30 मई 2010

मुक्तिका: .....डरे रहे. --संजीव 'सलिल'













मुक्तिका

.....डरे रहे.

संजीव 'सलिल'
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.

दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.

हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.

रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.

नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.

निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.

सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.

**************

26 मई 2010

इस आवेदन पत्र के प्रारूप का प्रिंट निकालिये

कार्यालय भारतीय-ब्लागर संघ ,
पता:द्वारा ब्लागवाणी,चिट्ठाजगत,
क्रमांक/       /2010                                           दिनांक:-     
प्रति
भारतीय जनगणना कार्यालय
नई-दिल्ली, {जहां कुछ दिन पहले ब्लागर मीट हुई थी }
द्वारा:- अविनाश वाचस्पति,खुशदीप जी, अजय  झा जी 
मान्यवर
भारतीय ब्लागर आपसे अपेक्षा करतें हैं कि हमें जिनकी  तादात लगभग हज़ारों में हैं को अलग से गिना जावे.  इस देश में  गिना जाना उतना ही ज़रूरी है जितना कि .............. खैर.... छोड़िये शर्म  आती है कहने में....इस देश में  गांव की मवेशी तक को गिना जाता है और एक बेचारा ब्लॉगर .....................
अस्तु इस आवेदन पर विशेष ध्यान दीजिये
             भवदीय
..............................................
ब्लॉगर......................................
यू आर एल..................................
{नोट:-इस आवेदन पत्र के प्रारूप की प्रति निकालिये और भेज दीजिए उपर लिखे नामों में से किसी के मार्फ़त देखें क्या होता है}

24 मई 2010

धर्म सियासत और सौन्दर्य अलावा भी विषय हैं ब्लाग के लिये

' ज़टिल और कुंठित पोस्ट का ब्लाग पर प्रभाव सदैव ही होता है. यहां आज़ बात आरम्भ करना चाहूंगा महत्वपूर्ण टिप्पणी को यथा रूप प्रस्तुत कर रहा हूं हिमांशु जी , -आपका सुझाव सीमित रूप में लागू है। अगली कड़ी में शायद कुछ और पते की बात मिले, मगर इस बारे में तो यही कहना पड़ता है कि जो हिन्दी की सेवा, या पत्रकारिता के एक अन्य माध्यम के रूप में ब्लॉगरी को ले रहे हों, उनके लिए तो यह बात पूरी तरह सही है। बहुत से लोग ब्लॉग लिखने को न आत्ममुग्धता-आत्मप्रशंसा मानते हैं और न ही ऐसा अभिव्यक्ति का माध्यम जो उन्हें दमित अभिव्यक्ति की इच्छाओं को पूरा करने के काम आए, निरंकुश। बहुधा तो लोग शौकिया ही हाथ आज़माने चले आते हैं। अन्य भी बहुत से कारण होते हैं ब्लॉग लेखन के। उनके लिए यह सुझाव पूरी तरह लागू नहीं होता है। इस सुझाव के लागू कर लेने से भी पाठकों में बहुत अन्तर नहीं पड़ने वाला। सिवाय ब्लॉग लेखकों के कम ही शुद्ध पाठक आते हैं ब्लॉग पढ़ने। ज़्यादातर लोग जो ब्लॉग सिर्फ़ पढ़ते हैं वे अन्य सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से ही आते हैं, और उतना ही पढ़कर लौट जाते हैं जो उन्हें यहाँ खींचकर लाया होता है।जब तक यहाँ ऐसा मौलिक लेखन नहीं होता जो अन्यत्र उपलब्ध न हो, शुद्ध पाठकों की अपेक्षा बेमानी ही है।
हिमांशु जी ने सही कहा कि सुझाव सीमित रूप से लागू हैं ..... मेरा मानना था कि शायद लागू भी न हो सकने के काबिल हों..? वास्तव में मैं अन्तरजाल के तकनीकी स्वरूप को रेखांकित कर रहा हूं..हो सकता है छोटे हाथों से चांद-सितारे छूने की कोशिश हो यह ..किन्तु हिन्दी सेवा का अर्थ यहां यह लगा रहा हूं कि सम्पूर्ण विषयों में जानकारीयां /सूचनाएं/पाठ्य-सामग्रियां नेट पर उपब्ध हों ताकि कल ब्रह्माण्ड में होने वाली तलाशों में हिन्दी में उपस्थित कंटैंट्स का अभाव न हो. जो लोग शौकिया ही हाथ आज़माने चले आते हैं वे वास्तव में इसे आत्मसात करें. कल विश्व/ब्रह्माण्ड में हिन्दी में होने वाली तलाश करने वालों को निराश न होना पड़े.
कल ही मुझे स्वच्छ-पानी से सम्बंधित कुछ सन्देशों की ज़रूरत थी नेट पर उनकी अनुपलब्धता से मन को हताशा हुई. आम जीवन से जुड़े विषयों की सामग्री की उपलब्धता न होना हिन्दी-सेवा के नारों को तार तार करेगा ही तो क्यों न हम अपने ज्ञान  को जिसे बांटना हमारा लक्ष्य है ब्लाग/वेबसाईट्स पर सजाएं. आप दुनियां में सर्वग्य की श्रेणी में हों किन्तु आपकी प्रतिभा का जन साधारण के जीवन के लिये क्या उपयोग है यह एक अहम मुद्दा होना चाहिये.
गर्मागर्म विषय लिखने के लिए बहुत से फ़ौरी फ़ायदे हो सकते हैं हिन्दी की सेवा की श्रेणी का बिगुल वादन इस तरह के ब्लागर्स न करें तो हिन्दी की सच्ची  सेवा होगी. 
कुछ ब्लागर्स यहाँ तक कि नेट पत्रिकाए  तक गुदाज़ मांसल  तस्वीरों को परोस रहीं / रहे हैं कुछेक हिट और फिट बने रहने के लिए सियासत का सहारा लेते हैं . कुछ तो धर्मांध पोस्ट परोस के उकसाते हैं दूसरों को और कुछेक अपने आप को ब्लाग जगत  में ”बोफ़ोर्स” साबित कर रहे हैं बस मूल कार्य को छोड़ सब कुछ बहुतायत में ज़ारी है ...
क्रमश:.....

