24 अक्तू॰ 2010

दोहा सलिला: भाई को भाई की, भाये कुछ बात..... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

भाई को भाई की, भाये कुछ बात.....

संजीव 'सलिल'
*
जो गिरीश मस्तक धरे, वही चन्द्र को मौन.
अमिय-गरल सम भाव से, करे ग्रहण है कौन?
महाकाल के उपासक, हम न बदलते काल.
व्याल-जाल को छिन्न कर, चलते अपनी चाल..
अनुज न मेरा कभी भी, होगा तनिक हताश.
अरिदल को फेंटे बना, निज हाथों का ताश..
मेघ न रवि को कभी भी, ढाँक सके हैं मीत.
अस्त-व्यस्त खुद हो गए, गरज-बरस हो भीत..
सलिल धार को कब कहें, रोक सकी चट्टान?
रेत बनी, बिखरी, बही, रौंद रहा इंसान..
बाधाएँ पग चूम कर, हो जायेंगी दूर.
मित्रों की पहचान का, अवसर है भरपूर..
माँ सरस्वती शक्ति-श्री का अपूर्व भण्डार.
सदा शांत रह, सृजन ही उनका है आचार..
कायर उन्हें  न मानिये, कर सकती हैं नाश.
काट नहीं उनकी कहीं, डरे काल का पाश..
शब्द-साधना पथिक हम, रहें हमेशा शांत.
निबल न हमको समझ ले, कोई होकर भ्रांत..
सृजन साध्य जिसको 'सलिल', नाश न उसकी चाह.
विवश करे यदि समय तो, सहज चले उस राह..
चन्द्र-चन्द्रिका का नहीं, कुछ कर सका कलंक.
शरत-निशा कहती यही, सत्य सदा अकलंक..
वर्षा-जल की मलिनता, से न नर्मदा भीत.
अमल-विमल-निर्मल बाहें, नमन करे जग मीत..
यह साँसों की धार है, आसों का सिंगार.
कीर्ति-कथा ही अंत में, शेष रहे अविकार..
जितने कंटक-कष्ट में, खिलता जीवन-फूल.
गौरव हो उतना अधिक, कोई न सकता भूल..
हम भी झेलें विपद को, धरे अधर-मुस्कान.
तिमिर-निशा को दिवाली, करते चतुर सुजान..
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23 अक्तू॰ 2010

शरद पूर्णिमा की उजली रात और तनाव

[moon.jpg]      अपना दु:ख और दर्द किससे  कहें  किससे न कहें ? बस इतना जानिये जीवन भर हर एक समस्या से दो-दो हाथ करते हुए   जीवन  में रंग भरने का जुनून है और कुछ ख़ास बात नहीं है ज़िंदगी में फिर भी हर असफलता निराशा के बाद सुन्दर कल की आस लिए आँखों  में जीते और जीते हैं  .. कह देते हैं  - हाँ यही तो है ज़िंदगी.! जो बहुरंगी भी बेरंगी बस थोड़ा धीरज एक सच्चा मित्र और जीवन साथी बस  आज शाम चांद सम्पूर्ण कलाओं के साथ चमका रहा है कायनात के एक एक हिस्से को .हर कोई चांद को निहारता उसमें बसे  शीतल-सौन्दर्य का गीत गाता नज़र आ रहा है.   कोई अपना दर्द चाह के भी अपने संग साथ कैसे रख सकता है एक शशि किरण ही निराशा को बिदा कर देती है.
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                   निरंतर तनाव देती ज़िन्दगी में सदा हर कदम सम्हल के चलना कितना ज़रूरी है.  सभी वाक़िफ़ हैं इस बात से फ़िर ग्रहों की प्रतिकूलता के चलते आप  दुर्भाग्यवश कोई किसी संकट में आप आ गये तो  कम लोग ही आप किसी विक्टिम को आज़ कल कोई विश्वासी नज़र से नहीं देखता. हम इसी दर्द को लेकर कभी कभी हताश हो जाते हैं . गम्भीर अवसाद में चले जाते हैं कमोबेश आज मुझे भी कुछ तनाव है जो गहरे अवसाद की सीमा तक ले आया मुझे . फ़िर अचानक जब शरद-पूर्णिमा के चांद से मुलाक़ात हुई .और बस कुछ  राहत मिली . 

