27 जुल॰ 2010

चिंतन और आकलन: हम और हमारी हिन्दी --संजीव सलिल

चिंतन और आकलन:                                                                                           

हम और हमारी हिन्दी

संजीव सलिल'
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हिंदी अब भारत मात्र की भाषा नहीं है... नेताओं की बेईमानी के बाद भी प्रभु की कृपा से हिंदी विश्व भाषा है. हिंदी के महत्त्व को न स्वीकारना ऐसा ही है जैसे कोई आँख बंद कर सूर्य के महत्त्व को न माने. अनेक तमिलभाषी हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं. तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में हिन्दी में प्रति वर्ष सैंकड़ों छात्र एम्.ए. और अनेक पीएच. डी. कर रहे हैं. मेरे पुस्तक संग्रह में अनेक पुस्तकें हैं जो तमिलभाषियों ने हिन्दी साहित्यकारों पर लिखी हैं. हिन्दी भाषी प्रदेश में आकर लाखों तमिलभाषी हिन्दी बोलते, पढ़ते-लिखते हैं.
अन्य दक्षिणी प्रान्तों में भी ऐसी ही स्थिति है.



मुझे यह बताएँ लाखों हिन्दी भाषी दक्षिणी प्रांतों में नौकरी और व्यवसाय कर रहे हैं, बरसों से रह रहे हैं. उनमें से कितने किसी दक्षिणी भाषा का उपयोग करते हैं. दुःख है कि १% भी नहीं. त्रिभाषा सूत्र के अनुसार हर भारतीय को रह्स्त्र भाषा हिंदी, संपर्क भाषा अंगरेजी तथा एक अन्य भाषा सीखनी थी. अगर हम हिंदीभाषियों ने दक्षिण की एक भाषा सीखी होती तो न केवल हमारा ज्ञान, आजीविका अवसर, लेखन क्षेत्र बढ़ता अपितु राष्ट्र्री एकता बढ़ती. भाषिक ज्ञान के नाम पर हम शून्यवत हैं. दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंगरेजी, संस्कृत तथा पड़ोसी राज्यों की भाषा इस तरह ४-५ भाषाओँ में बात और काम कर पाते हैं. कमी हममें हैं और हम ही उन पर आरोप लगाते हैं. मुझे शर्म आती है कि मैं दक्षिण की किसी भाषा में कुछ नहीं लिख पाता, जबकि हिन्दी मेरी माँ है तो वे मौसियाँ तो हैं.

यदि अपनी समस्त शिक्षा हिन्दी मध्यम से होने के बाद भी मैं शुद्ध हिन्दी नहीं लिख-बोल पाता, अगर मैं हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को पूरी तरह नहीं जानता तो दोष तो मेरा ही है. मेरी अंगरेजी में महारत नहीं है जबकि मैंने इंजीनियरिंग में ८ साल अंगरेजी मध्यम से पढ़ा है. मैंने शालेय शिक्षा में संस्कृत पढी पर एक वाक्य भी संकृत में बोल-लिख-समझ नहीं सकता, मुझे बुन्देली भी नहीं आती, पड़ोसी राज्यों की छतीसगढ़ी, भोजपुरी, अवधी, मागधी, बृज, भोजपुरी से भी मैं अनजान हूँ... मैं स्वतंत्र भारत में पैदा हुई तीन पीढ़ियों से जुड़ा हूँ देखता हूँ कि वे भी मेरी तरह भाषिक विपन्नता के शिकार हैं. कोई भी किसी भाषा पर अधिकार नहीं रखता... क्यों?

मेंरे कुछ मित्र चिकित्सा के उच्च अध्ययन हेतु रूस गए... वहाँ पहले तीन माह रूसी भाषा का अध्ययन कर प्रमाणपत्र परीक्षा उत्तीर्ण की तब रूसी भाषा की किताबों के माध्यम से विषय पढ़ा. कोई समस्या नहीं हुई.. विश्व के विविध क्षेत्रों से लाखों छात्र इसी तरह, रूस, जापान आदि देशों में जाकर पढ़ते हैं. भारत में हिन्दी भाषी ही हिन्दी में दक्ष नहीं हैं तो तकनीकी किताबें कब हिन्दी में आयेंगी?, विदेशों से भारत में आकर पढनेवाले छात्र को हिन्दी कौन और कब सिखाएगा? हम तो शिशुओं को कन्वेंतों में अंगरेजी के रैम रटवाएं, मेहमानों के सामने बच्चे से गवाकर गर्व अनुभव करें, फिर हर विषय में ट्यूशन लगवाकर प्रवीणता दिलाएं हिंदी को छोड़कर... यह हिंदी-द्रोह नहीं है क्या? आप अपनी, मेरी या किसी भी छात्र की अंक सूची देखें... कितने हैं जिन्हें हिन्दी में प्रवीणता के अंक ८०% या अधिक मिले? हम विषयवार कितने घंटे किस विषय को पढ़ते हैं? सबसे कम समय हिंदी को देते हैं. इसलिए हमें हिन्दी ठीक से नहीं आती. हम खिचडी भाषा बोलते-लिखते हैं जिसे अब 'हिंगलिश' कह रहे हैं.

दोष हिन्दी भाषी नेताओं की दूषित मानसिकता का है जो न तो खुद भाषा के विद्वान थे, न उन्होंने भाषा के विद्वान् बनने दिये. त्रिभाषा सूत्र की असफलता का कारण केवल हिन्दीभाषी नेता हैं. भारत की भाषिक एकता और अपने व्यक्तिगत लाभ (लेखन क्षेत्र, अध्ययन क्षेत्र, आजीविका क्षेत्र, व्यापार क्षेत्र के विस्तार) के लिये भी हमें दक्षिणी भाषाएँ सीखना ही चाहिए. संगीत, आयुर्वेद, ज्योतिष, तेल चिकित्सा आदि के अनेक ग्रन्थ केवल दक्षिणी भाषाओँ में हैं. हम उन भाषाओँ को सीखकर उन ग्रंथों को हिन्दी में अनुवादित करें.