23 मई 2010

ज़टिल और कुंठित पोस्ट से ब्लाग अरुचिकर हो जाते हैं

                                                                ब्लाग को पढ़ने लायक बनाना एक अहम सवाल है ज़रूरी है कि ब्लाग-पोस्ट लिखने के पहले विषय का चुनाव सही, समयानुकूल, सार्थक हो ..... ब्लाग लेखकों के अलावा  कम लोग ही पोस्ट पढ़ने को आतें हैं. आते ही अगर वे किसी विषय में प्रवेश करतें हैं तो उनको उसके [पोस्ट के ] सूत्र जुटाने की ज़हमत उठानी होती है. यानी मानसिक-तनाव का एक और कारण जब उनको ब्लाग पठन में मिले तो शायद ही वे ब्लाग्स के स्थाई पाठक हो सकते हैं. हिन्दी ब्लागिंग का असल रूप यही है . प्यास नहीं बुझा पा रहे हैं ब्लाग पाठकों की तभी तो पाठक जुटा नही पाते ये ब्लागस. यानी वही पाठकों का टोटा ....! आज के हिन्दी ब्लागर्स केवल लेखन के इस साधन का उपयोग आत्मप्रदर्शन के लिये सहज सुलभ साधन की तरह कर रहे हैं. मैं पुन: उसी सवाल के ज़वाब की तलाश में हूं जो कन्टैंट की ओर इशारा करता है. हर ब्लागर को ब्लागिंग में समय ज़ाया करने के पहले सोचना है कि उसके अपने विचारों  से समाज को क्या क्या मिलेगा. हाल ही में हमारे बीच एक युवा पत्रकार का जीवन बचाने का आह्वान एक पोस्ट में हुआ. तहकीकात हुई बात सही थी सो सम्वेदनाएं पहुंच गईं सहयोग के आकार में  अक्षय कात्यानी तक . अब अक्षय के जीवन की प्रत्याशा साठ प्रतिशत से अधिक है. यानी विषय जो ज़रूरी हैं उन तक पहुंचना उसे सामने लाना बहुत ज़रूरी है. . अनावश्यक जटिल और कुंठित विषय फ़ौरी तौर पर ज़रूर आपको सुखी कर सकतें हैं किन्तु बाहरी पाठक जो वाकई पाठक होते हैं जुटाने में असफ़ल ही रहतें है.
हम  क्या लिखना पसन्द करतें हैं.....?
हिन्दी ब्लागर्स इस पक्ष को देख पाते हैं मुझे कदाचित इस बात का ज्ञान नहीं किन्तु यह अवश्य जानता हूं कि बहुधा ब्लागर्स सनसनीखेज़,उन्मादी,विषयों को प्राथमिकता देतें हैं. किन्तु जब सर्च में{हिन्दी में नेट पर उपलब्ध }किसी विषय विशेष के मैटर की तलाश के लिये प्रयास करना चाहें तो अंग्रेज़ी के सापेक्ष्य बेहद अकिंचन स्थिति है. इसे आप सहज ही आज़मा सकतें हैं.
हमें  क्या लिखना  हैं.....? 
हमें क्या लिखना है अक्सर यही भूल हो जाती है.......हमसे हमारा विषय चयन अक्सर अजीब होता है. सामाजिक मुद्दों की श्रेणी में रखे जाने वाले ब्लाग बहुधा उस श्रेणी से इतर नज़र आते हैं. तो कहीं मौलिक लेखन की धज्जियां उड़तीं नज़र आतीं हैं.
क्रमश: जारी

15 मई 2010

विशेष लेख: हिंदी की प्रासंगिकता और चिट्ठाकार -संजीव वर्मा 'सलिल

विशेष लेख: हिंदी की प्रासंगिकता और चिट्ठाकार 

संजीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं. दीनिक जीवन में  व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं ली जा सकती पर वह अशीत्या, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है. हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा  शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा. तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है.
हिंदी में शब्दों की कमी को दूर करने की ओर भी लगातार काम करना होगा. इस सिलसिले में सबसे अधिक प्रभावी भूमिका चिट्ठाकार निभा सकते हैं. वे विविध प्रदेशों, क्षेत्रों, व्यवसायों, रुचियों, शिक्षा, विषयों, विचारधाराओं, धर्मों तथा सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रायः बिना किसी राग-द्वेष या स्वार्थ के सामाजिक साहचर्य के प्रति असमर्पित हैं. उनमें से हर एक को अलग-अलग शब्द भंडार की आवश्यकता है. कभी शब्द मिलते हैं कभी नहीं. यदि वे न मिलनेवाले शब्द को अन्य चिट्ठाकारों से पूछें तो अन्य अंचलों या बोलियों के शब्द भंडार में से अनेक शब्द मिल सकेंगे. जो न मिलें उनके लिये शब्द गढ़ने का काम भी चिट्ठा कर सकता है. इससे हिंदी का सतत विकास होगा. सिविल इन्जीनियरिंग को हिंदी में नागरिकी अभियंत्रण या स्थापत्य यांत्रिकी किअटने कहना चाहेंगे? इसके लिये अन्य उपयुक्त शब्द क्या हो? 'सिविल' की हिंदी में न तो स्वीकार्यता है न सार्थकता...फिर क्या करें? सॉइल, सिल्ट, सैंड, के लिये मिट्टी/मृदा, धूल तथा रेत का प्रयोग मैं करता हूँ पर उसे लोग ग्रहण नहीं कर पाते. सामान्यतः धूल-मिट्टी को एक मान लिया जाता है. रोक , स्टोन, बोल्डर, पैबल्स, एग्रीगेट को हिंदी में क्या कहें?  मैं इन्हें चट्टान, पत्थर, बोल्डर, रोड़ा, तथा गिट्टी लिखता हूँ . बोल्डर के लिये कोई शब्द नहीं है? रेत के परीक्षण में  'मटेरिअल रिटेंड ऑन सीव' तथा 'मटेरिअल पास्ड फ्रॉम सीव' को हिंदी में क्या कहें? मुझे एक शब्द याद आया 'छानन' यह किसी शब्द कोष में नहीं मिला. छानन का अर्थ किसी ने छन्नी से निकला पदार्थ बताया, किसी ने छन्नी पर रुका पदार्थ तथा कुछ ने इसे छानने पर मिला उपयोगी या निरुपयोगी पदार्थ कहा. काम करते समय आपके हाथ में न तो शब्द कोष होता है, न समय. सामान्यतः लोग गलत-सलत अंगरेजी लिखकर काम चला रहे हैं. लोक निर्माण विभाग की दर अनुसूची आज भी सिर्फ अंगरेजी मैं है. निविदा हिन्दी में है किन्तु उस हिन्दी को कोई नहीं समझ पाता, अंगरेजी अंश पढ़कर ही काम करना होता है. किताबी या संस्कृतनिष्ठ अनुवाद अधिक घातक है जो अर्थ का अनर्थ कर देता है. न्यायलय में मानक भी अंगरेजी पाठ को ही माना जाता है. हर विषय और विधा में यह उलझन है. मैं मानता हूँ कि इसका सामना करना ही एकमात्र रास्ता है किन्तु चिट्ठाजगत में एक मंच ऐसा ही कि ऐसे प्रश्न उठाकर समाधान पाया जा सके तो...? सोचें...