21 अक्तू॰ 2010

बिटिया शिवानी रखेगी अपने विचार वाद-विवाद प्रतियोगिता में

 आज़ शिवानी ने कड़ी मेहनत करके राष्ट्र मण्डल खेलों के पक्ष में सदन की राय खारिज कराने का मन बना ही लिया मुझे जाना है पोष्ट शिड्यूल्ड कर प्रस्थान कर रहा हूं. शिवानी के अनुरोध पर उसका आलेख 23 अक्टूबर 2010 के पहले आपकी राय के लिये पेश है....

माननीय अध्यक्ष महोदय सदन की राय है कि :-“ भारत जैसे विकास शील देशों के लिये राष्ट्र-मण्डल खेल जैसे भारी खेलो का आयोजन करना उचित नहीं…!”
                                    मान्यवर मैं आधार हीन और बेबुनियाद सी सदन की राय को सिरे से ख़ारिज़ करने और खेल महोत्सव की सफ़लता की मुबारक़ बाद देने आज़ आज आप सबके सामने आईं हूं. विषय के पक्षधर साथियों का सोचना सतही है. जबकि मैं “विकासशील भारत के लिये  आर्थिक गतिविधियों को गति देने वाले इस खेल महाकुम्भ का पुरजोर समर्थन अर्थशास्त्र की छात्रा होने के कारण  भी करती हूं.
* मान्यवर, जहां तक भारत की विकास शीलतता की स्थिति का सवाल है है कोई बुरी स्थिति नहीं है इस देश की. आप हालिया दिनों में विश्व की महामंदी पर गौर कीजिये विश्व के बड़े-बड़े विकसित देशों का अर्थतंत्र छिन्नभिन्न हो रहा था और भारत , जी हां इसी  भारत देश ने (जिसे सदन कमज़ोर समझ रहा है ) आर्थिक सुदृढ़्ता दिखाई वो भी अपने आम भारतीयों के बलबूते पर जो कर्म प्रधानता को श्रेष्ट मानतें हैं. जब विश्व का सर्वोच्च सुदृढ़ राष्ट्र अमेरिका रोज़गार के संकंट से निपटने की जुगत लगा रहा था तब भारत में सरकारी-गैर सरकारी संस्थान नौकरीयां दे रहे थे साथ ही साथ वेतन में इज़ाफ़ा हो रहा था. प्रति-व्यक्ति आय, सकल घरेलू उत्पादन, राष्ट्रीय आय के आंकड़ों पर गौर फ़रमाएं पक्षी गण लोकसभा में पेश आर्थिक सर्वे के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी-वर्ष 2008-09 में प्रति व्यक्ति आय 17,334 रुपये थी जबकि वर्ष 2007-08 में यह 17,097 रुपये थी। देश की अर्थव्यवस्था पर प्रारंभिक चरण में वैश्विक वित्तीय संकट का असर नहीं।वर्ष 2008-09 के दौरान विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का प्रवाह बढ़ा। मार्च 2009 के अंत तक विदेशी मुद्रा भंडार में 252 अरब अमेरिकी डॉलर की राशि थी। 16 अक्टूबर 2010 की स्थिति में देश का विदेशी मुद्रा  भंडार भंडार 295.79 अरब अमेरीकी डॉलर हो गया। यानी सरकार की कामयाब कोशिशें सफ़ल रहीं. ये विदेशी मुद्रा अगर हमारे खजाने में आतीं हैं तो उससे हमारा अर्थतंत्र मज़बूत होता है , जबकि रिज़र्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट अनुसार  भारतीय स्वर्ण भण्डार  लगभग 400 टन . और हमारे विद्वान मित्र विकास के इस वेग को देखे बगैर यह कहना कि  हम अक्षम हैं  एक खेल महोत्सव आयोजित नही कर सकते कोरी नासमझी भरीं बातें नहीं तो और क्या है ?
* आज़ अधिकांश भारतीय  युवा अमेरीका जाकर कैरियर बनाना चाहते है जाते भी है. श्रेष्ट भारत का अप्रवासी युवा नाम और धन दौनों विदेश जाकर कमाता है. यदि हमारे खिलाड़ी अपनी माटी में यश और मान अर्जित करतें हैं तो बुराई क्या है..?इससे देश के आर्थिक  विकास को दिशा मिल रही है. जाने आप किस गलत फ़हमी का शिकार हैं कि धन का दुरुपयोग हुआ या ऐसे आयोजनों से धन का दुरुपयोग होता है मैं आयोजन के पूर्व की अव्यवस्थाओं पर इस लिये कुछ नहीं कहना चाहती क्योंकि  उसे सुधार लिया गया. वैसे सारे मामले में जैसा  प्रस्तुत किया गया  वो पीत-पत्रकारिता और राजनैतिक स्वार्थ का एक हिस्सा था. आप सबसे मेरा एक विनम्र निवेदन भी है कि  :-उन कैंकड़ों की तरह चिंतन मत कीजिये जो एक बिना ढक्कन के बाक्स में रह कर एक दूसरे की टांग खींचते हुए  विश्व भ्रमण कर आतें हैं किंतु सम्पूर्ण यात्रा में  बाक्स से बाहर उन स्थानों की वास्तविकता नहीं देख पाते क्योंकि बाहर निकल ही नहीं पाते टांग खिचाई के चलते.
आप सोच रहे होंगे कि विकास के अन्य क्षेत्रों में धन का विनियोग (Investment) पर मेरी नज़र नहीं है सो बता दूं कि भारतीय अर्थ व्यवस्था जिसके कारण राज्य सरकारें जनोपयोगी सेवाऒं के देने की गारंटी दे रहीं हैं. इसका उदाहरण ताज़ा मध्य-प्रदेश सरकार  है जो  इस बात की गारंटी ले ही रही है. कृषि क्षेत्र, चिकित्सा,संचार,जिस क्षेत्र में नज़र डालिये विकास दिख रहा है. बस एक कमी अवश्य है कि हमारा नकारात्मक चिंतन हमें पंगु बना रहा है उसे बदलने की सख़्त ज़रूरत है. 
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आशा है शिवानी को आशीर्वाद ज़रूर
देंगे
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17 अक्तू॰ 2010

बनाओगे दल तो "दलदल" निर्मित होना अवश्यम्भावी है.

मेरी आवाज कौन सुनता है वही न जो मेरे गुट का हो . यानी कि हम व्यापक हो ही नहीं सकते हम सुन तो सकते ही नहीं. हम एल दल बना लेते हैं फ़िर दूसरा भी यही करता है तीसरा भी ....अनंत लोग जब बनातें हैं दल तो "दलदल" निर्मित होना अवश्यम्भावी है. यही तो है पशुवृत्तिवत जीवनप्रणाली. कोई माने न माने लेखकों,विचारकों,चिंतकों, में गुटीय संघर्ष सड़कों पर नहीं आता किंतु ऐसी स्थिति निर्मित कर देता है कि युद्धों का होना लगभग तय हो जाता है. साहित्य,सृजन,चिंतन में इसे स्थान मत दीजिये. हमारी कमज़ोरी ये है कि हम कानों से देखने लगे हैं. अक्सर विवाद यहीं से प्रसूतते हैं. वर्धा मीट को लेकर कोई भी अप्रसन्न नहीं है होगा भी क्यों हिंदी ब्लागिंग को लेकर इतना अच्छा काम. अकादमिक-स्तर पर हुआ सभी को संतोष है. किंतु जिसने भी सवाल उठाए वो व्यवस्था को लेकर ही थे. सभी वहां जाते यह सम्भव नहीं. किंतु आमंत्रण के सम्बन्ध में कुछ मतभेद ज़रूर दिखे. जैसे मुझे सूत्रों से मालूम हुआ कि मुझे बुलाना सम्भव है बुलाया नहीं गया तो सोचा हो सकता है कि सूत्र को भ्रम होगा कि मुझे बुलाएंगे. या उनने नाम प्रपोज़ किया होगा. जाता तो भी क्या करता मेरे लेखन को कार्यशालाएं/मीटिंग्स नहीं बल्कि मेरा विज़न परिमार्जित कर सकता न कि कोई अनुबन्धन. रहा ब्लागिंग को बढ़ावा देने का मामला सो मौन साधकों से काफ़ी कुछ सीखने को मिल रहा है. ब्लागर दर्शन बावेजा के ब्लाग पर नियमित जाता हूं. लिमिट खरे से ताज़ा समाचार मिलते हैं संगीता पुरी जी वत्स जी से ज्योतिष की भूख शांत होती है, अर्चना गीत सुना देतीं हैं, महेंद्र मिश्र जी भी मुदिता का तरीका सुझाते है, युनुस गीत-संगीत की बात करते हैं, ललित भाई हंगामा किये रहते है मज़ेदार पोस्ट के ज़रिये, पाबला जी अखबार तलाशते रहते है या जन्म दिन मनवाने में जुटे हैं कुल मिला के वार्ताएं, चर्चाएं, आलेख, रामायण,क़ुरान,गीता, सेकुलर,नान-सेकुलर, वेद पुराण , धर्म दर्शन, स्वास्थ्य, आहार,व्यव्हार,परिवार,इन सब पर लिखने वालों की कमीं नहीं है. निरपेक्ष भाव से मुझको ब्लाग देखना अच्छा लगता है. आवश्यक है कि हिंदी/अन्य भारतीय भाषाओं में जितना हो सके अच्छी सामग्री डाल दीजिये फ़िज़ूल बक़वास नेतागिरी, गाल-बज़ाउ खेमे निर्मित न किये जावें. ब्लागिंग पर किसी वर्ग विशेष की का हक़ नहीं. मैं राम जी के  इस विचार से सहमत हूं:-" हम हिन्दुस्तानी लोग बहुत भावुक होते हैं और इस लिए हर चीज में संगठन और समूह पहले बनाने लगते हैं ! ब्लोग्गिंग में भी यही कुछ कभी कभी होता रहता है, लिखने से ज्यादा लोग अपने आप को एक ग्रुप विशेष का मुखिया बनाने की मुहिम में जुड जाते हैं ! और कुछ लोग अपने आप को ब्लॉग्गिंग का प्रतिनिधि और शुभचिंतक समझ हर इन समारोहों में शिकरत की उम्मीद पाल बैठते हैं और फिर परेशान भी होते हैं जब अपेक्षाएं खरी नहीं उतरती !!ब्लागिंग स्वतंत्र है जिसे किसी भी दायरे में बांधना मेरे हिसाब से ठीक नहीं है। हम तो ब्लागर मित्रों से मिलते ही रहते हैं। आभासी दुनिया से बाहर निकल कर आमने-सामने मिलना अपुर्व आनंद देता है। हम तो सिर्फ़ इसी बात के हिमायती हैं कि मिलते जुलते रहो,आनंद लेते रहो। लड़ने-झगड़ने के अड़ोसी पड़ोसी ही काफ़ी हैं। "
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चलिये विवाद के इस रावण का अन्त कर दें हम सब मिल कर
तुमको नहीं लगता कि आज जी का दिन है यदि लगता है तो
चलो उठो किसी का दिल जीत लो भूखे का नंगे का बीमार का
घायल का दु:खी का यानि उन सबका जिनका मन हताश है जो 
जो अवसादों में जी रहे हैं.
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विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
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हिजड़ों पर हंसना, लंगड़े को लंगड़ा कहना औरत को सामग्री करार देना सांस्कृतिक अपराध ही तो है


