25 अप्रैल 2011

आर्यव के लिए संजीव 'सलिल'

आर्यव के लिए

संजीव 'सलिल'
*
है फूलों सा कोमल बच्चा, आर्यव इसका नाम.
माँ की आँखों का तारा है, यह नन्हा गुलफाम..

स्वागत करो सभी जन मिलकर नाचो झूमो गाओ
इस धरती पर लेकर आया खुशियों का पैगाम.

उड़नतश्तरी के कंधे पर बैठ करेगा सैर.
इसकी सेवा से ज्यादा कुछ नहीं जरूरी काम..

जिसने इसकी बात न मानी उस पर कर दे सुस्सू.
जिससे खुश उसके संग घूमे गुपचुप उँगली थाम..

'सलिल' विश्व मानव यह सच्चा, बच्चा प्रतिभा पुंज.
बब्बा सिर्फ समीर उठे यह बन तूफ़ान ललाम..

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24 अप्रैल 2011

डा० उमाशंकर नगायच कृत ग्रंथ : महर्षि दयानंद का समाज दर्शन





कृति समीक्षा - महर्षि दयानंद का समाज दर्शन
 प्रस्तुति :-गिरीश बिल्लोरे मुकुल 

1.आज बाजारीकरण के प्रभावों से आक्रान्त जनमानस भौतिक विज्ञानों की दिशा में ही चिन्तन के लिए समय दे पा रहा है। सृष्टि के मूल सिद्धान्तों और युगों के अन्तराल के बाद स्थापित मानव संस्कृति, सभ्यता एवं समाज व्यवस्था के सम्बन्ध में चिन्तन घटता दृष्टि गोचर हो रहा है। समाज में संतुलित विकास के लिए दोनो ही दिशाओ में समान रूप से बढ़ना आवश्यक है। एक को छोडकर किसी दूसरे की ओर बढने से जीवन में पूर्णत्व की प्राप्ति नहीं होगी। आदरणीय डॉ. उमाशंकर नगायच द्वारा आई.टी. की चकाचौंध के इस युग में समाज में मूल्यों के घटते महत्व के कारण पनप रही अप्रतिमानता की समाप्ति के लिए भारतीय सभ्यता के मूलाधार ‘वेदों’ को जनसामान्य तक पहुँचाने वाले मनीषी महर्षि दयानन्द के समाज दर्शन की विवेचना अपने शोध ग्रन्थ में की है। उनका यह कार्य अनूठा, अद्भुत और अतुलनीय है।

2. शोधग्रंथ में वैदिक संस्कृति व धर्म के उद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती के बहुआयामी व्यक्तित्व, उदार कृतित्व, जीवन के प्रति उनके व्यापक और सर्वग्राही दृष्टिकोण का रोचक ढंग से वर्णन किया गया है। विद्वान् लेखक ने अपनी शोध-प्रवण दृष्टि से वर्णव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था, पुरुषार्थचतुष्टय, शिक्षा व्यवस्था, विवाह-सिद्धान्त, अर्थव्यवस्था एवं राजव्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों पर महर्षि दयानन्द की मूलगामी वैदिक दृष्टि और उसके दार्शनिक आधार का सांगोपांग विवेचन किया है। जो प्रत्येक व्यक्ति को सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने, सुव्यवस्थित सामाजिक संरचना और संास्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिये उपयोगी और व्यवहारिक है।
3. ‘महर्षि दयानंद का समाज दर्शन डा. उमाशंकर नगायच की शोधदृष्टि का वैचारिक फल है। इस फल का भोक्ता समाज होता है और समाज की सेहत के लिये ऐसे फल सेवनीय होने से पथ्य हैं। वस्तुतः साहित्य लेखन की सार्थकता इसी में है कि वह व्यवहारिक जीवन में उपयोगी हो। इस दृष्टि से लेखक का प्रयास सफल व सराहनीय है। समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों और समस्याओं, यथा- बाल विवाह, दहेजप्रथा, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, जनसंख्या वृद्धि आदि के समाधानकारी सिद्धान्तों का ग्रंथ में किया गया विस्तृत विवेचन वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है। पुस्तक की भूमिका में डा.सोमपाल शास्त्री ने इसीलिये इस कृति को ‘जीवन-जगत के लिये अधिकतम व्यावहारिक, प्रासंगिक और उपयोगी’ कहा है। प्रस्तुत कृति महर्षि दयानंद के
आर्ष चिन्तन को लोकोपयोगी भाषा शैली में लोक के समक्ष लाने का प्रषंसनीय प्रयास है। महर्षि दयानन्द का तपःपूत चिन्तन किसी कालखण्ड या भूखण्ड विषेष की सीमाओं में आबद्ध नहीं है। उसकी परिधि मानवता के हर छोर को छूती है और समूची मानव जाति को ‘सर्वे वै सुखिनः सन्तु’ का शाष्वत संदेष पहुंचाती हुई परिलक्षित होती है। पुस्तक की विषयवस्तु के विवेचन में यह तथ्य सर्वत्र झलकता और छलकता हुआ दिखाई देता है।
4. संन्यासियों के बारे में जन सामान्य की धारणा है कि वे दीन-दुनिया से कोई नाता-रिश्ता नहीं रखते। जिसने संन्यास लेते समय पुत्र, वित्त और लोक (संसार) से नाता तोड लिया, उससे हम यह अपेक्षा कैसे करें कि वह लोकहित तथा समाज की व्यापक भलाई के लिये कुछ सोचेगा या करेगा। उन्होने तो स्वेच्छा से प्रवृत्ति मार्ग को त्यागकर निवृत्ति मार्ग को अपनाया है, प्रेय को छोड श्रेय पथ पर चलने का निश्चय किया है। अतः वे समाज के समक्ष खडी समस्याओं का निदान करने में रुचि क्यों लेंगे? मध्यकाल के सभी साधु-संन्यासी, सन्त-महन्त, पंडे, पुजारी मात्र परलोक चिन्ता मे लगे रहे और सांसारिक दायित्वों से पूर्णतया विमुख रहे। किसी ने संसार के प्रति अपना कोई दायित्व नहीं समझा और लोगों को दीन-दुनिया से नाता तोडकर परमात्मा से लगन लगाने की बात करते रहे। इस परम्परा के विपरीत नवजागरण काल में दयानन्द तथा विवेकानंद सदृश संन्यासियों ने भी जनमानस में चेतना जगाई। संन्यासियों में दयानंद ही थे, जिन्होने अध्यात्म, दर्शन और धर्म चिन्तन के साथ-साथ इहलोक (संसार व समाज) की समस्याओं के निदान की चिन्ता की तथा भारतवासियों को आर्थिक,सामाजिक तथा राजनैतिक शक्ति उपार्जित करने का संदेश दिया।
5. सामाजिक सरोकारों की चर्चा करें, तो उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों में
दयानंद सरस्वती का नाम अग्रणी है। सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के अग्रदूत थे,महर्षि दयानंद सरस्वती। विभिन्न शोध विद्वानों ने स्वामी दयानंद के समाजोन्मुखीव्यक्तित्व तथा कृतित्व की अल्प ही चर्चा की है। इस विस्तृत तथा गंभीर विषय के सभी कोणों को  स्पर्श करने  वाले हाल ही में प्रकाशित  डा. उमाशंकर नगायच (ई-117/6 शिवाजी नगर, भोपाल) के विद्वतापूर्ण शोध प्रबंध (महर्षि दयानंद का समाज दर्शन) में स्वामी दयानंद के चिन्तन और कृतित्व का विस्तृत, प्रमाण पुरस्सर विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ में स्वामी दयानंद के आविर्भाव की पृष्ठभूमि तथा तात्कालिक परिस्थितियों की सटीक समीक्षा की गई है। महर्षि के जीवन में आये विभिन्न पड़ावों का विवरण देने के साथ उनके विचार और कर्म क्षेत्र की तात्विक पड़ताल इस ग्रंथ की प्रमुख विषेषता है। ध्यान रहे कि सामाजिक विचारों का क्षेत्र गृह, परिवार, समाज तक ही सीमित नहीं है। लेखक की जागरूकता के कारण इसमें स्वामी दयानंद के आर्थिक तथा राष्ट्रीय (राजनैतिक तथा प्रशासन विषयक) विचारों की समुचित विवेचना हुई है। षिक्षा और सामाजिक उत्थान अन्योन्याश्रित हैं। समाज की चतुर्मुखी उन्नति में षिक्षा की भूमिका