आशा की किरण:

अन्तरिक्षीय प्रगति के कारण आकाश गंगा के अन्य सौर मंडलों में सभ्यताओं की सम्भावना और उनसे संपर्क के लिये विश्व की समस्त भाषाओँ का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया है. ध्वनि विज्ञानं के नियमों के अनुसार कहे को लिखने, लिखे को पढने, पढ़े को समझने और विद्युत तरंगों में परिवर्तित-प्रति परिवर्तित होने की क्षमता की दृष्टि से संस्कृत प्रथम, हिन्दी द्वितीय तथा शेष भाषाएँ इनसे कम सक्षम पाई गयीं. अतः इन दो भाषाओँ के साथ अंतरिक्ष वा अन्य विज्ञानों में शोध कार्य समपन्न भाषों यथा अंगरेजी, रूसी आदि में पृथ्वीवासियों का संदेश उन सभ्यताओं के लिये भेजा गया है. हिन्दी की संस्कृत आधारित उच्चारणपद्धति,शब्द-संयोजन और शब्द-निर्माण की सार्थक प्रणाली जिसके कारण हिन्दी विश्व के लिये अपरिहार्य बन गयी है, कितने हिंदी भाषी जानते हैं?

समय की चुनौती सामने है. हमने खुद को नहीं बदला तो भविष्य में हमारी भावी पीढियां हिंदी सीखने विदेश जायेंगी. आज विश्व का हर देश अपनी उच्च शिक्षा में हिन्दी की कक्षाएं, पाठ्यक्रम और शोध कार्य का बढ़ता जा रहा है और हम बच्चों को हिन्दी से दूरकर अंगरेजी में पढ़ा रहे हैं. दोषी कौन? दोष किसका और कितना?,

अमरीका के राष्ट्रपति एकाधिक बार सार्वजनिक रूप से अमरीकियों को चेता चुके हैं कि हिन्दी के बिना भविष्य उज्जवल नहीं है. अमरीकी हिन्दी सीखें. हमर अधिकारी और नेता अभी भी मानसिक रूप से अंग्रेजों के गुलाम हैं. उनके लिये हिंदी गुलाम भारतीयों की और अंगरेजी उनके स्वामियों की भाषा है... इसलिए भारतीयों के शशक या नायक बनने के लिये वे हिन्दी से दूर और अंगरेजी के निकट होने प्रयास करते हैं. अंग्रेजों के पहले मुगल शासक थे जिनकी भाषा उर्दू थी इसलिए उर्दू का व्याकरण, छंद शास्त्र और काव्य शास्त्र न जानने के बाद भी हम उर्दू काव्य विधाओं में लिखते हैं जिन्हें उर्दू के विद्वान कचरे के अलावा कुछ नहीं मानते.

कभी नहीं से देर भली... जब जागें तभी सवेरा... हिन्दी और उसकी सहभाषाओं पर गर्व करें... उन्हें सीखें... उनमें लिखें और अन्य भाषाओँ को सीखकर उनका श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में अनुवादित करें. हिन्दी किसी की प्रतिस्पर्धी नहीं है... हिन्दी का अस्तित्व संकट में नहीं है... जो अन्य भाषाएँ-बोलियाँ हिन्दी से समन्वित होंगी उनका साहित्य हिन्दी साहित्य के साथ सुरक्षित होगा अन्यथा समय के प्रवाह में विलुप्त हो जायगा.

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20 जुल॰ 2010

हास्य कुण्डली: संजीव 'सलिल'



















हास्य कुण्डली:
 संजीव 'सलिल'
*
घरवाली को छोड़कर, रहे पड़ोसन ताक.
सौ चूहे खाकर बने बिल्ली जैसे पाक..
बिल्ली जैसे पाक, मगर नापाक इरादे.
काश इन्हें इनकी कोई औकात बतादे..
भटक रहे बाज़ार में, खुद अपना घर छोड़कर.
रहें न घर ना घाट के, घरवाली को छोड़कर..
*
सूट-बूट सज्जित हुए, समझें खुद को लाट.
अंगरेजी बोलें गलत, दिखा रहे हैं ठाठ..
दिखा रहे हैं ठाठ, मगर मन तो गुलाम है.
निज भाषा को भूल, नामवर भी अनाम है..
हुए जड़ों से दूर, पग-पग पर लज्जित हुए.
घोडा दिखने को गधे, सूट-बूट सज्जित हुए..
*
गाँव छोड़ आये शहर, जबसे लल्लूलाल.
अपनी भाषा छोड़ दी, तन्नक नहीं मलाल..
तन्नक नहीं मलाल, समझते खुद को साहब.
हँसे सभी जब सुना: 'पेट में हैडेक है अब'..
'फ्रीडमता' की चाह में, भटकें तजकर ठाँव.
होटल में बर्तन घिसें, भूले खेती-गाँव..
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

