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मौलिक अंग्रेजी सामग्री: Lessening UNRWA's Damage हिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी एक ऐसा संगठन जिसका निर्माण फिलीस्तीनी शरणार्थियों को ध्यान में रखकर किया गया था उसके आलोचक अब उसके पापों की ओर ध्यान देने लगे हैं। इसके शिविर आतंकवादियों के लिये स्वर्ग हैं । इसका प्रशासनिक ढाँचा अत्यधिक बडा है और इससे सहायता प्राप्त करने वालों में कट्टरपंथी भी हैं। इसके विद्यालय घृणा सिखाते हैं। इसकी पंजीकरण की सूची फर्जीवाडे से भरी है। इसकी नीतियों से स्वयं को उत्पीडक दिखाने की मानसिकता को प्रोत्साहन मिलता है। परंतु संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी से उत्पन्न होने वाली सबसे बडी समस्या इसका उद्देश्य है। 63 वर्षों से यह एक ऐसी एजेंसी बन गयी है जो कि शरणार्थी समस्या को सुलझाने के स्थान पर उसे शाश्वत बना रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी शरणार्थियों का समाधान करने के स्थान पर प्रत्येक दिन अधिक पौत्र और प्रपौत्र का पंजीयन करती जाती है जो कि कभी भी न तो अपने घर से और न ही अपने रोजगार से ह्टाये गये और इस पंजीयन से कृत्रिम आधार पर उन्हें " शरणार्थियों" की सूची में शामिल कर दिया जाता है और इससे इजरायल से दुखी शरणार्थियों की संख्या बढती जाती है। अब तक ये वंशज संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी के शरणार्थियों का कुल 90 प्रतिशत हो गये हैं। इसके साथ ही यह एजेंसी शरणार्थी समझौते का भी उल्लंघन करती है तथा उन 20 लाख लोगों को भी शरणार्थी का दर्जा देती है( ऐसे लोग इस एजेंसी की शरणार्थी लाभार्थियों का 40 प्रतिशत हैं) जिन्हें जार्डन,सीरिया और लेबनान में नागरिकता दी जा चुकी है। ऐसे कारणों के चलते नये सिरे से बस जाने के बाद और प्राकृतिक आधार पर संख्या कम होने के स्थान पर संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी में शरणार्थियों की संख्या 1949 से लेकर अब तक 750,000 से बढकर 50 लाख हो चुकी है। इस गति से इस संयुक्त राष्ट्रसंघ सहायता और कार्य एजेंसी की शरणार्थियों की संख्या 2030 तक 80 लाख और 2060 तक 2 करोड हो जायेगी , इसके शिविरों और विद्यालयों में निरर्थक रूप से इस स्वप्न को प्रेरित किया जाता है कि ये लाखों वंशज एक दिन इजरायल के अपने पैतृक स्थान पर वापस जायेंगे। जब फिलीस्तीन अथारिटी के अध्यक्ष महमूद अब्बास ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि 50 लाख फिलीस्तीनियों को भेजने का अर्थ है " इजरायल का नष्ट होना"। यह स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी संघर्ष के समाधान में बाधा है। इजरायल की सरकार के अधिकारी पूरी तरह जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी शरणार्थी समस्या को शाश्वत स्वरूप दे रही है और इसके पापों से भी वे पूरी तरह परिचित हैं। इसी कारण इजरायल ने इस एजेंसी के साथ काम चलाऊ सम्बंध बना रखे हैं और कुछ सेवाओं के लिये इसका सहयोग भी लेता है। इजरायल की सहयोग की नीति 1967 में आरम्भ हुई जब Comay-Michelmore Exchange of Letters के माध्यम से जेरूसलम ने " संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी को इजरायल अधिकारियों की ओर से हर सम्भव सहायता का आश्वासन दिया" । यह नीति नवम्बर 2009 तक काफी कुछ जारी रही जब इजरायल के प्रतिनिधि ने इस बात की पुष्टि की कि 1967 के पत्र की भावना के अनुरूप इस एजेंसी के साथ सहयोग जारी रहेगा और इसके आवश्यक मानवीय मिशन को सहायता दी जायेगी। इस प्रतिनिधि ने तो यहाँ तक आश्वासन दिया कि संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी के साथ " निकट समन्वय" बना रहेगा। इजरायल के अधिकारी संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी की नकारात्मक राजनीतिक भूमिका और सामाजिक सेवा एजेंसी के रूप में इसकी सकारात्मक भूमिका विशेष रूप से इसकी शिक्षा और चिकित्सा में भूमिका के मध्य विभेद करते हैं। वे इस बात की सराहना करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ विदेशी सरकारों से प्राप्त आर्थिक सहायता से पश्चिमी तट की एक तिहाई जनसंख्या की सहायता करता है तथा तीन चौथाई गाजा के लोगों की। इस आर्थिक सहायता के बिना इजरायल को अपनी सीमा पर विस्फोटक स्थिति का सामना करना होता तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इजरायल को एक " कब्जा की हुई शक्ति" माना जाता है तो उससे यह अपेक्षा की जाती कि वह इन लोगों की सहायता करे। अत्यंत विषम स्थिति में इजरायल की सुरक्षा सेना को इन शत्रुवत क्षेत्रों में विद्यालय और चिकित्सालय की देखरेख करने के लिये प्रवेश करना होता और इसका खर्च इजरायल के करदाताओं को वहन करना होता जो निश्चय ही इनके लिये सुखद न होता। जैसा कि अत्यंत जानकार इजरायली अधिकारी ने इसे इस प्रकार कहा है, संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी ने " फिलीस्तीन की नागरिक जनसंख्या को मानवीय सहायता प्रदान करने में मुख्य भूमिका निभाई है" और इसे जारी रहना चाहिये। इससे इस बात की व्याख्या होती है कि जब इजरायल के विदेशी मित्र संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी की आर्थिक सहायता रोकने का प्रयास करते हैं तो जेरूसलम संयम की सलाह देता है या फिर ऐसे प्रयासों को बाधित करता है। उदाहरण के लिये जनवरी 2010 में कनाडा की हार्पर सरकार ने घोषणा की कि वह संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी को आर्थिक सहायता देने के स्थान पर सीधे फिलीस्तीन अथारिटी को देगी ताकि इस क्षेत्र में उत्तरदायित्व और तीव्र रूप से लोकतन्त्र की प्रकिया आरम्भ हो सके। यद्यपि कनाडा के समाचार पत्रों ने गर्व से कहा कि "सरकार ने उनके सुझाव को सुना" परंतु कनाडा के कूटनयिकों ने बताया कि जेरूसलम ने धीरे से कनाडा से संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी को आर्थिक सहायता पुनः आरम्भ करने का आग्रह किया। एक और उदाहरण : दिसम्बर 2011 में डच विदेश मंत्री ने कहा कि उनकी सरकार " सघन रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी के सम्बंध में नीति की समीक्षा करेगी बाद में जेरूसलम ने गोपनीय रूप से कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी की आर्थिक सहायता को उसके हाल पर छोड दें। इस आधार पर हमारे समक्ष एक प्रश्न उठता है कि क्या शरणार्थी स्तर को शाश्वत बनाये बिना इजरायल के लिये उपयोगी संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी के तत्वों को बनाये रखा जा सकता है ? ऐसा हो सकता है परंतु इसके लिये संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी की सामाजिक सेवा की भूमिका और इसकी अधिक शरणार्थी बनाने की भूमिका में अंतर करना होगा। प्रपौत्र को शरणार्थी के रूप में पंजीकृत किये बिना भी इस संस्था का सेक्सन III.A .2 तथा सेक्सन III.BConsolidated Eligibility & Registration Instructions के अंतर्गत फिलीस्तीनियों को सामाजिक सेवा प्रदान करने की अनुमति देता है और वह भी उन्हें बिना शरणार्थी का दर्जा दिये । यह व्यवस्था पहले से पश्चिमी तट में लागू है जहाँ कि 17 प्रतिशत फिलीस्तीनी जनवरी2012 में संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी के साथ पंजीकृत होकर इसकी सेवायें ले रहे हैं