30 अप्रैल 2021

नए युग का जनरल डायर अगरतला डी एम शैलेश यादव

अगरतला के अहंकारी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की निंदा जरूरी है
मित्रों पिछले कुछ दिनों से शायद 27 अप्रैल 2021 से एक ऐसा वीडियो वायरल हो रहा है जो किसी भी स्थिति में ना तो न्याय पूर्ण है और ना ही  मानवता मापदंडों के लिए अनुकूल ही है।
    घटना कुछ इस तरह की है कि दिनांक 26 फरवरी अप्रैल 2021 को रात्रि 10:00 से 10:15 के आसपास अगरतला के डिस्टिक मजिस्ट्रेट श्री शैलेश यादव जो 2013 में आईएएस ने अगरतला के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक परिवार को अपमानित किया। मौका था डॉक्टर साहब की बेटी की शादी का। लड़का बेंगलुरु में रहता है। और यह शादी एक मैरिज हॉल के अंदर पूर्व अनुमति के साथ हो रही थी। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 नाइट कर्फ्यू में अनुमति के लिए प्रस्तुत आवेदन में डॉक्टर देव अर्थात वधु के पिताजी ने बाकायदा विधिवत आवेदन प्रस्तुत किया था। जिसमें उन तमाम बातों का जिक्र था जो एक प्रशासनिक अनुमति के लिए आवश्यक है।
अभी जन्म इस बात का भी जिक्र था कि शादी का मुहूर्त रात्रि 11:30 बजे का है। समाचार माध्यमों से पता चलता है कि संभ्रांत डॉक्टर परिवार ने पहले ही कोविड-19 प्रोटोकॉल पालन करते हुए नियमानुसार उतने ही लोगों को बुलाया जितने कानूनी तौर पर बुलाए जा सकते थे। किंतु अपनी टेरिटरी में स्वयं को ऑलमाइटी यानी सर्वशक्तिमान मानने वाले डीएम साहब ने बड़े असामाजिक तरीके से 31 लोगों को पुलिस थाने में पुलिस वालों पर दबाव डालकर डिटेन कराया। इतना ही नहीं पंडित जी को अपमानजनक तरीके से मारा भी।
वीडियो में आप देख सकते हैं कि उस समय श्री यादव आज के जनरल डायर से कम नजर नहीं आ रहे हैं।
  पुलिस वालों को भी पैसा लेने वाला बताकर और पुलिसिंग का सबक सिखाने की धमकी देखकर जबरन दबाव डाला कि वह बल प्रयोग करें। वीडियो में साफ नजर आता है कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट अहंकार की शराब के नशे में चूर होकर सभी को अपमानित कर रहे थे। मित्रों प्रश्न इस बात का है कि डिस्टिक मजिस्ट्रेट पर लॉ एंड ऑर्डर मेंटेन करने का दायित्व है तथा उन पर आम जनता ही नहीं बल्कि पूरे तंत्र का पूर्ण विश्वास होता है। अपनी 31 साल की नौकरी में मैंने ऐसे डिस्टिक मजिस्ट्रेट आज तक नहीं देखे। आईएएस ऑफिसर भारतीय प्रजातांत्रिक कार्यपालिका की मजबूत रीड की हड्डी होते हैं। इन पर सभी का बहुत विश्वास होता है। मित्रों ऐसे अधिकारी को पब्लिक डीलिंग की डीएम जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहने का अब अगर चीफ सेक्रेट्री त्रिपुरा निर्णय लेते हैं तो यह दुखद होगा। इस कार्य की जितनी भी निंदा की जाए कम है। आजाद भारत का जनरल डायर जो शादी जैसे पवित्र माहौल में राक्षस का चेहरा लेकर उपस्थित होता है एक सम्मानजनक पद पर होते हुए ऐसे व्यक्ति को क्या आप कभी माफ करेंगे। आप मेरी बात से किस हद तक सहमत है मैं नहीं जानता परंतु अपमान कारी डिस्टिक मजिस्ट्रेट के अहंकारी स्वरूप को जिंदगी भर ना भुला पाऊंगा शायद आप भी कभी नहीं भुला सकते। आप मुख्य सचिव त्रिपुरा को ईमेल के माध्यम से अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं।
 

28 अप्रैल 2021

Why is Guyana Hindu?



गयाना या गुयानादक्षिणी अमेरिका का एक देश है। इस का आधिकारिक नाम- "कौपरेटिव रिपबलिक ऑफ़ गयाना" है। यह दक्षिण अमरीका के उत्तर-मध्य भाग मे हैं। 'गुयाना' शब्द का ऐतिहासिक प्रयोग हॉलैन्ड के तीन उपनिवेशो के लिये किया गया था। यह उपनिवेश थे- एस्सेक्यूबो, डेमेरारा और बेरबिस। वो एतिहासिक गयाना अमेज़न नदी के उत्तर मे था और ओरिनोको नदी के पुरव मे था। यहाँ पर भारतियों की संख्या सबसे अधिक है। यह भारतीय प्रजाती के लोग यहाँ अंग्रेजो़ के शासन काल मे आएँ। इस देश पर सबसे पहले पुर्तगालियों ने शासन किया और फिर २०० साल तक अंग्रेजो़ ने यहाँ पर शासन किया।
विकिपीडिया में उपरोक्त अनुसार जो विवरण दर्ज है उसके मुताबिक जाति के लोग 16.7% हैं। 9.6% लोग अन्य प्रजाती के है।

57% लोग ईसाई हैं और लगभग 30% लोग हिन्दू हैं। विस्तृत जानकारी के लिए इस पेज पर जाएं गुयाना विकीपीडिया

19 अप्रैल 2021

अंग्रेजों ने भारत की विकसित शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त किया : प्रशांत पोळ


 प्रशांत पोळ का यह खोजपूर्ण आर्टिकल अत्यंत महत्वपूर्ण एवं पढ़नेे योग्य प्रशांत जी नेेे यह आर्टिकल दो भागों मेें लिखा है सुविधा की दृष्टि से आपके समक्ष एक ही साथ प्रस्तुत कर रहा हूं
हमारे देप्रशांतश में शिक्षा व्यवस्था तथा पाठशालाएं अंग्रेजों ने प्रारंभ की ऐसा कहा जाता हैं. अंग्रेज़ आने के पहले देश में शिक्षा के मामले में अंधकार ही था, ऐसा भी बताया जाता हैं. किन्तु सत्य परिस्थिति क्या थी...? अंग्रेजों और मुस्लिम आक्रांताओं के आने के पहले भारत में जो शिक्षा पध्दति थी, उसका मुक़ाबला संसार में कही भी नहीं था. अत्यंत व्यवस्थित पध्दति से रची गई यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था, सभी आवश्यक क्षेत्रों में ज्ञान एवं प्रशिक्षण प्रदान करती थी. 

विश्व का पहला विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी), तक्षशिला, भारत में प्रारंभ हुआ. उन दिनों भारत में ‘अनपढ़’ जैसा कोई शब्द प्रचलन में नहीं था. आज हमारे बच्चे पढ़ाई करने विभिन्न देशों में जाते हैं. उस समय, विभिन्न देशों के बच्चे, पढ़ने के लिए भारत में आते थे. एक भी भारतीय युवा, उन दिनों पढ़ने के लिए विदेश में नहीं जाता था. एक परिपूर्ण शिक्षा पध्दति भारत में काम कर रही थी. लड़के / लड़कियों को साधारण आठ वर्ष की आयु तक घर पर ही शिक्षा दी जाती थी. आठवे वर्ष में लड़कों का उपनयन संस्कार कर के उन्हे गुरु के पास अथवा गुरुकुल में भेजने की परंपरा थी. ‘गुरु’ शब्द का अर्थ केवल ‘संस्कृत भाषा की शिक्षा देने वाले ऋषि’ नहीं होता था. ‘गुरु’ अपने किसी विशिष्ट क्षेत्र का दिग्गज होता था. 

समुद्र किनारे रहने वाले परिवारों के बच्चे जहाज निर्माण करने वाले अपने ‘गुरु’ के पास रहकर जहाज निर्माण की प्रत्यक्ष शिक्षा ग्रहण करते थे. यही परंपरा भवन निर्माण, लुहारी, धनुर्विद्या, मल्लविद्या जैसी भिन्न – भिन्न कलाओं को सीखने के बारे में भी लागू थी. अगले ८ – १० वर्षों तक गुरु के यहां शिक्षा ग्रहण करने के बाद, इनमे से कुछ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों में जाते थे. इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न शास्त्रों और कलाओं को सिखाने की व्यवस्था थी. 

स्त्रियों को भी उच्च शिक्षा देने की पध्दति और परंपरा थी. ऋग्वेद में स्त्री शिक्षा के बारे में कई उल्लेख मिलते हैं. प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने वाली बालिकाओं को ‘ऋषिका’ और उच्च शिक्षित स्त्रियों को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था. पाणिनी ने अपने ग्रंथ में लड़कियों की शिक्षा के बारे में लिखा हैं. छात्राओं के लिए छात्रावास (हॉस्टल) भी बनाएं जाते थे. इसके लिए पाणिनी ने ‘छत्रिशाला’ शब्द का उपयोग किया हैं. 

विश्वविद्यालयों में शिक्षा – सत्र प्रारंभ होने तथा सत्र समाप्त होने के समय बड़ा उत्सव होता था. सत्रारंभ उत्सव को ‘उपकर्णमन’ तथा सत्र समाप्ति पर हों वाले उत्सव को ‘उत्सर्ग’ कहा जाता था. उपाधि (डिग्री) प्रदान किए जाने वाले उत्सव को ‘समवर्तना’ कहा जाता था. 

‘हारून-अल-रशीद’ इस नाम का अरबी कथाओं का नायक (वर्ष ७५४ से ८४९), बगदाद में राज करता था. इस हारून-अल-रशीद ने और अरबी सुलतान अल मंसूर ने, भारतीय विश्वविद्यालयों से प्रतिभाशाली युवाओं को लाने के लिए अपने विशेष दूत भेजे थे. यह था विश्व का पहला ‘कैम्पस इंटरव्यू’, १२०० वर्ष पहले..!  

किंतु लगभग नौ सौ वर्ष पहले, जब मुस्लिम आक्रांताओं का आक्रमण होता गया, तब परिस्थिति बदली. बख्तियार खिलजी जैसे अनपढ़ और खूंखार सरदार ने नालंदा समवेत अधिकतर विश्वविद्यालय नष्ट कर दिये. हमारी ज्ञान परंपरा खंडित हो गई. तो हमने समझा, हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था ठप्प हो गई. 

किन्तु ऐसा नही था. 

मुस्लिम आक्रांताओं ने हमारे बड़े, छोटे विश्वविद्यालय ध्वस्त किए. अनेक गुरुकुल जला दिये. लेकिन उनके पास कोई शिक्षा का समानांतर मॉडल थोड़े ही था. उन के पास तो शिक्षा का ही मॉडल नही था. वे, खैबर के दर्रे के उत्तर – पश्चिम में स्थित, अनेक कबाइलियों में से थे. ये कबाइले अनपढ़, गंवार, खूंखार, लेकिन अपने धर्म के प्रति अत्यधिक कट्टर थे. कट्टरता के इसी जुनून ने उन्हे भारत में सत्ता दिलाई. लेकिन इस विशाल देश में प्रशासन चलाने का कोई विशेष ज्ञान या कोई व्यवस्था उनके पास नही थी. आज जिसे हम मुगल आर्ट और मुगल स्थापत्य कहते हैं, वह मूलतः भारतीय स्थापत्य ही हैं, जो इस्लामी राजाओं के लिए, या इस्लामी व्यवस्था के लिए बनाया गया हैं. यदि यह वास्तुकला इन आक्रांताओं के पास होती, तो इस शैली के अनेक वास्तु हमे भारत के बाहर, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, किरगिस्तान, उझबेकिस्तान आदि में मिलते. किन्तु ऐसा नही हैं.

इसलिए बड़े विश्वविद्यालय न सही, किन्तु प्राथमिक / माध्यमिक स्तर की शालाओं का जाल, सारे देश में था. जहां हिन्दू राजा, मांडलीक के रूप में थे, वहां उन्होने शालाएं बनवाई और चलवाई.

अंग्रेज़ जब भारत में हुकूमत करने की स्थिति में आएं, तो उन्होने सबसे पहले, भारत की शिक्षा प्रणाली का सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षण की रिपोर्ट इंग्लंड, स्कॉटलैंड और कुछ अंशों में भारत में भी उपलब्ध हैं. ये सारी रिपोर्ट सनसनीखेज हैं. हमारी सारी मान्यताओं को और हमे आज तक पढ़ाए गए इतिहास को झुठलाने वाली ये सब रिपोर्ट्स हैं. 

सन १७५७ में प्लासी का युध्द जीतने के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी का बंगाल पर कब्जा हो गया. जब उन्होने अपना प्रशासन तंत्र अंमल में लाने का प्रयास किया, तो उन्हे पता चला की पूरे बंगाल में, कर वसूली लायक भूभाग में से, ३४ प्रतिशत जमीन से कोई कर वसूली नही होती हैं. इस का कारण हैं, की ये सारी जमीन पाठशालाओं के लिए हैं. इसको देखते हुए अंग्रेजों ने (अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने), उनका शासन जहां था, ऐसे क्षेत्रों में शिक्षा का सर्वेक्षण करने की योजना बनाई. 

वर्ष १८१८ में अंग्रेजों ने मराठों को परास्त कर, अखंड भारत के बड़े से भूभाग पर अपना नियंत्रण कर लिया था. अब उनकी प्राथमिकता थी, शासन चलाना. शिक्षा पध्दती यह शासन व्यवस्था का ही एक अंग था. उन दिनों मद्रास प्रेसीडेंसी में गवर्नर जनरल के पद पर मेजर जनरल सर थॉमस मुनरो आसीन थे. इन्होने २५ जून १८२२ को एक आदेश निकाला, जिसके तहत मद्रास प्रेसीडेंसी के सभी कलेक्टर्स को कहा गया था की वे गांवों की पाठशालाओं के बारे में जानकारी इकठ्ठा कर भेजे. 

थॉमस मुनरो (Sir Thomas Munro : २७ मई १७६१ – ६ जुलाई १८२७) यह स्कॉटिश योध्दा थे और ईस्ट इंडिया कंपनी में तरक्की पा कर मेजर जनरल के पद पर पहुंचे थे. १० जून १८२० से लेकर तो १० जुलाई १८२७ तक यह मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर जनरल रहे. ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अत्यधिक समर्पित, थॉमस मुनरो, भारतियों को दी जाने वाली शिक्षा के प्रति सजग थे. इसलिए उनके कलेक्टर्स ने भेजे हुए रिपोर्ट्स का अध्ययन करने उन्हे चार वर्ष लगे. १० मार्च १८२६ को उन्होने इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को जारी किया. इसका शीर्षक था : ‘The early measures for education in the Madras Presidency – Sir Thomas Munro’s minutes on education in 1822 and 1826.’ इस रिपोर्ट में जनरल मुनरो के शब्द हैं – ‘प्रेसीडेंसी के सभी गावों में पाठशालाएं हैं’. (Every village has a school). इस रिपोर्ट के सातवे अध्याय (Chapter) में जनरल मुनरो लिखते हैं, “State of native education here exhibited, low as it is compared with trhat of our own country, it is higher than it was in most European countries at no very distant period’. अर्थात ‘मद्रास प्रेसीडेंसी में शिक्षा का स्तर अपने देश (इंग्लैंड) से कम हैं, किन्तु लगभग सभी यूरोपियन देशों से अच्छा हैं’. जनरल मुनरो, इंग्लैंड के शिक्षा के स्तर को कम कैसे बोल सकते थे..? किन्तु बाकी लोगों ने क्या कहा ? अनेक समकालीन ब्रिटिश अधिकारियों और ईसाई मिशनरियों ने यह लिखकर रखा हैं की भारतीय शिक्षा व्यवस्था, इंग्लैंड की शिक्षा प्रणाली से अच्छी हैं. 