18 जुल॰ 2010

जन्म दिन मनवाने वाले पाबला जी :धन्यवाद

http://1.bp.blogspot.com/_0P94DcPJ6cE/SMY5gm8C8MI/AAAAAAAAAMQ/dUFdqgoIeNA/s400/animated-ballerina-birthday-cake.gifपाबला जी की वज़ह से सब एक दूसरे को जन्म दिवस पर याद कर लेते हैं आप में से कोई छूटा हो तो अवश्य उनको मेल कर दीजिये वैसे वे स्वयम खोज लेते हैं पर फ़िर भी ...................खैर देखिये आज़ तक के जन्म दिन तो नीचे लिंक्स में आप देख ही सकते हैं यदि आप चाहें तो सीधे => इधर भी देखिये
अंशुमन आशु अक्षयांशी सिंह सेंगर अक्षिता अजय कुमार झा अजित वड़नेरकर अतुल मिश्र अनिता कुमार अनिल कुमार अनिल पुसदकर अनुनाद सिंह अनुराग अन्वेषी अनूप भार्गव अनूप शुक्ल अभिषेक ओझा अभिषेक प्रसाद अमलेन्दु उपाध्याय अमित कुमार यादव अमित गुप्ता अमिताभ त्रिपाठी अमिताभ 'मीत' अरविन्द मिश्रा अरविन्द श्रीवास्तव अरूण अरोरा 'पंगेबाज' अरूण मिश्रा अरूणा राय अर्शिया अली अलबेला खत्री अविनाश वाचस्पति आकांक्षा यादव आदित्य कुमार आदित्य रंजन आर सी मिश्र आलोक पुराणिक आशीष महर्षि इरफ़ान इरफान खान इरशाद अली उदय 'मणि' कौशिक उपदेश सक्सेना उमर कैरानवी उलूक एम वर्मा कंचन सिंह चौहान कनिष्क कश्यप कविता वाचक्नवी कार्तिकेय मिश्र काशिफ़ आरिफ़ कीर्तिश भट्ट कुमारेन्द्र सेंगर कुलवंत हैप्पी कुलवन्त हैप्पी कुश कुसुम ठाकुर कृष्ण कुमार यादव के सी वर्मा (कमलेश वर्मा) कोपल कोकास खुशदीप सहगल गगन शर्मा गिरिजेश राव गिरीन्द्रनाथ झा गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल' गौतम राजरिशी घुघूती बासूती चंदन कुमार झा चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जतिन्दर परवाज़ जयप्रकाश मानस जवाहर चौधरी ज़ाकिर अली "रजनीश" जाकिर अली 'रजनीश' जादू जी के अवधिया जीतेन्द्र (जीतू) ज्ञानदत्त पाण्डेय डॉ अनुराग डॉ कविता वाचक्नवी डॉ टी एस दराल डॉ मनोज मिश्र डॉ योगेन्द्र मणि कौशिक डॉ विजय तिवारी 'किसलय' डॉ श्रीमति अजित गुपता डॉ. श्रीमती अमर भारती डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री डॉ० अमर कुमार तपन शर्मा तुलसीभाई पटेल दर्पण दिनेश कुमार माली दिनेशराय द्विवेदी दिविक रमेश दीपक 'बेदिल' दीपिका कुमारी देबाशीष देव कुमार झा देवतोष श्रीवास्तव धीरू सिंह नदीम अख़्तर नरेश सिंह राठौड़ नवीन प्रकाश नितीश राज निर्मला कपिला निशांत मिश्रा नीरज "मुसाफिर" जाट नीरज गोस्वामी नीरज बधवार नीलिमा पं. डी. के. शर्मा "वत्स" पंकज उपाध्याय पंकज नारायण पंकज बेंगाणी पंकज मिश्रा पंकज सुबीर परमजीत बाली पल्लवी पवन *चंदन* पवन कुमार पवन कुमार अरविन्द पुनीत ओमर पूजा उपाध्याय पूर्णिमा वर्मन प्रकाश गोविन्द प्रकाश पाखी प्रकाश बादल प्रकाश सिंह 'अर्श' प्रज्ञा प्रसाद प्रणय शर्मा प्रताप सहगल प्रतीक पांडेय प्रत्यक्षा प्रदीप मिश्रा प्रभात गोपाल झा प्रमेन्द्र प्रताप सिंह प्रमोद ताम्बट प्रवीण त्रिवेदी प्रशांत प्रियदर्शी प्रियंकर प्रीति बड़थ्वाल प्रीति मेहता (ρяєєтι) फ़िरदौस खान बवाल बेज़ी जैसन भगीरथ परिहार भुवनेश शर्मा मंसूर अली हाशमी मनविन्दर भिम्बर मनीष कुमार मनीष जैन मनोज बाजपेयी मनोज शर्मा मयंक सक्सेना मयूर दुबे मसिजीवी महफूज अली महावीर बी सेमलानी महावीर शर्मा मानसी मिथिलेश दुबे मीनाक्षी मीनू खरे मुकेश पोपली मुफ़लिस मोनिका गुप्ता मोहन वशिष्ठ यशवंत सिंह यूनुस खान शिखा वार्ष्नेय रंजन मोहनोत रंजना (रंजू) भाटिया रचना त्रिपाठी रचना सिंह रजनीश कुमार झा रजनीश परिहार रज़िया राज रज़ी शाहाब रणधीर सिंह 'सुमन' रतन सिंह शेखावत रवि रतलामी रश्मि रविजा रश्मि स्वरूप राकेश खण्डेलवाल राज भाटिया राजकुमार ग्वालानी राजकुमार सोनी राजीव कुमार राजीव जैन राजीव तनेजा राजेश त्रिपाठी राजेश पटेल राजेश रोशन रानी विशाल रावेंद्रकुमार रवि रौशन ललित शर्मा लवली कुमारी लविज़ा लावण्या शाह लोकेन्द्र विक्रम सिंह वन्दना अवस्थी दुबे वन्दना गुप्ता वाणी गीत विजय कुमार सप्पत्ति विजय वड़नेरे विद्यासागर महथा विनय शर्मा विनीत उत्पल विनीत कुमार विनोद कुमार पांडेय विनोद पाराशर विमल वर्मा विवेक रस्तोगी विवेक सिंह शबनम खान शमा शरद कोकास शशि सिंह शाश्वत शेखर शास्त्री जे सी फिलिप शिखा दीपक शिवकुमार मिश्र शिवम् मिश्रा शिशुपाल प्रजापति शुऐब शुभम मंगला शेफाली पांडे शैलेष भारतवासी श्यामल सुमन श्रीमती आशा जोगलेकर श्रीश पाठक संगीता पुरी संगीता स्वरूप संजय कुमार चौरसिया संजय तिवारी संजय बेंगाणी संजीत त्रिपाठी संजीव कुमार सिन्हा संदीप सजीव सारथी सत्यनारायण भटनागर समीर यादव समीर लाल सागर नाहर सिद्धार्थ जोशी सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी सुजॉय चटर्जी सुधीर सुबोध राय सुरेश चन्द्र गुप्ता सुरेश चिपलूनकर सुरेश शर्मा सुलभ जायसवाल सतरंगी सुशील कुमार सुशील सिंह छौक्कर सूर्य गोयल सूर्यकांत गुप्ता सैयद अकबर स्वप्न मंजूषा शैल हरकीरत हकीर हरि शर्मा हरी शर्मा हर्षवर्धन त्रिपाठी हर्षवर्धन नाहर हिमांशु

