27 अप्रैल 2010

हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की ताकत को कम करके आंकना बिल्‍कुल ठीक नहीं है

हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की ताकत को कम करके आंकना बिल्‍कुल ठीक नहीं है 'जीतेन्द्र चौधरी', 'चौपटस्वामी', 'अनूप शुक्ल (फुरसतिया)', 'भड़ास' की बातें

गीत: .....चेंज चाहते संजीव 'सलिल'

*
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
मठा-महेरी बिसर गए हैं,
गुझिया-घेवर से हो दूर..
नूडल-डूडल के दीवाने-
पाले कब्ज़ हुए बेनूर..
लस्सी अमरस शरबत पन्हा,
जलजीरा की चाह नहीं.
ड्रिंक सोफ्ट या कोल्ड हाथ में,
घातक है परवाह नहीं.
रोती छोडो, ब्रैड बुलाओ,
बनो आधुनिक खाओ केक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
नृत्य-गीत हैं बीती बातें,
डांसिंग-सिंगिंग की है चाह.
तज अमराई पार्क जा रहे,
रोड बनायें, छोड़ें राह..
ताज़ा जल तज मिनरल वाटर
पियें पहन बरमूडा रोज.
कच्छा-चड्डी क्यों पिछड़ापन
कौन करेगा इस पर खोज?
धोती-कुरता नहीं चाहिये
पैंटी बिकनी है फैशन,
नोलेज के पीछे दीवाने,
नहीं चाहिए बुद्धि-विवेक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
दिया फेंक कैंडल ले आये,
पंखा नहीं फैन के फैन.
रंग लगें बदरंग कलर ने
दिया टेंशन, छीना चैन.
खतो-किताबत है ज़हालियत
प्रोग्रेस्सिव चलभाष हुए,
पोड कास्टिंग चैट ब्लॉग के
ह्यूमन खुद ही दास हुए.
पोखर डबरा ताल तलैयाँ
पूर, बनायें नकली लेक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम 

26 अप्रैल 2010

गीत हे समय के देवता! ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'


हे समय के देवता!
संजीव 'सलिल'
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
श्वास जब तक चल रही है,
आस जब तक पल रही है,
अमावस का चीरकर तम-
प्राण-बाती जल रही है.
तब तलक रवि-शशि सदृश हम
रौशनी दें तनिक जग को.
ठोकरों से पग न हारें-
करें ज्योतित नित्य मग को.
दे सको हारे मनुज को, विजय का अरमान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
नयन में आँसू न आये,
हुलसकर हर कंठ गाये.
कंटकों से भरे पथ पर-
चरण पग धर भेंट आये.
समर्पण विश्वास निष्ठां
सिर उठाकर जी सके अब.
मनुज हँसकर गरल लेकर-
शम्भु-शिववत पी सकें अब.
दे सको हर अधर को मुस्कान दो, मधुगान दो तुम..
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
सत्य-शिव को पा सकें हम'
गीत सुन्दर गा सकें हम.
सत-चित-आनंद घन बन-
दर्द-दुःख पर छा सकें हम.
काल का कुछ भय न व्यापे,
अभय दो प्रभु!, सब वयों को.
प्रलय में भी जयी हों-
संकल्प दो हम मृण्मयों को.
दे सको पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*

21 अप्रैल 2010

मुक्तक: संजीव 'सलिल'

मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..

************

संबंधों के अनुबंधों में ही जीवन का सार है.
राधा से,मीरां से पूछो, सार भाव-व्यापार है..
साया छोडे साथ,गिला क्यों?,उसका यही स्वभाव है.
मानव वह जो हर रिश्ते से करता'सलिल'निभाव है..

************

पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..

**************************

19 अप्रैल 2010

दारू पीने वाले के कुछ मूल मंत्र


जी हां आज पेश किया जा रहा है दारू पीने वाले के कुछ मूल मंत्र , और ये अब साबित हो चुका है कि ये वो ब्रह्म वाक्य हैं जो बेवडे मूड में आने के बाद अवश्य ही प्रयोग करते हैं ।

१. तू मेरा भाई है ....

