाहिये।
पहले चित्र में मेरे सिवाय और अंतिम चित्र में दिखलाई दे रहे सरदारजी को पहचानिये। इन दोनों चित्रों का पूरा विवरण देंगे तो और भी भला लगेगा। अगली पोस्ट अंतिम चित्र और इससे जुड़ी चित्रमय यादों पर। जाइयेगा जरूर, पर लौट कर अवश्य आइयेगा हुजूर। मिलते हैं ब्रेक के बाद ...
समय के साथ साथ कारवां आगे और बड़ा और भी बड़ा हो गया जब अविनाश जी ने ब्रिगेड
का विनम्र आग्रह स्वीकारा आज हम उनके आभारी हैं इस लिए कि व्यस्त किन्तु थके नहीं होते
अविनाश जी का हार्दिक अभिनंदन है
उनकी इस पोस्ट के साथ
जबलपुर-ब्रिगेड
____________________________________________________________
दिल्ली से गया था गोवा
रहा 4 दिसम्बर तक वहां
फिर छुक छुक बढ़ चला
मुंबई की ओर।
उस मुंबई की ओर
जहां नहीं है समय
किसी के पास
किसी के लिए और
विश्वास तो है ही नहीं।
पर ये मिथक अब टूट गया है
इसे ही तोड़ना चाहता था
आखिर तक जूझना चाहता था मैं।
5 दिसम्बर शनिवार की दोपहर तक
मुझसे आकर अमिताभ श्रीवास्तव मिले
जिनके प्यार का वास्तव में कोई जवाब नहीं
औरंगाबाद से वे चले आये
मुझसे मिलने की खातिर।
वे मिले ही थे कि
फोन एक और आ गया
फोन ने पहले से
कमल शर्मा बतला दिया
वे भी दिल के धनी हैं
बहुत दूरी से आये थे
और फिर हम तीनों
मनोज गुप्ता जी के घर
बैठकर घंटों बतियाये थे।
पहली मुलाकातों में
यूं ही बातों-बातों में
घंटे कई बीत गये
पर विचार अभी तक न रीते थे
विचार रीतते भी नहीं हैं
सदा जीतते भी नहीं हैं।
समय आ गया जाने का
भाव न लें दो आने का
अनिता कुमार को भी आना है
वे भी बस आने ही वाली हैं
पर अमिताभ को पहुंचना था औरंगाबाद
और कमल शर्मा को मजबूरी थी
पर मिट गई खूब सारी दूरी थीं।
निकल लिये हम तीनों
छोड़ने उनको मैं भी साथ चला
पर अभी कुर्ला (ईस्ट) के नेहरू नगर
में अभ्युदय बैंक तक ही पहुंचे थे
कि अनिता कुमार जी का भी फोन आ गया
उनसे मिलने का रोमांच तीनों को भा गया।
आईं और वे भी हो गईं शामिल
आपसे में हम रहे थे खूब मिल
सडक पर ही बतिया रहे थे
फोटो भी खींच-खिंचवा रहे थे
तभी बहुत कमाल हो गया
हम कुल चार रहे
पर फोटो में तीन से अधिक
समा नहीं पाए
कैमरा मोबाइल की यही माया है
चित्र खींचने वाले की नहीं आती छाया है।
मुझ पर अभी ताजी और लंबी
स्मृतियों की खूब घनी छाया है
छाया यह बनी रहनी चाहिये
स्मृतियों की पालकी सदा बहनी चाहिये।
पहले चित्र में मेरे सिवाय और अंतिम चित्र में दिखलाई दे रहे सरदारजी को पहचानिये। इन दोनों चित्रों का पूरा विवरण देंगे तो और भी भला लगेगा। अगली पोस्ट अंतिम चित्र और इससे जुड़ी चित्रमय यादों पर। जाइयेगा जरूर, पर लौट कर अवश्य आइयेगा हुजूर। मिलते हैं ब्रेक के बाद ...
16 दिस॰ 2009
Welcome Rajesh Dube उर्फ़ डूबे जी
हार्दिक स्वागत है राजेश भाई आपके ही इस कार्टून के साथ
स्वागत@जबलपुर-ब्रिगेड
कपिला जी के आदेश पर इनका परिचय
कपिला जी सादर अभिवादन
राजेश जी यानी डूबे जी जीव-विज्ञान के विद्यार्थी रहे है पैनी नज़र और नज़रिए की वज़ह से कार्टूनिष्ट भये इनके पूर्व जन्मों के कर्म दंड भोग रहे हैं , डाक्टर न बन सके दवा कंपनी के विक्रय प्रबंधन के मुखिया बने किन्तु प्रेस नामक वायरस के शरीर में प्रवेशित होते ही भाई नई-दुनिया जबलपुर के कार्टूनिष्ट होते भयेब्लॉग पर कार्टून डालतें हैं अब कार्टून के लिए अखबार में खबरें खंगालतेहैं ... मिलते ही दिमाग की भट्टी पे रखे सोच के भगोने में विचारों के पानी के साथ उबालातें हैं फिर कार्टून के रूप में निकालतें हैं
बाल बच्चेदार होने साथ समझदार भी हैं हर सुन्दर स्त्री तक में कार्टून देखतें हैं सो भाभी साहिबा का बेलन केवल रोटी बेलने के काम ही आ रहा है..... हमारी शुभ कामनाएं उस बेलन के साथ सदैव है ...
15 दिस॰ 2009
नए ब्रिगेडियर अवधिया जी का स्वागत है
आज ब्रिगेड पर को जी.के. अवधिया देख कर अभिभूत हुआ और तकनीनी कारणों से मेरा ब्रिगेड ज्वाइन करने में विलम्ब का आभास होते ही मैंने पुन: आमंत्रण प्राप्त कर ब्रिगेड ज्वाइन कर ली । आप जो भी इसे ज्वाइन करना चाहें तो मेल कीजिये स्वागत है
आपका डूबे जी
मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी) छंद: भारती की आरती --संजीव 'सलिल'
मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी) छंद
संजीव 'सलिल'
भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
**************
संजीव 'सलिल'
भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
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14 दिस॰ 2009
लघुकथा: वन्दे मातरम --संजीव 'सलिल'
लघुकथा
वन्दे मातरम
आचार्य संजीव 'सलिल'
-'मुसलमानों को 'वन्दे मातरम' नहीं गाना चाहिए, वज़ह यह है की इस्लाम का बुनियादी अकीदा 'तौहीद' है। मुसलमान खुदा के अलावा और किसी की इबादत नहीं कर सकता।' -मौलाना तकरीर फरमा रहे थे।
'अल्लाह एक है, वही सबको पैदा करता है। यह तो हिंदू भी मानते हैं। 'एकोहम बहुस्याम' कहकर हिंदू भी आपकी ही बात कहते हैं। अल्लाह ने अपनी रज़ा से पहले ज़मीनों-आसमां तथा बाद में इन्सान को बनाया। उसने जिस सरज़मीं पर जिसको पैदा किया, वही उसकी मादरे-वतन है। अल्लाह की मर्जी से मिले वतन के अलावा किसी दीगर मुल्क की वफादारी मुसलमान के लिए कतई जायज़ नहीं हो सकती। अपनी मादरे-वतन का सजदा कर 'वंदे-मातरम' गाना हर मुसलमान का पहला फ़र्ज़ है। हर अहले-इस्लाम के लिए यह फ़र्ज़ अदा करना न सिर्फ़ जरूरी बल्कि सबाब का काम है। आप भी यह फ़र्ज़ अदा कर अपनी वतन-परस्ती और मजहब-परस्ती का सबूत दें।' -एक समझदार तालीमयाफ्ता नौजवान ने दलील दी।
मौलाना कुछ और बोलें इसके पेश्तर मजामीन 'वन्दे-मातरम' गाने लगे तो मौलाना ने चुपचाप खिसकने की कोशिश की मगर लोगों ने देख और रोक लिया तो धीरे-धीरे उनकी आवाज़ भी सबके साथ घुल-मिल गयी।
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13 दिस॰ 2009
तकिया लगा अमन का चादर सुकूँ की ओढ़
धनात्मक चिन्तन:बनाम सलीम खान
उम्दा सोच का "धनात्मक चिन्तन"और भाई सलीम खान की ह्रदय परिवर्तन मुझे यकीं कदापि तब तक नहीं हो सकेगा जब तक भाई सलीम अपनी सारी विवादास्पद पोस्ट हटा नहीं लेते . इस से पहले न तो उनसे कोई बात होगी न ही ऐसा करना लाजिमी है. वास्तव में सलीम ने बचकानी हरकतें कीं हैं उसके लिए उनको माफ़ किया जा सकता है लेकिन जब तक विवादित आलेख ब्लॉग पर बने रहेंगे तो सलीम का जो चेहरा दिखेगा बेशक अमन परस्त इंसान का चेहरा नहीं होगा. . मेरा प्रिय अनुज सलीम से विनम्र आग्रह है कि भारत के हित में वे अपने विवादित आलेखों को हटा कर साबित करें कि वे वाकई अमन पसंद हैं.
खैर सलीम खान ही क्यों वे सभी लोग जो सिर्फ अपने धर्म की बात करते हुए अन्य को अपमानित करतें हैं वे सभी इस से प्रेरित हों और विवादित आलेख हटाएं ताकि अंतर्जाल पर हिन्दी के विकास के प्रयासों को बल मिले ....अस्तु अब आगामी पोस्ट तक के लिए शुभ रात्री शब्बा-खैर, अल्लाह-हाफ़िज़, वन्देमातरम
खैर सलीम खान ही क्यों वे सभी लोग जो सिर्फ अपने धर्म की बात करते हुए अन्य को अपमानित करतें हैं वे सभी इस से प्रेरित हों और विवादित आलेख हटाएं ताकि अंतर्जाल पर हिन्दी के विकास के प्रयासों को बल मिले ....अस्तु अब आगामी पोस्ट तक के लिए शुभ रात्री शब्बा-खैर, अल्लाह-हाफ़िज़, वन्देमातरम
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