https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiQMeXPbV9CosMv5AdHDCKhpgYmiGq48cIykwjxAbHpSp-6opQmHVJ1PG-WhvOrZd91TQxvhoL7214s4bc9p4xvzRlRECUzCsAr8HfpWfxnLvtuHor3jHBfuuRMhJYSek3c5jhcDr7CBVV1/s1600/1175483985.jpghttp://hindi.cri.cn/mmsource/images/2006/04/07/lunyi4.jpghttp://www.bbc.co.uk/hindi/images/pics/eunuch150.jpg                जो दु:खी है उसे पीड़ा देना सांस्कृतिक अपराध नहीं तो और क्या है. नारी के बारे में आम आदमी की सोच बदलने की कोशिशों  हर स्थिति में हताश करना ही होगा. क़ानून, सरकार, व्यवस्था इस समस्या से निज़ात दिलाए यह अपेक्षा हमारी सामाजिक एवम सांस्कृतिक विपन्नता के अलावा कुछ नहीं. आराधना चतुर्वेदी "मुक्ति" ने अपने आलेख में इस समस्या को कई कोणों से समझने और समझाने की सफ़ल कोशिश की है. मुक्ति अपने आलेख में बतातीं हैं कि हर स्तर पर नारी के प्रति रवैया असहज है. आर्थिक और भौगोलिक दृष्टि से भी देखा जाए तो नारी की स्थिति में कोई खास सहज और सामान्य बात नज़र नहीं आती. मैं सहमत हूं कि सिर्फ़ नारी की देह पर आकर टिक जाती है बहसें जबकी नारी वादियों को नारी की सम्पूर्ण स्थिति का चिंतन करना ज़रूरी है. परन्तु सामाजिक कमज़ोरी ये है कि हिजड़ों पर हंसना, लंगड़े को लंगड़ा कहना औरत को सामग्री करार दिया जाना हमारी चेतना में बस गया है  जो सबसे बड़ा सामाजिक एवम सांस्कृतिक अपराध  है .मुझे मालूम है कि आप सभी जानते हैं कि  अपाहिजों,हिज़ड़ों को हर बार अपने को साबित करना होता है. अगर इस वर्ग को देखा जाता है तो तुरंत मन में संदेह का भाव जन्म ले लेता है कि "अरे..! इससे ये काम कैसे सम्भव होगा.....?" सारे विश्व में औरत की दशा कमो बेश यही तो है. सब अष्टावक्र रूज़वेल्ट को नहीं जानते, सबने मैत्रेयी गार्गी को समझने की कोशिश कहां की. यानी कुल मिला कर सामाजिक सांस्कृतिक अज्ञानता और इससे विकास को कैसे दिशा मिलेगी चिंतन का विषय है.
(चित्र साभार : लखनऊ ब्लागर एसोसिएशन ,CRI एवम BBC  से )

12 अक्तू॰ 2010

गीत: जीवन तो... संजीव 'सलिल'

गीत:

जीवन तो...

संजीव 'सलिल'
*
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*
हाथ न अपने रख खाली तू,
कर मधुवन की रखवाली तू.
कभी कलम ले, कभी तूलिका-
रच दे रचना नव आली तू.

आशीषित कर कहें गुणी जन
वाह... वाह... यह तो दिग्गज है.
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*
मत औरों के दोष दिखा रे.
नाहक ही मत सबक सिखा रे.
वही कर रहा और करेगा-
जो विधना ने जहाँ लिखा रे.

वही प्रेरणा-शक्ति सनातन
बाधा-गिरि को करती रज है.
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*
तुझे श्रेय दे कार्य कराता.
फिर भी तुझे न क्यों वह भाता?
मुँह में राम, बगल में छूरी-
कैसा पाला उससे नाता?

श्रम-सीकर से जो अभिषेकित
उसके हाथ सफलता-ध्वज है.
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*

10 अक्तू॰ 2010

आदि शक्ति वंदना -------- संजीव वर्मा 'सलिल'

आदि शक्ति वंदना

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..

परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..

जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..

दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.

प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..

मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.

ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....

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