२. गाडी आज मैं चलाऊंगा ....

३.मैं तेरी दिल से इज्जत करता हूं ....

४.आज चढ नहीं रही है यार .......

५.ये मत समझ कि मैं पी कर बोल रहा हूं ........

६.एक छोटा सा पैग और हो जाए, क्या कहता है ...

७.तू बोल तो सही भाई क्या चाहिए, तेरे लिए तो जान भी हाज़िर है..

८. और आखिरी और सबसे बडा दमदार सत्य वचन , "कल से दारू बंद "॥

तो हे बंधुओं जिन जिन को इसमें खुद के बोल बचन दिखाई सुनाई दिए हों , कसम बोतल की , बस टीप दो यार

16 अप्रैल 2010

ये जाने अनजाने छायाकार

शशिन जी की याद में फोटो ग्राफी एक्जीबीशन -सह -जाने अनजाने छायाकार प्रतियोगिता  १६ अप्रैल २०१० से  जबलपुर में आरम्भ होगी



मैं नहीं चाहता कि
तुम सपना बनो
मैं नहीं चाहता कि
मैं भी सपना बनूं
सत्य मैं हूं सत्य रहूं
सत्य तू है सत्य रहे
तेरे दुखों से मैं संवेदित होऊं
और मेरी व्यथा को
तुम समझो
इतना कुछ
कर लेंगे हम
तो अच्छा होगा
2.
आबज़रवेटरी
सात हज़ार छै: सौ अठयासी फुट ऊंची
रोमनों के टोपों से बने कुछ
गुंबजों से घिरी
आबज़रवेटरी ?
जी हां
जहां से ऊंचे, बहुत ऊंचे,
उस आसमां में फैले
सितारों की दुनिया में
आदमी
जबसे झांकना सीखा है
तो पर्वतों की चोटियों पर
बादलों से भी ऊंचे
आबज़रवेटरी बना कर
उसने ऊपर ही ऊपर देखना जाना है
ज़मीं की सारी बातें
जैसे वह भूल सा गया है
शशिन जी पर राज कुमार केशवानी का आलेख भी देखिये  उनके ब्लाग ”बाजे वाले की गलि में

11 अप्रैल 2010

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की पलती आग:भाग दो

माचिस की तीली के ऊपर
बिटिया की पलती आग
यौवन की दहलीज़ पे जाके
बनती संज्ञा जलती आग
£££££££££££££££
जब   विकास  का  घूमा  पहिया 
 तन  पत्तों से ढांप लिया   ...,
 कौन है अपना कौन पराया 
यह सच हमने भांप लिया !
तभी भूख ने दल बनवाये 
उगी मन मन भ्रम की आग !
£££££££££££££££

 

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की पलती आग:भाग एक

https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSP-V-iVoIQcasriH1KlmYu-VB-t4d8SbNhzQYWoRCUFfTPR8nhMEArV4UF50G9HrZRHLflSIHj2AfOvr9AP0nBe3ZvsH6Sd5zvf_8eaZSffvCIFWgjNFmL_pObpTNhwkR1RxaFRVYfcY/s400/untitled.bmp

माचिस की तीली के ऊपर
बिटिया की पलती आग
यौवन की दहलीज़ पे जाके
बनती संज्ञा जलती आग
************************
सभ्य न थे जब हम वनचारी
था हम सबका एक धरम
शब्द न थे संवादों को तब
नयन सुझाते स्वांस मरम .
हां वो जीवन शुरू शुरू का
पुण्य न था न पापी दाग...!
*************************
खेल खेल में वनचारी ने
प्रस्तर-प्रस्तर टकराए
देख के चमकीले तिनके वो
घबराये फिर मुस्काये
बढा साहसी अपना बाबा
अपने हाथौं से झेली  आग...!
***********************
फिर क्या सूझा जाने उनको
समझी आग से नाते दारी .
पहिया बना  लुडकता पत्थर
बना आदमी पूर्ण शिकारी .
मृगया कर वो देह भूनता
बन गई जीवन साथी आग ...!
***********************
        क्रमश: जारी