14 जुल॰ 2010

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

संजीव 'सलिल'
*
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*
दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह.
'सलिल' नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
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हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
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रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*

10 जुल॰ 2010

अभिनव प्रयोग- गीत: कमल-कमलिनी विवाह संजीव 'सलिल'

अभिनव प्रयोग-
गीत:

कमल-कमलिनी विवाह

संजीव 'सलिल'
*
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* रक्त कमल 

अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
*















* हिमकमल 
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.

कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर

यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*















* नील कमल 
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.

बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया

अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!... 
*














* श्वेत कमल 
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.

असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे

श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
***************














* ब्रम्ह कमल

टिप्पणी:

* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल  तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत,  कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि  से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना अत्यधिक लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?

 * कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं. 

* दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

6 जुल॰ 2010

कृति चर्चा: चुटकी-चुटकी चाँदनी : दोहा की मन्दाकिनी चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल'

कृति चर्चा: 
चुटकी-चुटकी चाँदनी : दोहा की मन्दाकिनी
चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
कृति विवरण : चुटकी-चुटकी चाँदनी, दोहा संग्रह, चन्द्रसेन 'विराट', आकार डिमाई, सलिल्ड, बहुरंगी आवरण, पृष्ठ १५६, समान्तर प्रकाशन, तराना, उज्जैन, म.प्र. 
*

हिंदी ही नहीं विश्व वांग्मय के समयजयी छंद दोहा को सिद्ध करना किसी भी कवि के लिये टेढ़ी खीर है. आधुनिक युग के जायसी विराट जी ने १२ गीत संग्रहों, १० गजल संग्रहों, ३ मुक्तक संग्रहों तथा ६ सम्पादित काव्य संग्रहों के प्रकाशन के बाद प्रथम प्रयास में ही दोहा को न केवल सिद्ध करने में सफलता पाई है अपितु अपने यशस्वी कृतित्व को भी एक नया आयाम दिया है. विराट ने प्रत्यहम दोहा संग्रह में पद-पद पर, चरण-चरण पर प्रमाणित किया है कि वे केवल नागरिकी संरचनाओं को मूर्त रूप देने में दक्ष नहीं हैं अपितु अपनी मानस-सृष्टि में अक्षर-शब्द, भाव-रस, बिम्ब-प्रतीक, अलंकार-शैली तथा प्रांजलता-मौलिकता के पञ्च तत्वों से द्विपदी रचने की तकनीक में भी प्रवीण हैं. 

हिंदी की चिरपुरातन-नित नवीन छांदस काव्य परंपरा के ध्वजवाहक विराट ने इस छोटे छंद को बड़ी उम्र में रचकर यह अनकहा सन्देश दिया है कि न्यूनतम में अधिकतम या गागर में सागर को समाहित करने की कला तथा तकनीक परिपक्व चिंतन, उन्मुक्त मनन, लयबद्ध सृजन, सानुपातिक गठन तथा अभिनव कहन के समन्वित-संतुलित समन्वय-समायोजन से ही सिद्ध होती है. अपेक्षाकृत लम्बे गीतों-ग़ज़लों, मुक्तकों के बाद दोहों पर हाथ आजमाकर विराट ने 'प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर. चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सिर दूर.' के चिरंतन सत्य को आत्मार्पित किया है. दोहांचार्य होते हुए भी स्वयं को मात्र छात्र माननेवाले विराट का कवि पानी और प्यास दोनों में जीवन की पूर्णता देखते हैं-

तृषा-तृप्ति का संतुलित, बना रहे अहसास.
जीवन में दोनों मिलें, कुछ पानी कुछ प्यास..

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ दोहाकार-समीक्षक डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत' ने इस दोहा संग्रह की भूमिका में गीति काव्य की अमरता का गुह्य सूत्र उद्घाटित किया है जिसे हर रचनाकार को आत्मसात कर लेना चाहिए- 'रचना में अर्थ की हर पर्त नहीं खोलना चाहिए, पाठक बहुत समर्थ होता है इसलिए कुछ अर्थ ग्रहण उस पर भी छोड़ देना चाहिए. कविता केवल वैचारिक वक्तव्य नहीं होती, उसमें रसोद्रेक के साथ मार्मिक मंतव्य भी होना चाहिए. यदि भाषा, बिम्ब, एवं प्रतीक अद्यतन हों तो यंत्र-व्यस्त जटिल जीवन भी गेय हो जाता है.' 

यह सनातन सत्य नवोदित कवियों विशेषकर छंद को न समझ-लिख पाने के कारण कथ्य-प्रगटीकरण में बाधक मानने का भ्रम पाले छंद-हीन रचनाएँ रचकर अपना और पाठकों का समय नष्ट कर रहे रचनाकारों को आत्मसात कर लेनी चाहिए.

विराट के विराट चिंतन को वामनावातारी दोहों ने गीतों और ग़ज़लों की तुलना में समान दक्षता से अभिव्यक्त किया है. सम सामयिक विसंगतियों पर विराट का शब्द-प्रहार द्रष्टव्य है-

असहज, अकरुण, अतिशयी, आत्यंतिकता ग्रस्त 
अधुनातन नर हो गया, अतियांत्रिक अतिव्यस्त..

भाती सीधी बात कब?, करते लोग विरोध.
वक्र-उक्ति ही मान्य है, व्यंग्य बना युग-बोध..
विराट की संवेदना हरियाली की नृशंस हत्या होते देखकर सिसक उठती है-

चले कुल्हाडी पेड़ पर, कटे मनुज की देह.
रक्त लाल से हो हरा, ऐसा उमड़े स्नेह..

विराट आरोप नहीं लगाते, आक्षेप नहीं करते, उनकी शालीनता और शिष्टता प्रकारांतर से वह सब कह देती है जिसके लये अन्य कवि आक्रामक भाषा और द्वेषवर्धक शब्दों का प्रयोग करते हैं. 

पेड़ काटने का हुआ, साबित यों आरोप.
वर्षा भी बैरन बनी, सूरज का भी कोप..

यहाँ वे किसी व्यक्ति, जीवन शैली या व्यवस्था को कटघरे में खड़े किए बिना ही विडम्बना का शब्द-चित्र उपस्थित कर देते हैं. मनुष्य के दोहरे चहरे और दुरंगा आचरण विराट को व्यथित कर देते हैं-

दिखते कितने सौम्य हैं, कितने सज्जन-नेक.
मगर कुटिल, कपटी, छली, यहाँ एक से एक..

दोहे की दो पंक्तियों में जीवन के दो पक्षों को अभिव्यक्त करने में विराट का सानी नहीं-

अधिक काम पर प्राप्ति कम, क्यों न आ रहा रोष?
इतना भी मिलता किसे, हमको तो संतोष..

विराट का उदात्त जीवन दर्शन असंतोष से संतोष  सृजन करना जानता है. 'अति सर्वत्र वर्जयेत' की उक्ति विराट के दोहे में ढलकर आम आदमी के अधिक निकट आ पाती है, अत्यधिक मीठे में कीड़े पड़ने का सत्य हम जानते ही हैं. विराट कहते हैं -

ज्यादा अच्छाई नहीं, ज्यादा अच्छी बात.
अच्छाई की अधिकता, अच्छाई की मात..

इस संकलन के प्रेमपरक दोहों में विराट की कलम की निखरा-मुखरा छवि पटक के मन को बांधने में समर्थ है. प्रेम के संयोग-वियोग दोनों ही रूपों के प्रवीण पक्षधर विराट पता को असमंजस में डाल देते हैं कि कि वह किसे अधिक प्रभावी माने-

मिलन-क्षणों का दिव्य सुख, मुंदी जा रही आँख.
उड़े जा रहे व्योम में, हम जैसे बिन पाँख..

लगे न, गम था, जब लगे, नहीं लग रहे नैन.
ये तब भी बेचैन थे, ये अब भी बेचैन.. 

यहाँ 'नैन लगने' के मुहावरे का दुहरे अर्थ में प्रयोग और दोनों स्थितियों में समान प्रभाव को दोहे में कह सकना विराट के दोहाकार के कौशल की बानगी है. 

'चुटकी-चुटकी चाँदनी' के हर दोहे की हर पंक्ति मुट्ठी-मुट्ठी धूप लेकर आपके मन-आँगन को उषा की सुनहरी आभा से आलोकित करने में समर्थ है. यह संग्रह विराट के आगामी दोहा-संग्रह की प्रतीक्षा करने के लिये विवश करने में समर्थ है. सारतः 'अल्लाह करे जोरे करम और जियादा' ..
                                                                                                      -दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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भोपाल गैस त्रासदी : एक शब्द चित्र डॉ. कमल जौहरी डोगरा, भोपाल

भोपाल गैस त्रासदी : एक शब्द चित्र

डॉ. कमल जौहरी डोगरा, भोपाल

*

याद है उन्नीस सौ चौरासी
दो दिसंबर की वह भीषण रात
और तीन दिसम्बर का धुंधला सवेरा
बीत गए जिसके छब्बीस साल.

शीत ऋतु की काली रात वह
गैस त्रासदी के लिये कुख्यात.
बन गयी बिकाऊ खबर
विश्व-नक़्शे पर उभर आया भोपाल.

सहानुभूति-सहायता का समुद्र लहराया
पत्रकारों, छायाकारों की भारी भीड़
नेताओं की दौड़-भाग, गहमा-गहमी
सब उमड़ आये भोपाल में बादलों से.

कुछ देर में छँट गए थे बादल
बिना बरसे उड़ गए हवा में शीघ्र
रह गयी जनता कराहती, दुःख भोगती
अनाथ बच्चे, विधवा नारियाँ बिसूरती.

पुरुष जो बच गए, पुरुषार्थ से हीन
आजीविका कमाने में असमर्थ वे
परिवार बिखरे, कुछ के लापता सदस्य
जो आज तक गुमशुदा सूची में हैं.

कैसी घोर विपत्ति की थी रात?
सड़कों पर भीड़, भागता जन समूह
कहीं भी, कैसे भी भोपाल से
दूर भाग जाने को व्याकुल.

पर दिशाहीन इन मानवों के लिये
मार्गदर्शन देनेवाली वाणी मौन थी.
सरकारी घोषणा न थी कहीं कोई
भेड़ों सी भागती जनता थी सब कहीं.

स्मरण है हम भी भागे थे भीड़ में
आँख जब अचानक खुल गयी थी.
खांसी की तकलीफ से छोड़ा बिस्तर
पहुँचे थे पानी पास, आँख की जलन से.

पीड़ा न कम हो पाई पर किसी तरह
अचानक शोर-गुल सड़क पर सुन
जिज्ञासा-कौतूहल ने उकसाया था
पूछने पर सुना: ''तुम भी भागो.

गैस निकली है कार्बाइड से विषैली.
मर रहे हैं लोग, शहर से दूर जाओ.''
घर में न सवारी थी, न कोई पुरुष ही
केवल एक बालक, विद्यार्थी था.

मृत्यु के भय ने लगा दिये थे पंख
किसी तरह हड़बड़ी में ताला डालकर
भाग लिये थे हम, पैरों पर दौड़ते से
रास्ते पर वाहन भरे थे लोगों से.