                             भाषा और साहित्य से सरकार जितना दूर हो बेहतर... जनतंत्र में जन, लोकतंत्र में लोक, प्रजातंत्र में प्रजा हर विषय में सरकार का रोना क्यों रोती है? सरकार का हाथ होगा तो चंद अंगरेजीदां अफसर वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे हवाई शब्द गढ़ेगे जिन्हें जनगण जान या समझ ही नहीं सकेगा. राजनीति विज्ञान में 'लेसीज फेयर' का सिद्धांत है आशय वह सरकार सबसे अधिक अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है. भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में यही होना चाहिए. लोकशक्ति बिना किसी भय और स्वार्थ के भाषा का विकास देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप करती है. कबीर, तुलसी सरकार नहीं जन से जुड़े और जन में मान्य थे. भाषा का जितना विस्तार इन दिनों ने किया अन्यों ने नहीं. शब्दों को वापरना, गढ़ना, अप्रचलित अर्थ में प्रयोग करना और एक ही शब्द को अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देने में इनका सानी नहीं. 
                                                      
चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे. के उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रमाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हां' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है. शायद अकम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इनदोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ धरती से संपर्क कर सकें. अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है. यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है.


भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है. विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है. हर वर्ष कई विद्यालयों और कुछ विश्व विद्यालयों में हिंदी विभाग खुल रहे हैं. हिन्दी निरंतर विकसित हो रहे है जबकि उर्दू समेत अन्य अनेक भाषाएँ और बोलियाँ मरने की कगार पर हैं. इस सत्य को पचा न पानेवाले अपनी मातृभाषा हिन्दी के स्थान पर राजस्थानी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देली या बघेली लिखाकर अपनी बोली को राष्ट्र भाषा या विश्व भाषा तो नहीं बना सकते पर हिंदी भाषियों की संख्या कुछ कम जरूर दर्ज करा सकते हैं. इससे भी हिन्दी का कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है. आगत की आहत को पहचाननेवाला सहज ही समझ सकता है कि हिंदी ही भावी विश्व भाषा है. आज की आवश्यकता हिंदी को इस भूमिका के लिये तैयार करने के लिये शब्द निर्माण, शब्द ग्रहण, शब्द अर्थ का निर्धारण, अनुवाद कार्य तथा मौलिक सृजन करते रहना है जिसे विश्व विद्यालयों की तुलना में अधिक प्रभावी तरीके से चिट्ठाकर कर रहे हैं.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम/ सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम


7 मई 2010

मुक्तक : माँ के प्रति प्रणतांजलि: संजीव 'सलिल'

माँ के प्रति प्रणतांजलि:

तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल'  डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी.. 
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*

2 मई 2010

ब्लाग जगत ने कहा -“चिरायु भव:अक्षय कात्यानी “

https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRa_hKN-8Bo3mqrKkx6B1xZuitu45HS54nqVKqnc9Slb_UvbN7bWWCq7lhSrmOtxReoEW4k96wgbdVSEd1zlag7Fpx66pkbZ8CJ3XzhuI1C19J9yVmlevhIsxOikr127QcWHUSleFfwb8/s1600/azad3.jpg
अक्षय कात्यानी
अविनाश वाचस्पति जी ,सीमा गुप्ता जी,मनोज कुमार शर्मा,बी एस पाबला जी से लेकर कई ज्ञात-अज्ञात ब्लागर्स ने जब सहयोग का हाथ बढ़ाया तो अक्षय कात्यानि के पिता श्री सुधीर कात्यानी का मन कृतज्ञता से भर गया कल शाम तक बिना अपने आप को प्रकाशन में लाये हिन्दी ब्लॉग जगत से Rs.37,000=00 की राशी एकत्र हो चुकी है. मुझे तो सुनाई दे रहा है   ब्लॉग जगत का यह उदघोष “चिरायु भव:अक्षय कात्यानी “  हिन्दी ब्लॉग ज़गत के इस अनुकरणीय पहलू को भी देखना ज़रूरी है ............... 
हिन्दी ब्लागिंग और ब्लागर्स की ताकत को कम आंकना सबसे बड़ी भूल हो सकती आज़ हिंदी ब्लागर्स ने साबित कर दिया कि भारतीय-संस्कृति और उससे  संस्कारित ब्लागर सिर्फ़ वाक विलासी नहीं. वरन सच्चे इन्सान हैं.
कई ब्लागर साथीयों नें नाम का उल्लेख करने से रोका है मुझे उपर लिखे नाम भी साथियों से बिना अनुमति के लिखे गये हैं.  



1 मई 2010

नव गीत: समर ठन गया... --संजीव 'सलिल'


*
तुमने दंड दिया था मुझको, लेकिन वह वरदान बन गया.
दैव दिया जब पुरस्कार तो, अपनों से ही समर ठन गया...
*
तुम लक्ष्मी के रहे पुजारी, मुझे शारदा-पूजन भाया.
तुम हर अवसर रहे भुनाते, मैंने दामन स्वच्छ बचाया.
चाह तुम्हारी हुई न पूरी, दे-दे तुमको थका विधाता.
हाथ न मैंने कभी पसारे, सहज प्राप्य जो रहा सुहाता.
तीन-पाँच करने में माहिर तुमसे मन मिलता तो कैसे?
लाख जतन कर बचते-बचते, कीचड में था पाँव सन गया...
*
दाल-नमक अनुपात सतासत में रख लो यदि मजबूरी है.
नमक-दाल के आदी तुममें ऐंठ-अकड़ है, मगरूरी है.
ताल-मेल एका चोरों में, होता ही है रहा हमेशा.
टकराते सिद्धांत, न मिलकर चलना होता सच का पेशा.
केर-बेर का साथ निभ रहा, लोकतंत्र की बलिहारी है.
शीश न किंचित झुका शरम से, अहंकार से और तन गया...
*
रेत बढ़ा सीमेंट घटाना, जिसे न आता वह अयोग्य है.
सेवा लक्ष्य नहीं सत्ता का, जन- शासन के लिये भोग्य है.
हँसिया हाथ हथौड़ा हाथी चक्र कमल में रहा न अंतर.
प्राच्य पुरातन मूल्य भूलकर, फूँक रहा पश्चिम का मंतर.
पूज्य न सद्गुण, त्याज्य न दुर्गुण, रावणत्व को आरक्षण है.
देशप्रेम का भवन स्वार्थ की राजनीति से 'सलिल' घुन गया...
*****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम