10 जून 2012

नवगीत: क्यों??... - संजीव सलिल

नवगीत
क्यों??... 
 - संजीव सलिल
*
*
कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...
*
सबमें तेरा
अंश समाया,
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब-
खोते हैं क्यों?
जब खोते
तब पाते पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?... 
*
नीचे-ऊपर,
ऊपर-नीचे।
झूलें सब
तू डोरी खींचे,
कोई डरता,
कोई हँसता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?... 
*
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता
चुप सर धुनता।
तू परखे,
दे संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
***

5 जून 2012

तुम्हारे पास डंक है एक मात्र विकल्प ..

साभार: हिंदी-लतीफ़े
अक्सर
खुद से पूछता हूं
एक हारी देह लेकर
अब तक ज़िंदा क्यों हूं..?
खुद से पूछने का मतलब है
कि -"शायद अब कोई निर्णय लेना है"
मुझे खुल के कुछ कह देना है ..!!
पर नि:शब्द हो जाता हूं ..
तुम्हैं देखकर...
तुम जो मुझे
ग़लत साबित कर खुद से कभी नहीं पूछते
कुछ भी...!!
आज़ भी षड़यंत्रों की बू आई थी
तुम्हारे कथन से
तुम जो
थकते नही हो
गलीच आचरण से..
चलो ठीक है ..
मैंने भी बहते हुए बिच्छूओं को बचाने का लिया है संकल्प..
तुम जो बिच्छू हो तुम्हारे पास डंक ही एक मात्र विकल्प ..