लेकिन उनका स्तर शरणार्थी का नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी ने महासभा के समक्ष जो रिपोर्ट दी है उसमें स्वाभाविक रूप से इजरायल विरोधी बहुमत होने के चलते इस संस्था में कोई परिवर्तन असम्भव दिखता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी के प्रमुख दानदाता जिसका आरम्भ अमेरिकी सरकार से होता है कि वे इस संस्था द्वारा शरणार्थी स्तर को शाश्वत बनाने के प्रयास से स्वयं को बचायें। वाशिंगटन को संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी को समाज सेवा के यंत्र के रूप में ही देखना चाहिये इससे अधिक कुछ नहीं। इसे इस बात पर जोर देना चाहिये कि संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी के वे लाभार्थी जो कि कभी अपने स्थान से अलग नहीं किये गये या जिन्हें अन्य देश में नागरिकता मिल चुकी है वे यद्यपि इस संस्था की सेवायें लेने के पात्र हैं परंतु वे शरणार्थी नहीं हैं। इस अंतर को स्थापित करने से अरब इजरायल सम्बंधों की एक बडी उलझन कम हो पायेगी। | ||
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मयकदा पास हैं पर बंदिश हैं ही कुछ ऐसी ..... मयकश बादशा है और हम सब दिलजले हैं !!
20 जुल॰ 2012
संयुक्त राष्ट्र संघ सहायता और कार्य एजेंसी की क्षति को कम करना
13 जुल॰ 2012
Abhas Joshi & his Brother Shreyash Joshi
Shreyas Joshi, Abhas Joshi |
Name
:-Abhas Joshi
Date of birth :- 29/03/1990 Jabalpur
Father :- Ravindra Joshi
Mother :- Abha Joshi
Field :- Music : Singer/composer/actor
education :-School :: Christ Church
Boys Jabalpur
University : Mumbai (BA)
Awards :-Madhjya Pradesh Gaurav
Narmadiya Bal Gaurav
Jagjit Chitra Munch Award
Sanskardhani Gaurav
Juri award in VOI star plus in
2007-08
TV performances singer -winer of sa re ga ma(zee tv) in 2004
children spl
2nd runner up voice
of india starplus
2nd runner up in Junoon
ndtv imagin in 2008
2nd runer up Music
ka maha muqabla star plus
with shreya ghoshal
in 2009
as host:-Chhote Ustaad star
plus 2008 season 1
Chhote ustaad star
plus 2010 season 2
Bharat ki shan dd1
as actor :-8 episodes of
comedy circus
play
back :- naughty at forty,
standby,
background vocals in veer
acting in film:-aaj phir jeene ki
tamanna hai with shatrughn sinha and rekha
yet to be released.
albums :-aaya dwar tumhare with
shreyas joshi in 2003
Baware-Fakira with Sndipa Pare,Shreyas
joshi in 2008
stage stage shows :-almost all major
cities if India with prominent band members
overseas stage shows:-hongkong,
bangkock, pakistan, srilanka, neazealand, singapore
indonasia, dubai etc.
Name : Shreyas Joshi
date of birth :: 25/07/1986
Father : Ravindra Joshi
Mother: Abha Joshi
Place of birth Jabalpur MP
Place of work Mumbai
Field Music
director/composer/arranger/singer
education :
School : Christ Church Boys Jabalpur
College : GS Comm
College Jabalpur
Albums : (1) Aaya Dwar Tumhare in 2003 Singer Abhas
Joshi
released by Arvind Sangeet Nilay,
Jabalpur
(2) Baware
Fakeera (Sai Bhajan) Singers Abhas Joshi and
Sandeepa Pare, Produced
by Girish Billore, Jabalpur
Stage Performances :
Almost all major cities of India and
overseas at Newzealand,
Dubai, Singapore, Bangkock
Associated with Star
Pravah for promo music of
various marathi serials
Music direction of
many jingles .