7 अप्रैल 2010

लोर्ड्स के साथ डेटिंग-------->>>दीपक 'मशाल'

बहुत दुःख भी है और तनिक संतोष भी कि जल्दी ही हकीकत से रु-ब-रु हो गया.. बहुत कुछ सोच कर और उम्मीदें लेकर आया था ब्लॉगजगत में लेकिन.... खैर छोड़िये यहाँ बात करते हैं पहले अहसास की.. लेकिन इतना फिर भी कहना चाहूंगा कि इस चापलूसी लोक(ब्लॉगजगत) में अच्छे इंसां मिले मगर फिर भी कम. सब सिर्फ अपने को दुनिया की नज़र में जानदार और शानदार बताने में लगे हैं. इसलिए ऐसी दुनिया को मेरा नज़दीक आके परखने के बाद प्रणाम, ऐसा तो नहीं कि औरों की तरह चिल्लाऊं कि 'ऐ भाई मेरा हाथ पकड़ो मैं ब्लोगिंग छोड़ कर जा रहा हूँ' लेकिन हाँ नियमित भी नहीं रहूँगा बस कभी आऊंगा तो सिर्फ उस विषय पर अपनी बात कहने जो जरूरी समझता हूँ, कभी कहानी, कभी ग़ज़ल, कभी लघुकथा , कभी कविता या गीत तो कभी पोएम के रूप में.. और शायद अब 'मसिकागद' पर कम और अपने अन्य अजीजों के ब्लॉग पर ज्यादा.. ना मुझे चटके चाहिए ना टिप्पणी और ना किसी का मान मनौवल.. बस कुछ अच्छे लोगों का स्नेह चाहिए तो मिलता रहेगा ऐसी उम्मीद है, नहीं भी मिलेगा तो अगर मैं सच्चा होऊंगा तो ऊपरवाले का आशीष तो मिलेगा ही..
कल लन्दन से लौट के आया हूँ कई नए अनुभवों के साथ.. कुछ बहुत अच्छे इंसानों से भी मिला जो साहित्यकार भी हैं, साथ ही उनके जीवन के तजुर्बात सुनकर 'प्यासा' फिल्म का अहसास भी जागा कि- ''ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है''
दुःख होता है कहते हुए कि इस जगत के ज्यादातर लोग सिर्फ अपने को बहुत अच्छा साबित करने के चक्कर में बहुत अच्छा करना भूल जाते हैं और बस एक लकीर पर चलते जाते हैं अपनी पलकें मूदें हुए, पर मैं किसी को सुधारना भी नहीं चाहता बस खुद ही सुधर जाऊं इतना काफी है मेरे लिए. हाँ प्रिंट मीडिया और साहित्य से जरूर जुड़ा रहूँगा.
यहाँ मैं अपने पहले अहसास के बारे में बताने जा रहा हूँ जो कि जुड़ा हुआ है मेरे किसी भी खेल प्रांगन(स्टेडियम) को देखने को लेकर..

मैंने अगर अपने जीवन में कोई पहला स्टेडियम देखा तो वो है लोर्ड्स क्रिकेट मैदान जिसे कि 'क्रिकेट का मक्का' भी कहते हैं और इसे ऊपरवाले का अहसान ही मानूंगा कि सीधा उस मैंदान को पहली बार देखने का अवसर दिया जहाँ से क्रिकेट शुरू हुआ..
सुबह १२ बजे लन्दन में उस जगह से निकला जहाँ ठहरा हुआ था, निकलते ही सबसे पहले लोर्ड्स स्टेडियम के रिसेप्शन पर फोन लगाया तो पता चला कि १२ बजे वाला ट्रिप पहले ही शुरू हो चुका है अब मैं २ बजे पहुंचूं वही बेहतर था.. तो कुछ समय इम्पीरियल कोलेज लन्दन में अपने मित्र की प्रयोगशाला में गुज़ारा उसके बाद अपने गंतव्य का रास्ता अंतर्जाल के माध्यम से पता करके वहाँ के लिए प्रस्थान किया. पेडिंगटन बस स्टॉप से बस पकड़ कर बेकर स्ट्रीट पहुंचा. वहाँ पहुँच कर पता चला कि अभी भी ४५ मिनट बाकी हैं तो पैदल ही रास्ता खोजते हुए बढ़ दिया लोर्ड्स की दिशा में, लेकिन फिर भी करीब २० मिनट पहले बारिश और तेज़ हवा को झेलता वहाँ पहुँच ही गया.
मेनगेट पर दो सेक्युरिटी गार्ड थे तो उन्होंने अन्दर जाकर टिकट लेने कि सलाह दी लेकिन चूंकि पहले से ही लन्दन पास था मेरे पास तो सीधा रिसेप्शन पर दस्तक दी और स्टीकर लेने के बाद सीधा संग्रहालय में. जहाँ गावस्कर का वो हेलमेट रखा हुआ था जो चीनी मिट्टी से बना था और अस्सी के दशक में प्रयोग किया गया था तो साथ में ही नवाब पटौदी की तस्वीर और लारा का हेलमेट था. डेनिस लिली कि ऐतिहासिक गेंद थी तो जिम लेकर की टेस्ट में १९ विकेट चटकाने वाली गेंद भी, विवियन रिचर्ड्स का हेलमेट, कोट और बल्ला भी. जेफ़ बायकोट का एक अलग ही सेक्शन बना हुआ था. हाँ सचिन से सम्बंधित कोई चीज नहीं मिली अलबत्ता गांगुली की वो टी-शर्ट जरूर थी जो उसने वहाँ फ्लिंटोफ़ को चिढ़ाने के लिए उतारी थी.
क्रिकेट का इतिहास देखा सुना कि किस तरह के बल्ले सबसे पहले १७३० में चलते थे फिर क्या रूप आया और किस तरह पहले ३ के बजाए सिर्फ २ विकेट जमा कर खेल होता था.. ना पैड थे, ना ग्लब्स, ना हेलमेट और ना ही कोई और सुरक्षा उपकरण.
सुनकर हंसी भी आई कि जब इंग्लैण्ड की टीम पहली बार आस्ट्रेलिया गई तो आस्ट्रेलिया ने इंग्लैण्ड के ११ खिलाड़ियों के मुकाबले २२ खिलाड़ी मैदान में उतारे क्योंकि उनका मानना था कि उनकी टीम बहुत कच्च्ड थी और शुरुआती अवस्था में थी(हुई ना बच्चों वाली बात).
वहीँ एक कोने में उस चिडिया की मृत देह भी उसी बॉल से चिपकी आज भी रखी है जिससे कि उसकी मौत हुई थी(एक तेज़ गेंदबाज की गेंद के रास्ते में आ जाने का खामियाजा).

एशेज की वो असली ट्रॉफी देखी जिसने इस श्रृंखला को नाम दिया और उसकी कहानी सुनी तो दूसरी ओर W G Grace की पेंटिंग और मूर्ति देखी. सर डोन ब्रेडमेन की भी पेंटिंग देखी और फिर लौंज रूम देखा जहाँ इंग्लैण्ड की टीम और भारत की टीम नाश्ता और खाना खाती हैं, फिर उनके ड्रेसिंग रूम और पविलियन और फिर वो रूम जहाँ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे जैसे कि रिकी पोंटिंग को कार्बन के हेंडिल वाले बल्ले से ना खेलने देने का निर्णय.
वो बालकनी देखी जहाँ सौरव ने अपनी टी-शर्ट उतारी थी और वो जगह जहाँ सचिन और द्रविड़ बैठते हैं और जहाँ अगरकर ने लोर्ड्स में शतक बना कर अपना दमखम साबित किया.
एक बहुत ही मजेदार बात जो बताई गई वो ये थी कि W.G.Grace जो कि एक अच्छे फिजिशियन थे वो जब एक अच्छे क्रिकेटर के रूप में प्रसिद्द हो गए तो उनके खेल को देखने के लिए टिकट की कीमत १ पेंस से बढ़ाकर २ पेंस कर दी गई और तभी यह पहली बार हुआ कि किसी क्रिकेटर ने अपने खेल को देखने वालों की वजह से प्रायोजकों से पैसे की मांग की. उनका कहना था कि जब MCC उनकी वजह से पैसा कम रहा है तो उन्हें भी इसमें से हिस्सा दिया जाना चाहिए और तभी पहली बार किसी खिलाडी को उसके प्रशंसकों की वजह से पैसा मिला.
उसके बाद एक बार जब वो जल्दी आउट हो गए तो W.G.Grace महोदय सीधा अम्पायर के पास जाकर बोले कि यहाँ लोग मेरा खेल देखने आये हैं तुम्हारी अम्पायरिंग नहीं.. :)

वहाँ का प्रसिद्द प्रेसबॉक्स भी देखा और उसमे बैठने का मज़ा भी लिया. तो इस तरह पूरा हुआ मेरा पहली बार किसी स्टेडियम को देखने का सपना.
दीपक 'मशाल'
तस्वीरें-खुद के कैमरे से

5 अप्रैल 2010

दिल के दोहे: संजीव वर्मा 'सलिल'

दिल ने दिल में झाँककर, दिल का कर दीदार.
दिलवर से हँसकर कहा- 'मैं कुरबां सरकार'.

दिल ने दिल को दिल दिया, दिल में दिल को देख.
दिल ही दिल में दिल करे, दिल दिलवर का लेख.

दिल से दिल मिल गया तो, शीघ्र बढ़ गयी प्रीत.
बिल देखा दिल फट गया, लगती प्रीत कुरीत..

बेदिल से दिल कहा रहा, खुशनसीब हैं आप.
दिल का दर्द न पालते, लगे न दिल को शाप..

दिल तोड़ा दिल फेंककर, लगा लिया दिल व्यर्थ.
सार्थक दिल मिलना तभी, जेब भरे जब अर्थ..

दिल में बस, दिल में बसा, देख जरा संसार.
तब असार में सार लख, जीवन बने बहार..

दिल की दिल में रह गयी, क्यों बतलाये कौन?
दिल ने दिल में झाँककर, 'सलिल' रख लिया मौन..

दिल से दिल ने बात की, अक्सर पर बेबात.
दिल में दिल ने घर किया, ले-देकर सौगात..

दिल डोला दिल ने लिया, आगे बढ़कर थाम.
दिल डूबा दिल ने दिया, 'सलिल' प्रीत-पैगाम..

लगे न दिल में बात जो, उसका कहना व्यर्थ.
दिल में चुभती बात जो, उसे न समझो व्यर्थ..

दिल लेकर दिल दे दिया, 'सलिल' किया व्यापार.
प्रीत परायी के लिये, दिल अपना बेज़ार.

************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

1 अप्रैल 2010

नेता, अभिनेता और प्रचार विक्रेता

जब हम तीनों बहन भाई छोटे थे, तब आम बच्चों की तरह हमको भी टीवी देखने का बहुत शौक था, मुझे सबसे ज्यादा शौक था। मेरे कारण ही घर में कोई टीवी न टिक सका, मैं उसके कान (चैनल ट्यूनर) मोड़ मोड़कर खराब कर देता था। पिता को अक्सर सात बजे वाली क्षेत्रिय ख़बरें सुनी होती थी, वो सात बजे से पहले ही टीवी शुरू कर लेते थे, लेकिन जब कभी हमें टीवी देखते देखते देर रात होने लगती तो बाहर सोने की कोशिश कर रहे पिता की आवाज आती,"कंजरों बंद कर दो, इन्होंने तो पैसे कमाने हैं, तुम्हें बर्बाद कर देंगे टीवी वाले"।

तब पिता की बात मुझे बेहद बुरी लगती, लगे भी क्यों न टीवी मनोरंजन के लिए तो होता है, और अगर कोई वो भी न करने दे तो बुरा लगता ही है, लेकिन अब इंदौर में पिछले पाँच माह से अकेला रह रहा हूँ, घर में केबल तार भी है, मगर देखने को मन नहीं करता, क्योंकि पिता की कही हुई वो कड़वी बात आज अहसास दिलाती है कि देश के नेता, अभिनेता और अब प्रचार विक्रेता (न्यूज चैनल) भी देश की जनता को उलझाने में लगे हुए हैं।

आज 24 घंटे 7 दिन निरंतर चलने वाले न्यूज चैनल वो सात बजे वाली खबरों सी गरिमा बरकरार नहीं रख पा रहे, पहले जनता को नशे की अवस्था में रखने का काम केवल अभिनेता लोग करते थे, लेकिन अब वो काम हमारे प्रचार विक्रेता भी करने लगे हैं। पहले एक को रोते थे हम, अब तो पूरे का पूरा तलाब गंदा हो गया है। देश में सेक्स को तो निरंतर पाप कह कहकर दबाया गया, लेकिन सेक्स को भीतर ज्वालामुखी बनाने वाले सिनेमे रूपी लावे को निरंतर आजादी दी गई, जल्द ही रात को पोर्न फिल्मों का प्रचलन भी शुरू हो जाएगा।

मेरे पिता कोई कॉलेज प्रोफेसर नहीं थे, बल्कि एक आम किसान थे, फिर भी आज उनकी एक एक बात सत्य होती महसूस हो रही है, वो अक्सर कहते थे आँवले और समझदार की बात का स्वाद बाद में मालूम पड़ता है, सच में आज वो स्वाद महसूस हो रहा है। देश की जनता का ध्यान असली मुद्दों की तरफ जाए ही ना, ऐसा करने के लिए मनोरंजन को अश्लीलता की सभी हदें पार करने की आज्ञा दे डाली। इतना ही नहीं, अपनी प्रचारक रैलियों में भी सुंदरियों को लाकर खड़ा करना शुरू कर दिया नेताओं ने। जहाँ जहाँ टीवी मनोरंजन जैसी नशीली वस्तु नहीं पहुंची, वहां वहाँ लोग अपने मुद्दों को बनवाने के लिए, अपने हकों को माँगने के लिए गलत रास्तों की ओर चल दिए, और बन गए नक्सलवादी।

टीवी मनोरंजन के बाद एक आस की किरण बन उभरे थे न्यूज चैनल, लेकिन वो भी एक प्रचार विक्रेता बनकर रह गए, वो भी आम आदमी को भ्रमित करने लगे। आज ख़बरों में क्या है, नेता, अभिनेता और प्रचार विक्रेता। यकीन नहीं आता तो हाल में उठ रहा अमिताभ बच्चन का मसला क्या है? शाहरुख खान बाल ठाकरे का मुद्दा क्या था? प्रचार विक्रेता लगा हुआ है, फुल प्रचार करने में। मैं मीडिया को एक डाकिया मानता था, जो आम जनता की बात खुली चिट्ठी में लिखकर सरकार तक और सरकार की बात आम जन तक पहुंचाता था, लेकिन आज तो जनता तक सिर्फ और सिर्फ गॉशिप पहुंचाया जाता है या फिर सरकारी विज्ञापनों में प्रकाशित मन अनुसार तैयार किए विकास के झूठे आंकड़े।
भार
कुलवंत हैप्पी