को स्वामी दयानंद ने सम्यकतया समझा था, इसी कारण ऋषि दयानंद के शिक्षा विषयक विचारों का विस्तारपूर्वक विवेचन इस पुस्तक में किया गया है। निश्चय  ही दयानंद के बहुकोणीय व्यक्तित्व की विवेचना करने में लेखक को असाधारण सफलता मिली है। दयानंद के धार्मिक एवं दार्षनिक विचारों की पर्याप्त चर्चा अनुसंधाता विद्वानों द्वारा हुई है, किन्तु उनके समाज-दार्षनिक विचारों, समाज दृष्टा तथा समाज संशोधक व्यक्तित्व को जानने के लिये यह ग्रंथ पाठकों के अध्ययन क्रम में अनिवार्यतः आना चाहिये।
6. पुस्तक की विषय वस्तु पुरःस्थापना से उपसंहार तक ग्यारह अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में ग्रंथ के उद्देष्य और प्रतिपाद्य का औपचारिक निदर्शन है। ग्रंथ का द्वितीय अध्याय महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समर्पित है। इसमें महर्षि की लोक से परलोक तक की यात्रा का सजीव वर्णन विद्धान् लेखक ने कुछ इस तरह किया है, जैसे कि वह महर्षि के सहयात्री रहें हो। शेष अध्यायों में समाज व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था के संबंध में उनके दार्षनिक विचारों को व्याख्यायित किया गया है।
7. वैदिक दर्शन में कालान्तर में आये विक्षेपण को दूर करते हुये लेखक ने वैज्ञानिक दृष्टि से वैदिक समाज व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्तों का सूक्ष्म विवेचन कर महर्षि के ‘वेदों की ओर लौटो‘ के संदे्श को औचित्यपूर्ण सिद्ध किया है। वेदों में समाहित समाज वैज्ञानिक सिद्धान्तों का महर्षि दयानंद ने जो अन्वेषण किया, उस अन्वेषण को क्रमबद्धता  की लय में पिरोने का दुष्कर कार्य लेखक ने बडी सहजता से किया है। तदनुसार ग्रंथ जीवन उपयोगी एवं मानव के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक जीवन दर्शन को प्रस्तुत करता है। समग्र समाज को पोषित, संबर्द्धित करने के लिये ऋषियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से सामाजिक संरचना वर्णव्यवस्था का जो तानाबाना बुना, उसको इस ग्रंथ ने औचित्यपूर्ण एवं नवीन विश्व सामज व्यवस्था के संदर्भ में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता, आवश्यकता एवं महत्व को प्रतिपादित किया है। पुस्तक के चार सौ चौदह पृष्ठीय कलेवर में लगभग नब्बे प्रतिषत अंष महर्षि दयानन्द के दर्षन को समर्पित है। इससे स्पष्ट है कि लेखक की मंषा महर्षि के कृतित्व के दार्षनिक पक्ष को उजागर कर उसे सुबोध शैली में समाज तक पहुंचाने की है। यह उपक्रम पुस्तक के शीर्षक में समाविष्ट बोध को भी सार्थक करता है।
8. ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’ पुस्तक सामाजिक सरोकारों का दुरुस्त दस्तावेज है। समाज की प्रगति पर मानव जीवन की समृद्धि निर्भर है, इस तथ्य की पुष्टि ‘‘महर्षि दयानंद के समाज दर्शन’’ में है। इसकी विषय वस्तु में महर्षि दयानन्द की दार्शनिक विचारधारा के सामाजिक पक्ष की प्रस्तुति के लिये वैदिक समाज व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दृष्टि से विवेचना की गई है। समाज व्यवस्था के अंतर्गत वर्ण विभाजन के औचित्य और वर्णव्यवस्था की वर्तमान में उपादेयता और प्रासंगिकता पर बेबाकी से विचार व्यक्त किये गये हैं। इसके अतिरिक्त जीवन के संतुलित विकास के लिये अत्यावश्यक वैदिक आश्रम व्यवस्था एवं पुरुषार्थचतुष्टय- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की बहुत सटीक व्याख्या की गई है। वैदिक संस्कृति की पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा को लेखक ने अपने वैशिष्ट्य में रेखांकित किया है, जिसमें अलौकिक जीवन के लिये लौकिक जीवन की उपेक्षा नहीं की गई है। मनुष्य के व्यक्तित्व में आत्मा के साथ शरीर को समान रुप से महत्तवपूर्ण माना है।
9. पुस्तक में वैदिक षिक्षा व्यवस्था का विस्तार से प्रतिपादन है। महर्षि दयानंद के विचार अनुसार मानव जीवन के सम्यक् विकास के लिये एवं जीवन साध्यों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये उत्तम शिक्षा सर्वोपरि साधन है। सबको शिक्षा के समान अधिकार एवं अनिवार्य शिक्षा की अवधारणा महर्षि के विचारों का वेैशिष्ट्य है। महर्षि दयानन्द ने संपन्न तथा विपन्न सभी की संतानों को शिक्षा पाने हेतु समान सुविधाएं राज्य व समाज द्वारा उपलब्ध कराने का सिद्धांत प्रस्तुत कर दीन.हीन, वंचित, शोषित और पीड़ित मनुष्यों के उत्थान के लिये स्तुत्य प्रयत्न किया है, जो विश्व मानवता को उनकी अविस्मरणीय देन है।