कोई न सुन रहा था हमारी गुहार.
लिफ्ट देने की करुण प्रार्थना पुकार
न जगह थी, न समय उनके पास.
थी पीछे मौत, भागना था उससे दूर.

आखिर पैदल ही मीलों चले उस रात
कई और भी लोग थे हमारे साथ
रुके वहाँ जहाँ सो रहे थे निवासी
शरण ली के घर में परिचितों के साथ.

फिर पौ फटी, सूरज उग रहा था.
अफवाहों का घटाटोप भी छंटा.
कोई आया उनके घर, हादसे को देख
शवों, मूर्छितों से पटी सड़कें लाँघकर.

आँखों-देखी का वर्णन कर रहा था
अस्पतालों में पीड़ितों की भीड़
सड़कों पर नेताओं की कुछ जीपें
कितना विषैला प्रभाव था गैस का?

मानव ही नहीं मार्ग और गलियों में थी
गाय, बकरी, मुर्गियों की निर्जीव देहें.
झुलसे पेड़, पत्तियां थी जहर रहीं
मृत्यु की काली छाया सब पर पडी.

हो गया शहर का जीवन गतेहीन
केवल रुदन, कराहें, अस्पतालों में लोग
आवागमन के साधन भी न थे कहीं
न तांगा, न टेम्पो, न कोई बस.

मृतकों को ढो रही थीं सरकारी गाड़ियाँ
या कि एम्बुलेसों में जिंदा बेहोश देहें
स्वयंसेवक व्यस्त थे, मूर्छितों को ढोते.
झुग्गी-झोपडी से निकालते पीड़ितों को.

उधर दान का था दौर चल पड़ा
अस्पतालों में था अम्बर भोजन का.
औषधियाँ भी दान में आने लगीं थीं.
दानियों की भीड़ लगी थी, होड़ सी.

भाग्यशाली थे वे जो बच गये थे.
या कि वे जिन्हें कम क्षति पहुँची थी.
देखने को उत्सुक थे, चिंतित भी
वे ही दानी थे, वे ही सेवा में रत.

उज्जवल पक्ष एक था इस त्रासदी का
सरकारी चिकित्सकों ने किया रात-दिन एक.
भूखे-प्यासे जुटे थे वे बचाने में
पीड़ितों को जीवित मृत्यु-मुख से.

शहर के सब अस्पताल भर गए
बल्कि तम्बू भी तने थे शरण देने हेतु.
नागर में अफवाह थी: पानी, वनस्पति
हवा सब कुछ, हो गया दूषित यहाँ पर.

आतंकित थे लोग, हवा-पानी किस तरह छोड़ें?
सब्जी खाना छोड़ दी थी सभी ने.
सब कुछ अछूत सा हो गया था शहर में
जन-पलायन भी शुरू हो चला था.

कई मोहल्ले सूने हो गए पूरे के पूरे.
ताले लगे हुए थे द्वारों पर, पुराने भोपाल में.
कुत्ते भटक रहे थे भूख से व्याकुल बहुत
वीरान हो गया था शहर का बड़ा हिस्सा.

हमीदिया अस्पताल में देखे थे हमने
कुछ नन्हें बच्चे नर्सों की गोद में
जिनको लेने कोई नर-नारी न आया था.
अब अनाथों की सूची में थे वे लावारिस.

स्कूल-कालेज बंद हो गए अनिश्चय में
पढने, पढ़ानेवाले दम साध घर में बैठे थे.
कुछ के संबंधी चल बसे थे, कुछ खुद पीड़ित थे.
कौन-किसे आदेश देता? जिसकी प्रतीक्षा थी.

दफ्तरों में हाजिरी थी न्यून याकि शून्य.
कुछ तो खुले ही न थे, खोलनेवाला न था.
डाक, तर, टेलीफोन सब बंद हो गये.
बहर के शहरों में दुखी-चिंतित थे संबंधी.

मृत्यु का तांडव नृत्य देखा आँखों से
भोपाल आ गया था काल की चपेट में.
अकाल मौत की छाया मंदर रहे एथी
सब ओर हाहाकार, आशंका और भय था.

ऐसे दिन कभी न देखे थे जीवन में.
कितने प्राणियों को डँस लिया था
कितनों को निर्जीव-अपंग बना था
'युनियन कार्बाइड' के कारखाने ने.

यह कारखाना जो कभी खुला था
सौभाग्य बनकर इस धरती पर
हजारों की आजीविका का साधन बनकर
अधिकारी बन गए थे कुछ  पहुँचवाले.

उनका व्ही. आई. पी. गेस्ट हाउस
शरण देता था बहुतों को कृपा कर
फिर भला कौन जाँच करता उनके
जन-घातक कारनामों की समय पर.

पहले भे एछुत-पुट घटनाएँ हुईं थीं
विधान सभा में उठे प्रश्न, हुई चर्चा
दबा दी गयी आवाज़ सत्य- न्याय की
दफना दी गयीं घटनाएँ फाइलों में.

शासन की यही उपेक्षा भारी पड़ गयी
बन गयी महाकाल के तांडव की वज़ह.
काल-सर्प डँस गया हजारों को भोपाल में
लिख गया इतिहास भयावना-डरावना.

दोषी कोई और, पाप किसी और का
फल भोग निर्दोष नागरिकों ने, भाग गए
ज़िम्मेदार नेता, जन प्रतिनिधि, अधिकारी
बची रही सभी की कुर्सी, की कर्त्तव्य की उपेक्षा.

प्रधानमंत्री ने लगाया फेरा अस्पताल का
दिया आश्वासन पूरी सहायता का, 'की कृपा?'
बोले मुख्यमंत्री, 'सभी साधन हैं यहाँ',
'सफ़ेद झूठ' कह हँसा महाकाल. कौन सुनता?

विदेशों से आये आश्वासन, संवेदनाएँ, राशियाँ
समां गए प्रशासन के भस्मासुरी पेट में,
कट न पाये कष्ट बेबस जनता के आज तक
हो नहीं सका है न्याय, न आशा शेष है न्याय की.

विदेशी पत्रकार लिये कीमती कैमरे
आ धमके अमरीकी वकील, दिलायेंगे न्याय
लुटेरे बाँटेंगे खैरात?, कैसा ढकोसला?
हाय रे मानव! पीड़ितों को दिलासा भी झूठी.

आने लगे शोधकर्ता क्रमवार, पूछते प्रश्न
चिकित्साशास्त्र के विद्यार्थी, कुरेदते घाव
समाजशास्त्र के शोधकर्ता जुटते आँकड़े
किसे चिंता पीड़ितों की?, सभी चाहते तथ्य.

आया ए.आई.एम्. संस्थान करने परीक्षण
परखने 'मिक' का दुष्प्रभाव मनुज शरीर पर
दी होगी कुछ सच्ची-कुछ झूठी रिपोर्ट
जनता तक न पहुँचने दी गयी उसकी भनक.

अखबारी खबर: 'सरकार ने छिपाली रपट.
कैसे और कौन करता प्रकाशन? खुलता झूठ
बेनकाब होता शासन-प्रशासन. हद तो यह
घातक रोगों से घिरे जन को न दी गयी जानकारी.

कौन किसे कब कैसे देगा मार्गदर्शन?
इस विपदा से जूझने का, न जानता था कोई.
अँधेरे में सुई टटोलते से, रोगियों को
सतही स्तर पर दावा दे रहे थे चिकित्सक.

लक्षणों पर आधारित पद्धति से हो रहा था
इलाज साधनहीन सरकारी अस्पतालों में.
चिकित्सकों को भी ज्ञात न था उस वक़्त
कौन से विषैले रासस्याँ मिले थे गैस में.

'कार्बाइड मौन था, सरकार चुप्प, अँधेरा घुप्प.
अधिकारी थे संवेदना शून्य-उदासीन.
लोगों में व्याप्त थी दहशत, दानवी कारखाने से
अब भी बची थी भारी मात्रा में 'मिक' भंडारों में.

किसी भी दिन फ़ैल सकती है विषैली गैस.
वायुमंडल को कर सकती है दूषित.
लौट न पा रहे थे लोग, इसी भय से.
अतः, घोषणा हुई 'ऑपरेशन फेथ' की.

भगोड़ा अर्जुन आया तानकर सीना, बोला:
'वैज्ञानिक करेंगे नष्ट 'मिक को, न हों भयभीत'
न हुआ भरोसा किसी को झूठे-लबार  पर
तिथि तय हुई, फिर भागे लोग जन बचाने.

वह दिन भी आया और निकल गया
शनैः-शनैः हुआ था भय कुछ कम.
पनप रहे थे रोग- घातक, असाध्य, पीड़ादायी
चल रही थी दावा लम्बे समय की.

क्रमशः दम तोड़ रहे थे पीड़ित
मृत्यु दर तीव्रता से बढ़ रही थी.
सरकारी आँकड़े कह रहे थे कुछ और
फिर भी संख्या पहुँची हजारों में.

जो बच भी गए वे कमाने काबिल न थे.
खाँसते-कराहते थे रात-दिन अस्पतालों में.
धरती या खाट पर पड़े कमजोर-कंकाल
भविष्य की फ़िक्र में तिल-तिल घुल रहे थे.

खुले थे कुछ वार्डों में अस्थायी कैम्प.
बँट रहा था अनाज गरीब तबकों में.
कुछ ज़रूरी राशन कुछ को मिला मुफ्त.
ले रहे थे काँपते हाथ, हताश चेहरे, बुझी नज़रें.

धीरे-धीरे आ रही थी गति शहर में
खुले थे दफ्तर, शालाएँ, महाविद्यालय भी.
पर चहल-पहल न थी कहीं, सर्वत्र उदासी
तूफ़ान के बाद की सी शांति फ़ैली थी.

गैस-राहत का दफ्तर खुल गया था'
अधिकारी भी नियुक्त किए गये थे उनमें.
 सक्रिय हो रहे थे वे धीरे-धीरे,
बन रहे थे कानून,निबटने समस्या से..

सरकारी तंत्र चलता है जिस तरह 
समय तो लगना ही था व्यवस्था में,
किन्तु काल कब करता है इन्तिज़ार?
उसकी गति तेज़ थी निगलने की..

यंत्रवत सा सब चलने लगा था.
दिनचर्या चलने लगी पर निर्जीव सी,
लोग आने लगे वापिस, पलायन रुका
बँट रहे थे फार्म 'दावे; के प्रचुरता से..

उस हेतु भी वापिस आ रहे थे लोग
आशा बंध गयी थी कि कुछ होगा अब.
क्षतिपूर्ति का लाभ मिलेगा शीघ्र ही
धंधा-इलाज सब कर सकेंगे जिससे..

किन्तु एक साल बाद ही मिल पाये थे
केवल दो सौ पचास रुपये प्रति माह के.
'अंतरिम राहत' के नाम से, भीख की तरह
अनेक चक्करों और लंबी कतारों के बाद..

बैंकों की शाखाएँ खुलीं फिर तो
भीड़ जब सम्हाली न थी सरकारी तन्त्र से.
दावों की सुनवाई का चला नाटक
न्यायाधीशों की नियुक्ति ने लिये कुछ साल..

कराहती जनता कर रही थी एकत्र
साक्ष्य के लिये चिकित्सा के सबूत.
मृतकों के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट
श्मशानों, कब्रिस्तानों के प्रमाण पत्र भी..

बहुत मुश्किल था यह सब जुटाना
कहाँ, किसके पास रखा था सुरक्षित
अशिक्षित जनता कहाँ जानती थी
इंसान से ज्यादा, कागजों का महत्त्व?

बेबस, बीमार, लाचार काट रहे थे चक्कर
न्याय पद्धति जटिल-जानलेवा-समयलेवा.
शासकीय मशीनरी जड़, संवेदना से शून्य.
न्यायाधीश करते कानून का पालन?

कानून जो होता है अंधा और बहरा
भीषणतम त्रासदी कभी कहीं नहीं घटी
इससे उसे क्या सरोकार? उसे चाहिए-
सबूत, आप जिंदा हैं? इसका भी..

कानून की इस प्रक्रिया ने ले लिये
कितने ही वर्ष?, पीड़ितों की दशा
बाद से बदतर हो रही थी प्रति पल
न्याय की आस में तोड़ गए दम कितने ही..

न वकील, न बहस, न तारिख
एक दिन आता कागज़- आइये! लेने मुआवजा
फलां दिन, फलां जगह, फलां समय...
श्रेणीबद्ध कर दिये पीड़ित, क्या पीड़ा भी?

ए, बी, सी, डी... श्रेणी में बाँटा था जिनने
नहीं विदित था उनको भी आधार रहा क्या?
भीषणतम विभीषिका थी यह इस शताब्दी की
इंसानों के साथ मरे पशु-पंछी अगणित..

जीवन भर को बन गए थे लाखों रोगी.
अस्थमा, खांसी, ह्रदय की बीमारियाँ.
नेत्र-ज्योति ही हानि, कैंसर से भयंकर रोग
पल-पुस रहे थे अगणित शरीरों में दिन-रात.

गर्भिणी महिलाएँ, गर्भस्थ शिशु भी
हुए थे दुष्प्रभावित विषैली गैस संक्रमण से.
आजीवन ही नहीं, पीढ़ियों तक रहेगा प्रभाव
हानि का मूल्य आँकना संभव नहीं.

सरकार ने आंकी थी कीमत, बहुत सस्ती
शासन के आकाओं की नज़र में
आदमी की पीड़ा की कीमत
न्यूनतम केवल बीस हज़ार ही थी.

अधिकतम?... कुछ ज्यादा हज़ार...
मृतकों का मुआवजा- लाख रुपये
इंसान की कीमत आंकी गयी जीवित रहते
उपार्जन क्षमता से, आयु से, रुतबे से.

करोड़ों की राशि लेकर बैठी सरकार
अत्यंत कृपण थी उसे पीड़ितों तक पहुँचाने में.
न योग्यता का मूल्य, न विशेषज्ञता का,
न विद्वता का, न त्याग-समर्पण का.

योजनायें बनाती रहीं, चलती रहीं
बरसों तक इलाज़ की, बसाहट की.
रोज़गार देने की, अशक्तों को
निराश्रितों को पेंशन दिलाने की.

खोले गए नए अस्पताल करोंड़ों के
कुछ तो आज तक न हो सके क्रियाशील
कैसी ढील?, कीमती मशीनों में लगी में जंग 
अब भी चल रहा है चक्र लगातार.

आधे-अधूरे मन से हो रहा है यहसब
किसी की सच्ची लगन या रूचि नहीं
नेता है राजनीति और वोटो के खेल में व्यस्त
अधिकारी लाल-फीताशाही के मद में ग्रस्त.

लंबी अंतहीन कहानी, न जाने कब तक चले?
एक और महत्वपूर्ण पक्ष है इस त्रासदी का
हत्यारों को दंड दिलाना भी तो जरूरी था
जो जिम्मेदार थे हजारों प्राणियों की मौत के.

कंपनी के मलिक को न कर गिरफ्तार
भगाया था देश से सुरक्षित, सरकारी यान से
फिर बन कमजोर केस, कई दिनों बाद
कुछ साल चलता रहा, ख़बरें छपती रही.

अंत में किया गया एक समझौता
राष्ट्रीय अस्मिता से, बहुत अपमानजनक ढंग से
केवल कुछ करोड़ रुपयों की राशि देकर
बरी हो गया अपराधी जघन्य अपराध से.

उत्पीड़ितों से कुछ न पूछ गया.
न जाना गया जनमत, वाह रे जनतंत्र.
इस समझौते से साफ़ हो गया कि आज भी
हम दास हैं विदेशी आकाओं के.

उस दिन इस स्वतंत्र देश का सिर नीचा हुआ.
भारतीयों की जान की कीमत कुछ भी नहीं.
भारतीय की हत्या देश में हो या विदेश में
अपराध नहीं बनती, सजा नहीं मिलती
कलंकित हुआ देश दुनिया और भावी पीढ़ियों के सामने.

किसने किया यह अन्यायपूर्ण  समझौता?
व्यक्ति हो सरका... किसने दिया अधिकार?
जनता दण्डित देना चाहती है कंपनी मालिकों को
'एंडरसन' को फाँसी होनी ही चाहिए.

हम दे न सके हत्यारों को सजा कोई.
धनराशि का हुआ भरपूर दुरूपयोग.
चिल्लाते हैं उत्पीडित आज भी
वर्षगाँठ मनती है हर बरस, होती हैं घोषणाएँ.

अब भी कहाँ सुरक्षित है यह शहर?
अब भी दबे हैं विशिले-घातक रसायन
कारखाने की मिट्टी और टैंकरों में.
ला सकते हैं कभी भी प्रलयंकर भूचाल.

भूलते जा रहे हैं वह भीषण रात क्रमशः.
प्रकृति का नियम है भूलो और जिओ
कितु याद न रखा तो- फिर-फिर होंगे हादसे
फिर-फिर होगा अन्याय देश में यहाँ या अन्यत्र.

दास्ताँ लंबी ही पीड़ितों की पीडाओं की
कहाँ तक कही-लिखी जाये?, इस घड़ी
सिर्फ और सिर्फ कलम की श्रृद्धांजलि
मृतकों को, संवेदना पीड़ितों के लिये अशेष.

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-दिव्यन्र्म्दा.ब्लागस्पाट.कॉम