11 जुल॰ 2012
आरम्भिक इस्लाम को खोजना : डैनियल पाइप्स
वर्ष 1880 में एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ जो कि इस्लाम पर अभी तक का सबसे महत्वपूर्ण अध्ययन माना जाता है। हंगरी के एक युवा यहूदी लेखक इग्नाज गोल्दजिहर ने जर्मन में इस पुस्तक को लिखा और इसे शीर्षक दिया Muslim Studies(Muhammedanische Studies) इसमें तर्क दिया गया कि जिस हदीथ को इस्लामिक पैगम्बर के कथन और कार्य का संग्रह माना जाता है वास्तव में उसकी ऐतिहासिक मान्यता नहीं है। मोहम्मद के जीवन के सम्बंध में विश्वसनीय रूप से विस्तारपूर्वक बताने के स्थान पर गोल्दजिहर ने इस बात को स्थापित किया कि हदीश का आविर्भाव इस्लाम के स्वभाव को लेकर हुए बहस से दो या तीन शताब्दियों बाद हुआ।
( यह वैसे ही है जैसे कि आज अमेरिका के लोग संविधान के सर्वाधिक विवादित द्वितीय संशोधन पर बहस कर रहे हैं जिसमें कि शस्त्र धारण करने के अधिकार को लेकर चिन्ता है और इसका दावा हाल में प्राप्त जार्ज वाशिंगटन और थामस जेफरसन के मौखिक वार्तालाप पर आधारित है । निश्चय ही उनके उद्धरण हमें यह नहीं बतायेंग़े कि 225 वर्ष पूर्व क्या हुआ वरन आज की वर्तमान स्थिति के बारे में बतायेंगे)
गोल्दजिहर के दिनों से ही विद्वान उसी आधार पर कार्य करते आये हैं और इस्लाम के आरम्भिक दिनों के इतिहास में गहराई से प्रवेश करते हैं और उसके प्रत्येक पहलू का अध्ययन करते हैं जो कि मोहम्मद के जीवन से सम्बंधित प्रत्येक वर्णन पर विवाद उत्पन्न करता है जिसके बारे में परम्परागत तौर पर माना जाता है कि उनका जन्म 570 ईसवी में हुआ , 610 ईसवी में पहली बार उन्हें दैवीय संदेश मिला , 622 में मदीना का युद्ध हुआ और 632 में उनकी मृत्यु हो गयी। परंतु बार बार दुहराया जाने वाला यह इतिहास विशेषज्ञों के मध्य एक लगभग रह्स्य बना हुआ है। उदाहरण के लिये पैट्रिसिया क्रोन और माइकल कुक जिन्होंने कि एक शोधपत्र की भूमिका के रूप में Hagarism (Cambridge University Press, 1977) लिखा था जिसे कि जानबूझकर ऐसा लिखा गया था कि अपने संदेश को छुपाया जा सके।
हालाँकि अब दो विद्वानों ने टाम हालैण्ड ने In the Shadow of the Sword (Doubleday) और राबर्ट स्पेंसर ने Did Muhammad Exist? से इस रहस्य को अलग अलग रूप में समाप्त कर दिया है। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है कि स्पेंसर अधिक साहसी लेखक हैं इस कारण मेरा ध्यान इसी पर होगा।
एक अत्यंत अच्छी तरह लिखी गयी , सौम्य और स्पष्ट लेखा जोखा से वे इस बात से आरम्भ करते हैं और प्रदर्शित करते हैं कि मोहम्मद के जीवन , कुरान और आरम्भिक इस्लाम के सम्बंध में परम्परागत रूप से जो माना जाता है उसमें असंगतता और रहस्य हैं। उदाहरण के लिये जहाँ कुरान इस बात पर जोर देता है कि मोहम्मद ने चमत्कार नहीं किये थे तो वहीं हदीथ ने उन्हे असाधारण शक्तियों वाला बताया है जिसमें कि भोजन को द्विगुणित कर देना, घायल को ठीक कर देना , आकाश और धरती से जल निकाल देना और यहाँ तक कि अपने स्वर्ण से प्रकाश भेजना। यह सब क्या है? हदीथ का दावा है कि मक्का एक महान व्यापारिक शहर था लेकिन ऐतिहासिक आँकडे ऐसी किसी बात की पुष्टि नहीं करते।
आरम्भिक इस्लाम के गुण वाली ईसाई गुणवत्ता भी कोई कम अचरज भरी नहीं है विशेष रूप से " ईसाई पाठ के अंश जो कि कुरान की ही भाँति हैं" । यदि सही रूप से देखा जाये तो ये अंश एक तरह से असमंजस वाले वाक्याँशों को और स्पष्ट करते हैं। परम्परागत रूप से आयत 19:24 को यदि पढा जाये मेरी मूर्खतापूर्ण ढंग से सुनती है कि उन्होंने जीसस को जन्म दिया है , " दुखी मत हो ईश्वर ने तुम्हारे नीचे एक नदी रख दी है" इसे अभ्यासवादी इस रूप में अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण बनाते हैं और ( पवित्र ईसाई भी) " दुखी मत हो तुम्हारे ईश्वर ने तुम्हारी सन्तान को जन्म देने को नैतिक और विधिक बना दिया है" " रात्रि की शक्ति" जैसी उलझन भरी आयत जो कि मोहम्मद के प्रथम दैवीय संदेश को समर्पित है वह उस समय समझ में आती है जब कि क्रिसमस को समझाया जाता है। आश्चर्य ढंग से कुरान का अध्याय 97 लोगों को चर्च में ईश्वर के साथ सम्मिलन में आमन्त्रित करता है।
इस ईसाई आधार पर निर्मित होने के कारण अभ्यासवादी आरम्भिक इस्लाम के एकदम नये क्रांतिकारी स्वरूप को सामने ला रहे हैं। इस बात का ध्यान रखते हुए कि सातवीं शताब्दी के सिक्के और अभिलेख कहीं भी मोहम्मद, कुरान या इस्लाम का उल्लेख नहीं करते वे इस बात के साथ समाप्त करते हैं कि नये मजहब का उदय मोहम्मद की कल्पना की गयी मृत्यु से 70 वर्ष से पूर्व नहीं होगा। स्पेंसर ने पाया है कि "पहले दशक की अरब विजय प्रदर्शित करती है कि विजेता इस्लाम को साथ लेकर नहीं चल रहे थे जैसा कि हम इसे जानते हैं वरन यह विस्तृत सम्प्रदाय था ( हगारी जो कि अब्राहम और इस्माइल पर ध्यान केंद्रित रखते थे) और कुछ अंशों में ईसाइयत और यहूदियत के साथ इनके सम्पर्क थे" । अत्यंत संक्षेप में: " इस्लामी परम्परा के मोहम्मद का कोई अस्तित्व नहीं है और यदि वह है भी तो वह पूरी तरह उससे भिन्न है जैसा कि परम्परा में उसे प्रस्तुत किया गया है" जो कि अरब का ईसाई त्रिशक्ति विरोधी नेता था।
केवल 700 ईसवी के आसपास जब अब के विशाल अरब साम्राज्य के शासकों ने अनुभव किया कि उन्हें एकता के लिये एक राजनीतिक दर्शन की आवश्यकता है तो शायद वे इस्लाम मजहब के इर्द गिर्द एकत्र हुए। इस उद्यम में सबसे मह्त्वपूर्ण भूमिका इराक के क्रूर राज्यपाल हज्जाज इब्न युसुफ ने निभाई । स्पेंसर लिखते हैं कि इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि इस्लाम " एक शक्तिशाली राजनीतिक मजहब है" जिसमें कि प्रमुख रूप से योद्धा और साम्राज्यवादी विशेषतायें हैं। इस बात पर भी आश्चर्य नहीं है कि यह आधुनिकता से अधिक संघर्ष करता है।
अभ्यासवादियों का यह कार्य कोई आलसी अकादमिक कसरत भर नहीं है वरन जैसे 150 वर्ष पूर्व यहूदियत और ईसाइयत को उच्च स्तरीय आलोचना का सामना करना पडा था जिसने कि आस्था के समक्ष ऐसी चुनौती खडी की जो कि अभी तक सँभाली नहीं जा सकी है । यह इस्लाम को कम साहित्यिक और दार्शनिक मजहब सिद्ध करेगा और जिसका कि इस्लाम के सम्बंध में लाभ भी होगा जो कि अब भी सर्वोच्चता और बलात के सिद्धांत से प्रेरित है। इस बात के लिये करतल ध्वनि हो कि Did Muhammad Exist ? का प्रमुख मुस्लिम भाषाओं में अनुवाद होगा और इंटरनेट पर इसे निशुल्क रखा जायेगा। तो क्या क्रांति का आरम्भ हो सकता है?
गोल्दजिहर के दिनों से ही विद्वान उसी आधार पर कार्य करते आये हैं और इस्लाम के आरम्भिक दिनों के इतिहास में गहराई से प्रवेश करते हैं और उसके प्रत्येक पहलू का अध्ययन करते हैं जो कि मोहम्मद के जीवन से सम्बंधित प्रत्येक वर्णन पर विवाद उत्पन्न करता है जिसके बारे में परम्परागत तौर पर माना जाता है कि उनका जन्म 570 ईसवी में हुआ , 610 ईसवी में पहली बार उन्हें दैवीय संदेश मिला , 622 में मदीना का युद्ध हुआ और 632 में उनकी मृत्यु हो गयी। परंतु बार बार दुहराया जाने वाला यह इतिहास विशेषज्ञों के मध्य एक लगभग रह्स्य बना हुआ है। उदाहरण के लिये पैट्रिसिया क्रोन और माइकल कुक जिन्होंने कि एक शोधपत्र की भूमिका के रूप में Hagarism (Cambridge University Press, 1977) लिखा था जिसे कि जानबूझकर ऐसा लिखा गया था कि अपने संदेश को छुपाया जा सके।
हालाँकि अब दो विद्वानों ने टाम हालैण्ड ने In the Shadow of the Sword (Doubleday) और राबर्ट स्पेंसर ने Did Muhammad Exist? से इस रहस्य को अलग अलग रूप में समाप्त कर दिया है। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है कि स्पेंसर अधिक साहसी लेखक हैं इस कारण मेरा ध्यान इसी पर होगा।
एक अत्यंत अच्छी तरह लिखी गयी , सौम्य और स्पष्ट लेखा जोखा से वे इस बात से आरम्भ करते हैं और प्रदर्शित करते हैं कि मोहम्मद के जीवन , कुरान और आरम्भिक इस्लाम के सम्बंध में परम्परागत रूप से जो माना जाता है उसमें असंगतता और रहस्य हैं। उदाहरण के लिये जहाँ कुरान इस बात पर जोर देता है कि मोहम्मद ने चमत्कार नहीं किये थे तो वहीं हदीथ ने उन्हे असाधारण शक्तियों वाला बताया है जिसमें कि भोजन को द्विगुणित कर देना, घायल को ठीक कर देना , आकाश और धरती से जल निकाल देना और यहाँ तक कि अपने स्वर्ण से प्रकाश भेजना। यह सब क्या है? हदीथ का दावा है कि मक्का एक महान व्यापारिक शहर था लेकिन ऐतिहासिक आँकडे ऐसी किसी बात की पुष्टि नहीं करते।
आरम्भिक इस्लाम के गुण वाली ईसाई गुणवत्ता भी कोई कम अचरज भरी नहीं है विशेष रूप से " ईसाई पाठ के अंश जो कि कुरान की ही भाँति हैं" । यदि सही रूप से देखा जाये तो ये अंश एक तरह से असमंजस वाले वाक्याँशों को और स्पष्ट करते हैं। परम्परागत रूप से आयत 19:24 को यदि पढा जाये मेरी मूर्खतापूर्ण ढंग से सुनती है कि उन्होंने जीसस को जन्म दिया है , " दुखी मत हो ईश्वर ने तुम्हारे नीचे एक नदी रख दी है" इसे अभ्यासवादी इस रूप में अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण बनाते हैं और ( पवित्र ईसाई भी) " दुखी मत हो तुम्हारे ईश्वर ने तुम्हारी सन्तान को जन्म देने को नैतिक और विधिक बना दिया है" " रात्रि की शक्ति" जैसी उलझन भरी आयत जो कि मोहम्मद के प्रथम दैवीय संदेश को समर्पित है वह उस समय समझ में आती है जब कि क्रिसमस को समझाया जाता है। आश्चर्य ढंग से कुरान का अध्याय 97 लोगों को चर्च में ईश्वर के साथ सम्मिलन में आमन्त्रित करता है।