10. पुस्तक में विवाह सिद्धान्त की लोकोपयोगिता को वैज्ञानिक दृष्टिकोंण के साथ व्याख्यायित किया गया है। सफल वैवाहिक जीवन के आधारसूत्र के रूप में स्वयंवर विवाह विषयक महर्षि के दृष्टिकोण का वृहद् विश्लेषण कृ्रति में किया गया है। दाम्पत्य प्रीति को गृहस्थ आश्रम की सफलता तथा समग्र परिवार के सुनिश्चित कल्याण का साधन माना है। महर्षि के अनुसार संसार का उपकार करना समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक,उन्नति करना। आर्यसमाज के इस छठवे नियम में समाहित अपेक्षाओं का पल्लवन लेखक ने पुस्तक में आद्यन्त किया है।
11. अर्थ समाज के शरीर का रक्त है। जिस प्रकार से मानव शरीर के स्वास्थ्य के लिये रक्त शुद्धि आवश्यक है। उसी प्रकार समाज के स्वास्थ्य के लिये अर्थ सिद्धि की आवश्यकता है। कृति में धर्मानुगामी अर्थोपार्जन की प्रवृति को समाज के लिये हितकर निरूपित किया गया है। अर्थव्यवस्था में धर्म और अर्थ के अन्तःसम्बन्ध संबंधी महर्षि के विचारों की बहुत सटीक व्याख्या की गई है। महर्षि की मान्यता है कि ‘अर्थ वह है जो धर्म ही से प्राप्त किया जाये और जो अधर्म से सिद्ध होता है वह अनर्थ है।’ इस संदेश में वर्तमान भ्रष्टाचार पीडित समाज के साध्यपरक अर्थोन्मुखीकरण के फलस्वरूप उपजे अपघाती परिणामों से उबरने के लिये कारगर उपचार का संकेत है।
12. पुस्तक के दसम् अध्याय में महर्षि दयानन्द के राजनैतिक दर्शन की विवेचना की गई है। इसमें राजधर्म, राज्य की प्रकृति, राज्य के मूल अंगों और कार्यों का उल्लेख तथा न्याय एवं प्रशासन व्यवस्था का निदर्शन, अथर्ववेद और मनुस्मृति के उद्धरणों से समर्थित है। महर्षि ने राज्य में सम्यक् दण्ड की व्यवस्था को आवश्यक निरूपित किया है। वस्तुतः यह विवेचन वर्तमान राजनैतिक तंत्र की कमियों को सुधार कर तंत्र को नियंत्रित करने के लिये मार्गदर्षक की भूमिका का निर्वाह कर सकता है। इस अध्याय का उल्लेखनीय वैषिष्ट्य महर्षि के राष्ट्रवाद संबंधी विचारों की उपयुक्त प्रस्तुति है। लेखक के विचार से अंग्रेजों की दासता से जकड़े हुये देष में राष्ट्रीय स्वाभिमान तथा स्वराज की भावनाओं से युक्त राष्ट्रवादी विचारों की शुरूआत करने तथा अपने कृत्यों एवं उपदेषों से निरन्तर राष्ट्रवाद को पोषित करने वाले महर्षि दयानन्द को ही आधुनिक युग में भारतीय राष्ट्रवाद का जनक कहना उपयुक्त होगा।
13. अंतिम अध्याय उपसंहार के रूप में अपने अग्रज अध्यायों का सारतत्व समेटे हुये है। इस अध्याय के अंतिम वाक्य-’महर्षि दयानन्द एक जीवनदृष्टा थे और उनके विचारों में सर्वांग जीवन ब दर्शन विद्यमान है’, में यह स्पष्ट रूप से व्यक्त है। महर्षि का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्श भारतीय समाज सुधारक का समाजोपयोगी संस्करण है।
14. ग्रंथ की शैली उत्कृष्ट, विवेचनापरक एवं भाषा सरस, सरल, बोधगम्य, सप्राण, सारगर्भित और धाराप्रवाह है। लेखक ने ग्राहय शैली के साथ जिज्ञासु पाठकों के लिये एक अद्भुत ग्रन्थ रचा है। महर्षि के विचारों को माध्यम बनाकर लेखक ने विहंगम दृष्टि से ग्रन्थ लिखा है, पुस्तक में लेखक ने सरल-सरस और सुस्पष्ट रीति से वैदिक संस्कृति, दर्शन और धर्म की गहन गंभीर अवधारणाओं को बोधगम्य बनाया है। जिससे पाठक की समस्त शंकायें एवं जिज्ञासायें ग्रन्थ पढते-पढते स्वतः समाधान को प्राप्त हो जाती हैं। ग्रन्थ के अध्ययन उपरांत भारतीय संस्कृति में स्वतः आये अथवा सप्रयास लाये गये विक्षेपण स्वतः तिरोहित हो जाते हैं और ग्रन्थ की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती हैं। महर्षि के विचार, दृष्टिकोण, कृतित्व के अन्वेषण का गुरुतर कार्य विद्वान लेखक द्वारा किया जाकर ग्रंथ में वेदों के ज्ञान को गागर में सागर जैसा भरा है। हर दृष्टि से ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’ कृति पठनीय और संग्रहणीय है।  डा नगायच की वर्षों से  की साधना से किये गए सृजन हेतु डॉ. उमाशंकर नगायचबधाई के पात्र हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि भविष्य में भी वे समाज कल्याण की दिशा/क्षेत्र में लेखन कार्य हेतु ऊर्जावान रहें।
कृति: ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’
117/6, शिवाजी नगर, भोपाल
मोबा. 09407518452
पृष्ठ संख्या: 414, मूल्य - 300 रु.
प्रकाषक:
आर्श गुरुकुल महाविद्यालय,नर्मदापुरम्,होशगाबाद म.प्र

19 अप्रैल 2011

किसन बाबूराव हजारे बनाम जन लोकपाल बिल और भारत की बेचारी जनता

अन्ना हजारे  यानी किसन बाबूराव हजारे एक नाम एक आयकान जो दिलो दिमाग पे हावी है. सिर इस लिये कि उसने सदा भ्रष्टाचार  से निर्णायक जग लड़ी. जीता भी . पर  लोगों से जब हमने पूछा कि अन्ना क्यों उपवास कर रहें हैं ? बगलें झांकते नज़र आए. एकाध ने बताया कि अन्ना जन लोकपाल बिल पास कराने के चक्कर में उपासे है..! अन्ना की यह जंग क्यों थी ये तो तब और गै़रज़रूरी सवाल हो गया जब कि अन्ना जीत गये अन्ना जीत गये की खबर धड़ाधड आने लगी. अन्ना आपको याद ही होगा कि अन्ना ने उपवास के आरम्भ में कहा था कि :-"
                                         "जब तक सरकार हमारे देश में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए जन लोकपाल बिल को प्रभाव में नहीं लाती तब तक वह आमरण अनशन पर रहेंगे। "
    इस बिल में नीचे लिखी बातों के अलावा  अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकार जन लोकपाल बिल तुरंत लाए , लोकपाल की सिफारिशें अनिवार्य तौर पर लागू हों और लोकपाल को जजों , सांसदों , विधायकों आदि पर भी मुकदमा चलाने का अधिकार हो
    अन्ना की यह मांग उस जनता की मांग है जिसे यह तक   ज्ञात नहीं है कि क्या और क्यों मांगा जा रहा है. भारत की अधिसंख्यक आबादी के इस विषय  पर कोई खास जानकारी न थी जैसे कि अधिकांश जन "राष्ट्रगीत" और "राष्ट्रगान" का फ़र्क़ नही जानती.  
बहरहाल जो भी हो कम से कम सबको यह तथ्य से अब अवगत कराना आवश्यक है कि लोकपाल बिल क्या है सो ये देखिये 

  1. - इस बिल में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए केंद्र में लोकपाल और राज्य में लोकायुक्तों की नियुक्ति का प्रस्ताव है.
  2. - इनके कामकाज में सरकार और अफसरों का कोई दखल नहीं होगा.
  3. - भ्रष्टाचार की कोई शिकायत मिलने पर लोकपाल और लोकायुक्तों को साल भर में जांच पूरी करनी होगी.
  4. - अगले एक साल में आरोपियों के ख़िलाफ़ केस चलाकर क़ानूनी प्रक्रिया पूरी की जाएगी और दोषियों को सज़ा मिलेगी.
  5. - यही नहीं भ्रष्टाचार का दोषी पाए जाने वालों से नुकसान की भरपाई भी कराई जाएगी.
  6. - अगर कोई भी अफसर वक्त पर काम नहीं करता जैसे राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बनाता तो उस पर जुर्माना लगाया जाएगा.
  7. - 11 सदस्यों की एक कमेटी लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति करेगी.
  8. - लोकपाल और लोकायुक्तों के खिलाफ आरोप लगने पर भी फौरन जांच होगी.
  9. - जन लोकपाल विधेयक में सीवीसी और सीबीआई के एंटी करप्शन डिपार्टमेंट को आपस में मिलाने का प्रस्ताव है.
  10. - साथ ही जन लोकपाल विधेयक में उन लोगों को सुरक्षा देने का प्रस्ताव है जो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे.
      मेरे इस आलेख का उद्देश्य था कि जिस बात के लिये लोग जोर जोर से भौंपू बज़ा रहे थे उसे सबसे पहले समझ लेना ज़रूरी है..

9 अप्रैल 2011

"कुमार विश्वास का सच..!! : मंचीय अपराध (दूसरी किश्त )

मार विश्वास ने  जबलपुर में जो हरक़त की वो ओछी थी इसमें कोई दो मत नहीं. पहली पोस्ट के के बाद जिस तरह सुधि जन सामने आए वो एक अलग अनुभव है. 
ब्लागजगत ने क्या कहा देखिये आप  स्वयं
पद्मसिंह:-एक पगली लड़की को लेकर युवा मन को दीवाना बनाने की बाजीगरी में सिद्ध हस्त हैं कुमार विश्वास जी....गन्दा है पर धंदा है ये
अनूप शुक्ल : कुमार विश्वास के बारे में सम्यक विश्लेषण के लिये यह पोस्ट देखिये:

http://amrendrablog.blogspot.com/2010/08/blog-post.html

डाक्टर अजित गुप्ता:-मैंने उनके कारनामें अमेरिका में देखे हैं। आज का समाज किस ओर जा रहा है यह उनकी लोकप्रियता से ज्ञात होता है।
डा० शरद सिंह :- कुमार विश्वास जी को हार्दिक बधाई।
नुक्‍कड़ :-कुमार भी विश्‍वास भी ?
Er. सत्यम शिवम आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (09.04.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
अमित के. सागर याद है कि आपने आयोजन के पारिश्रमिक को लेकर क्या कहा था उसका खुलासा कर ही दूंगा आयकर विभाग को भी तो पता चले प्रोफ़ेसर साहब ?"

उक्त सन्दर्भ में जानने को अतिउत्सुक हूँ. शेष जो कमेंट्स पढने को मिली हैं...फिर तो और भी...और भी कुछ इन के बारे में!
*-*
कवियों को भी ऐसा हो सच गर,
तो आना चाहिए बाहर हर कीमत पर
कहते हैं कि कवि तो दिल से रोटी बना खाता है
फिर कविता से भला कारोबार कैसे कर पाता है?
*-*

बवाल एक अजीबोग़रीब मंज़र कल रात देखने को मिलता है :-

एक यूथ आईकॉन नामक व्यक्ति बड़ी तन्मयता से ओल्डों की धज्जियाँ उड़ाता जा रहा है;
परम आदरणीय अन्ना हजारे जी को जबरन अपने झंडे तले ला रहा है;
अपने आपको इलाहाबादी अदब की प्रचारगाह बतला रहा है और बच्चन साहब को जड़ से भुलवा रहा है;
अपने एकदम सामने बैठे हुए स्थानीय बुज़ुर्ग नेताओं, मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष आदि पर तबियत से अपने हलाहली शब्दवाण चला रहा है;
विनोबा बाबा की प्रिय संस्कारधानी के मँच पर खड़ा या कह सकते हैं सिरचढ़ा होकर, कहता जा रहा है कि मैं उपहास नहीं, परिहास करता हूँ और उपहास ही करता जा रहा है;
जमूरों का स्व्यंभू उस्ताद बनकर अपने हर वाक्य पर ज़बरदस्ती तालियाँ पिटवा रहा है;
(इतनी तालियाँ अपनी ही एक-दूसरी हथेलियों पर पीटने से बेहतर था कि तालियाँ पिटवाने वाले के सर पर बजा दी जातीं, जिससे उसे लगातर ये सुनाई देतीं जातीं और उसे बार आग्रह करने की ज़हमत न उठाना पड़ती, समय भी बचता और ............. ख़ैर)
उसे जाकर कोई कह दे भाई के,
मैं मैं मैं मैं मैं मैं मैं, 
सिर्फ़ बकरी के प्यारे बच्चे के मुँह से ही कर्णप्रिय लगती है, आदमी के (दंभी) मुँह से नहीं।
शेष टिप्पणी अगले अगले आलेख की अगली किस्त में......
---जय हिंद

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) said...बढ़िया प्रस्तुति!कुमार विश्वास जी को हार्दिक बधाई।
भारतीय नागरिक ओह!
विजय तिवारी " किसलय " संस्कारों का सन्देश देने वाली संस्कारधानी जबलपुर में विगत ७ मार्च को एक कमउम्र और ओछी अक्ल के बड़बोले लड़के ने असाहित्यिक उत्पात से जबलपुर के प्रबुद्ध वर्ग और नारी शक्ति को पीड़ित कर स्वयं को शर्मसार करते हुए माँ सरस्वती की प्रदत्त प्रतिभा का भी दुरूपयोग किया है. टीनएज़र्स की तालियाँ बटोरने के चक्कर में वरिष्ठ नेताओं, साहित्यकारों, शिक्षकों एवं कलाप्रेमियों की खिल्लियाँ उड़ाना कविकर्म कदापि कहीं हो सकता... निश्चित रूप से ये किसी के माँ- बाप तो नहीं सिखाते फिर किसके दिए संस्कारों का विकृत स्वरूप कहा जाएगा. 

कई रसूखदारों को एक पल और बैठना गवारा नहीं हुआ और वे उठकर बिना कुछ कहे सिर्फ इस लिए चले गए कि मेहमान की गलतियों को भी एक बार माफ़ करना संस्कारधानी के संस्कार हैं. महिलायें द्विअर्थी बातों से सिर छुपाती रहीं. आयोजकों को इसका अंदाजा हो या न हो लेकिन श्रोताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग भविष्य में करारा जवाब जरूर देगा. स्वयं जिनसे शिक्षित हुए उन ही शिक्षकों को मनहूसियत का सिला देना हर आम आदमी बदतमीजी के अलावा कुछ और नहीं कहेगा . इस से तो अच्छा ये होता कि आमंत्रण पत्र पर केप्सन होता कि केवल बेवकूफों और तालियाँ बजाने वाले "विशेष वर्ग" हेतु. 

विश्वास को खोकर भला कोई सफल हुआ है? अपने ही श्रोताओं का मजाक उड़ाने वाले को कोई कब तक झेलेगा, काश कभी वो स्थिति न आये कि कोई मंच पर ही आकर नीतिगत फैसला कर दे. 
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अपने कार्यक्रम के दौरान कुमार विश्वास ने जो मंचीय अपराध किये वे ये रहे  
  1. मध्य-प्रदेश के माननीय विधान-सभा अध्यक्ष मान० ईश्वर दास जी रोहाणी के आगमन पर अपमान जनक टिप्पणी 
  2. श्री अलबेला खत्री जी का नाम आयोजकों पर दवाब डाल के कार्ड से हटवाया. और जब वे उड़ीसा के लम्बे सफ़र के बाद जबलपुर में कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे तो उनको "अभद्रता पूर्वक "अलबेला अलबेला का संबोधन करना.
  3. टीनएज़र्स की तालियाँ बटोरने के चक्कर में वरिष्ठ नेताओं, साहित्यकारों, शिक्षकों एवं कलाप्रेमियों की खिल्लियाँ उड़ाना कविकर्म कदापि कहीं हो सकता... निश्चित रूप से ये किसी के माँ- बाप तो नहीं सिखाते फिर किसके दिए संस्कारों का विकृत स्वरूप कहा जाएगा. 
  4. भारतीय प्रेम को पाश्चात्य सेक्स से तुलना करने वाला रटा हुया जुमला
  5. इटारसी म०प्र० के कवि राजेंद्र मालवीय की कविता को अपने साथ हुई घटना के रूप में व्यक्त करना
  6. वयोवृद्ध  श्रीयुत रोहाणी जी के समक्ष स्वल्पहार रखते समय अभद्रता पूर्वक कटाक्ष करना. 
  7. उनके प्रस्थान के समय अभद्रता पूर्वक इशारे  करना.
  8. कुछ दिनों पूर्व मुझसे एक अन्य कार्यक्रम के आयोजन के बारे मेरे द्वारा फ़ोन पर  संपर्क करने पर कहा जाना "बिल्लोरे जी,एक लाख लूंगा, किराया भाड़ा अलग से वो भी टेक्स मुक्त तरीके से  " (आयकर विभाग ध्यान दे तो कृपा होगी.)अब आप ही निर्णय कीजिये आज़ देश भर के लिये जूझने वाले संत अन्ना-हजारे के साथ "जंतर-मंतर पर खड़े होने वाले बच्चों को रिझाने बहकाने वाले नकारात्मक उर्जा का संचार कर देने वाले भाई कुमार विश्वाश दोहरा चरित्र देश को किधर ले जा रहा है. " 
सच को सुन कर युवा साथी भौंचक अवश्य होंगे. किंतु यही है कुमार साहब का सच. वैसे तो कई सच हैं जो लोग "कौन किस्सा बढ़ाए ! " वाली मानसिकता की वज़ह से 
वैसे हम साहित्य प्रेमियों की नज़र में यह व्यक्तित्व अतिशय कुंठित एवम "अपनी स्थापना के लिये कुछ भी करने वाला साबित हुआ है." जिसे यह शऊर भी नहीं कि "संवैधानिक पदधारियों से कैसा बर्ताव किया जाता है....? "
मेरी नज़र में "कुमार विश्वास" गांव में आये उस मदारी से बढ़कर नहीं जिसका हम भी बचपन में इंतज़ार करते थे . 
अंत में छोटे बच्चे की तरह समझाईश कुछ यूं :-

अगर तू गीत गाता है तो बस तू गीत गाता चल
टोटकों से निकल बाहर खुद को आज़माता चल
तेरी ताक़त तेरी शोहरत नही,तेरी वफ़ादारी-
सभी से मत बना रिश्ते बना तो फ़िर निभाता चल.





5 अप्रैल 2011

नव संवत्सर में... संजीव 'सलिल'

नव संवत्सर में...


संजीव 'सलिल'
*
मीत सत्य नारायण से पहचान करें नव संवत्सर में.
खिलें कमल से सलिल-धार में, आन करेंनव संवत्सर में..
काली तेरे घर में, लक्ष्मी मेरे घर में जन्मे क्योंकर?
सरस्वती जी विमल बुद्धि वरदान करें नव संवत्सर में..
*
शक्ति-पर्व पर आत्मशक्ति  खुद की पहचानें . 
नहीं किसी से कम हैं हम यह भी अनुमानें. 
मेहनत लगन परिश्रम की हम करें साधना- 
'सलिल' सकल जग की सेवा करना है- ठानें..
*
एक त्रिपदी : जनक छंद
*
हरी दूब सा मन हुआ
जब भी संकट ने छुआ
'सलिल' रहा मन अनछुआ..


और अंत में...
एक गेंद के पीछे भागें ग्यारह-ग्यारह लोग
एक अरब काम ताज देखें अजब भयानक रोग
रामजी देश बचाना
रोग यह शीघ्र छुड़ाना...


4 अप्रैल 2011

खेल को खेल रहनो दो भई



भारत की जीत की रात जगह जगह जोश में होश खो बैठे लोग सड़कों पर उतर आए . खुश तो हम भी थे आप भी होना भी चाहिये गौरव के पल थी पर ये क्या बकौल श्याम नारायण रंगा  "हम चाहते हैं कि वे लड़े और हमें मजा आए और अगर अगर हमारा सांड या मुर्गा हार गया तो हम उसको लानते मारते हैं और जलील करते हैं और जीत गया तो उसकी पूजा करते हैं और सम्मान देते हैं।" सच्चा सवाल उठाया  रंगा जी ने उस रात मैने भी सड़कों पर देखा आमतौर पर लोग खुशियां कम श्रीलंकाई टीम की पराजय और पाकिस्तान के प्रति ससंदीय संबोधन किये जा रहे थे... सड़कों पर शराब की बाटले बीयर की बाटलें तेज़ वाहन पर "जै श्री राम" के नारे लगाती युवा टोलियां. शराब के नशे में चूर अति उत्साही लोग ... जिनकी वक्र-रेखित चाल उफ़्फ़ क्या सम्मान-जनक जीत के लिये इतना अनुशासन ही माहौल. राम को सड़क उत्तेजना का साधन बनाते युवा राम का मान कर रहे थे या बस..!
    श्रीलंका से जीत जैसे रावण के राज्य को ध्वस्त कर दिया हो. पौराणिक कथाऒं के पात्र रावण का नाम ले ले के कुछ युवा चीख रहे थे "चारों तरफ़ मचा है शोर : हारे सीता मैया के चोर" या और भी कई नारे जो किसी पंथ धर्म संस्कृति का अपमान कर सकने में सहायक है गूंज रहे थे . ये क्यों क्या यही विजेता का व्यक्तित्व है. न ये कुण्ठा है, यह मनो-रोग है यह लिप्सा है . 
उधर पाकिस्तान  में भारत के प्रति नफ़रत क्रिकेट के ज़रिये फ़ैलाई जाती है. तो भारत में भी कतिपय लोग (सभी नही) पाकिस्तान की विजय को "उत्तेजक हर्ष में बदलते हैं " कोई किसी से कम नहीं. हर तरफ़  उन्मादी ही उन्मादी  नज़र आते हैं . गौर से देखिये इनमें देश भक्त शायद कोई एकाध मिलेगा, ज़रा एक बार इनसे पूछिये कितनी बार रक्त दान किया कितनी बार भूखों को भोजन दिया कितनी बार पेड़ लगाये, कितनी बार घूस लेने देने का विरोध किया, कितनी बार याता यात नियमों का पालन किया यदी यह न किया हो तो ऐसे लोग सच "देश द्रोही नहीं तो क्या भगत सिंह शिवाजी, या स्वयम मर्यादा-पुरुषोत्तम राम हैं. " 
     भारत क्या जीता मुन्नी की बदनामीं पर अश्लील तरीके से कूल्हे मटकाए लड़कों ने. सड़कों पर शीला की जवानी का सम्मान किया अनावृत होकर नाचते हुए वाह रे युवाओ    

    रंगा जी के इस कथन पर गौर कीजिये :-"भारत ने विश्वकप क्रिकेट का फाइनल मुकाबला जीत लिया है, इस बात की हमें बहुत खु्शी है कि भारत ने आखिर एक खेल में तो अपना परचम फहराया और विश्व में सर्वश्रेष्ठ होने की बात साबित की। मगर मैं अभी जो बात करना चाहता हूं वो इस माहौल से थोड़ी हट कर है। हमारे देश में क्रिकेट का बुखार इस कदर हावी है कि जो व्यक्ति क्रिकेट का मैच देखता है उसे बड़े सम्मान की नजर से देखा जाता है और अगर किसी भी कारण या खेल भावना से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति भारत के किसी खिलाड़ी के बॉलिंग करने के तरीके या बैटिंग करने के तरीके पर नकारात्मक टिप्पणी कर दे तो उसे बड़े संदेह की नजर से देख कर देशद्रोही तक कह दिया जाता है। हमारे देश में वर्तमान में क्रिकेट प्रेमी को ही देशप्रेमी माना जाता है, अगर आप क्रिकेट से प्रेम नहीं करते तो लोग आपको बड़ी उपेक्षा की नजर से देखते हैं। भारत पाकिस्तान के बीच मैच के कारण भारत और पाकिस्तान के लोगों के मन में जो ज़हर था वो निकल गया। वास्तव में अगर मैं कहूं तो हम हिंसा और युद्ध के प्रेमी ही रहे हैं और हार व जीत में ही आनंद मिलता है। हमारे ऐतिहासिक नायक राम, कृष्ण, अर्जुन, भगतसिंह हमें लड़ते हुए ही अच्छे लगे हैं। ये लोग लड़ते रहे और हम इनको पूजते रहे और इनकी प्रतिमाएं और तस्वीरों का बाजार खड़ा कर दिया ताकि लोग इनसे प्रेरणा लेते रहे।" 

जी कितना नकारात्मक वातावरण है दिलों में जो 
अब देखा ही होगा आपने कि हम पाकिस्तान को हराने के लिए कितना आमदा थे और चाहते थे कि हर हाल में हमारे षेर जीते। पाकिस्तान से जिस दिन भारत का मैच था उस दिन तो जूनून देखने लायक था और ऐसा लग रहा था जैसे पूरा देशही युद्ध का मैदान बन गया हो और हर व्यक्ति इसमें योद्धा बनकर अपनी भूमिका निभा रहा हो। उस दिन सबके मुंह से यही सुना जा रहा था कि चाहे विश्व कप न जीत पाए लेकिन पाक को हराना जरूरी है। हम पाकिस्तान को हराने में शौर्य महसूस करते हैं लेकिन उनको हराने में नहीं जिनके हम दो सौ साल तक गुलाम रहे और जिन्होंने हमे जोंक की तरह चूसा और हमारे अस्तित्व को मिटाने का भरसक प्रयास किया। हम यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान भी उनकी ही देन है और पाकिस्तान से दुश्मनी भी उनकी ही देन है। मेरी इस बात पर सैंकड़ो तर्क आ जा सकते हैं लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं होगा क्योंकि हमें सिर्फ जीत चाहिए थी अगर हार जाते तो इल्जाम लगाते, भला बुरा कहते। हमारी मानसिकता है यह कि हम अपने ही भाई को अपना सबसे बड़ा दोस्त और सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं और जब कभी भी मौका पड़ता है तो अपने  ही व्यक्ति को नीचा दिखाने की कोशिश  करते हैं। 


2 अप्रैल 2011

मिसफ़िट पर पूरी 571 पोस्ट

मिसफ़िट ब्लाग पर  मिसफ़िट पर पूरी 571 पोस्ट हो गईं आज़ . अर्चना चावजी के सहयोग से ब्लाग में चार चांद लग गये साथ  आपके स्नेह का बिसरना ग़लत होगा ...  ब्लाग पर 25000 पाठकों की संख्या से बस ज़रा सी दूरी पर हूं.....आज़ तक 24,969  इस ब्लाग को बांच चुके हैं. 
बस आभार के अलावा क्या ... कहूं....?