इस ईसाई आधार पर निर्मित होने के कारण अभ्यासवादी आरम्भिक इस्लाम के एकदम नये क्रांतिकारी स्वरूप को सामने ला रहे हैं। इस बात का ध्यान रखते हुए कि सातवीं शताब्दी के सिक्के और अभिलेख कहीं भी मोहम्मद, कुरान या इस्लाम का उल्लेख नहीं करते वे इस बात के साथ समाप्त करते हैं कि नये मजहब का उदय मोहम्मद की कल्पना की गयी मृत्यु से 70 वर्ष से पूर्व नहीं होगा। स्पेंसर ने पाया है कि "पहले दशक की अरब विजय प्रदर्शित करती है कि विजेता इस्लाम को साथ लेकर नहीं चल रहे थे जैसा कि हम इसे जानते हैं वरन यह विस्तृत सम्प्रदाय था ( हगारी जो कि अब्राहम और इस्माइल पर ध्यान केंद्रित रखते थे) और कुछ अंशों में ईसाइयत और यहूदियत के साथ इनके सम्पर्क थे" । अत्यंत संक्षेप में: " इस्लामी परम्परा के मोहम्मद का कोई अस्तित्व नहीं है और यदि वह है भी तो वह पूरी तरह उससे भिन्न है जैसा कि परम्परा में उसे प्रस्तुत किया गया है" जो कि अरब का ईसाई त्रिशक्ति विरोधी नेता था।
केवल 700 ईसवी के आसपास जब अब के विशाल अरब साम्राज्य के शासकों ने अनुभव किया कि उन्हें एकता के लिये एक राजनीतिक दर्शन की आवश्यकता है तो शायद वे इस्लाम मजहब के इर्द गिर्द एकत्र हुए। इस उद्यम में सबसे मह्त्वपूर्ण भूमिका इराक के क्रूर राज्यपाल हज्जाज इब्न युसुफ ने निभाई । स्पेंसर लिखते हैं कि इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि इस्लाम " एक शक्तिशाली राजनीतिक मजहब है" जिसमें कि प्रमुख रूप से योद्धा और साम्राज्यवादी विशेषतायें हैं। इस बात पर भी आश्चर्य नहीं है कि यह आधुनिकता से अधिक संघर्ष करता है।
अभ्यासवादियों का यह कार्य कोई आलसी अकादमिक कसरत भर नहीं है वरन जैसे 150 वर्ष पूर्व यहूदियत और ईसाइयत को उच्च स्तरीय आलोचना का सामना करना पडा था जिसने कि आस्था के समक्ष ऐसी चुनौती खडी की जो कि अभी तक सँभाली नहीं जा सकी है । यह इस्लाम को कम साहित्यिक और दार्शनिक मजहब सिद्ध करेगा और जिसका कि इस्लाम के सम्बंध में लाभ भी होगा जो कि अब भी सर्वोच्चता और बलात के सिद्धांत से प्रेरित है। इस बात के लिये करतल ध्वनि हो कि Did Muhammad Exist ? का प्रमुख मुस्लिम भाषाओं में अनुवाद होगा और इंटरनेट पर इसे निशुल्क रखा जायेगा। तो क्या क्रांति का आरम्भ हो सकता है?
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