इसी मद्रास की रिपोर्ट में लिखा हैं, ‘(मद्रास) प्रेसीडेंसी में १२,४९८ पाठशालाएं हैं, जिन मे १,८८,६५० विद्यार्थी पढ़ते हैं’.  

जनरल मुनरो मद्रास में जब शिक्षा पध्दति के सर्वेक्षण का आदेश दे रहे थे, लगभग उसी समय बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर, माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन  (१८१९ से १८२७ के बीच बॉम्बे के गवर्नर रहे) ने भी इसी प्रकार के आदेश कमिशनर ऑफ डेक्कन को तथा गुजरात और कोंकण के कलेक्टर्स को दिये. १० मार्च १८२४ का, Government of Bombay का, गांवों की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के बारे में जानकारी देने का पत्र हैं. एलफिन्स्टन ने इसके लिए जो कमिटी बनाई, उसमे जी एल प्रेण्डरगास्ट का समावेश, ‘बॉम्बे गवर्नर काउंसिल’ के सदस्य के रूप में था. प्रेण्डरगास्ट ने अपने रिपोर्ट में लिखा हैं, “There is hardly a village, great or small, throughout our territories, in which there is not at least one school, and in large villages, more.” 

उन्ही दिनों बंगाल में इस सर्वेक्षण का काम किया विलियम एडम ने. १७९६ में स्कॉटलैंड में जन्मे विलियम, बाप्टिस्ट मिशनरी के रूप में सन १८१८ में भारत आए. तब मराठों को हराने के बाद, अंग्रेजों ने लगभग पूरे देश पर अपनी हुकूमत कायम कर ली थी. विलियम २७ वर्ष भारत में रहे. यहां वे राजा राम मोहन रॉय के संपर्क में भी रहे.

लॉर्ड विलियम बेंटिक उन दिनो भारत के गवर्नर जनरल हुआ करते थे. अंग्रेजी सत्ता की राजधानी कलकत्ता थी. बेंटिक ने, विलियम एडम्स को शिक्षा विभाग में अधिकारी पद पर नियुक्त किया तथा उन्हे बंगाल और बिहार की पाठशालाओं के बारे में रिपोर्ट देने को कहा. 

विलियम एडम्स ने सन १८३५ से १८३८ तक, तीन रिपोर्ट प्रस्तुत किए, जो ‘एडम्स रिपोर्ट्स’ के नाम से प्रसिध्द हैं. अपने पहले रिपोर्ट में एडम लिखते हैं, ‘बंगाल (उस समय का पूरा बंगाल, अर्थात आज का बंगला देश मिलाकर) और बिहार में एक लाख के लगभग स्कूल्स हैं. इन दोनों प्रान्तों की जनसंख्या चार करोड़ के बराबर हैं. अर्थात प्रति ४०० व्यक्तियों पर एक शाला हैं.‘ 

विलियम एडम ने जिसे शालाएँ कहा हैं, वे सारी बड़ी - बड़ी शालाएँ नही हैं. उन में से अधिकतर शालाएँ, मंदिरों मे, खुले आहाते मे, बरगद के पेड़ के नीचे या पढ़ने वाले मास्टर जी के घर पर लगती हैं. सभी प्रकार की मूलभूत प्राथमिक शिक्षा यहां दी जाती हैं. 

उन दिनों पूरा पंजाब अंग्रेजों के कब्जे में नहीं था. महाराजा रंजीत सिंह ने लाहौर को राजधानी बनाकर पेशावर तक अपना शासन बना कर रखा था. इस में जितना भी पंजाब अंग्रेजों के पास था, उसका गवर्नर जनरल था, चार्ल्स स्टुअर्ट हार्डिंग (Charles Stewart Hardinge). इन्होने भी मद्रास और बॉम्बे के जैसा सर्वेक्षण पंजाब में करवाने का प्रयास किया. किन्तु उत्तर – पश्चिम सीमा पर युध्द – परिस्थिति रहने के कारण यह संभव न हो सका. 

पंजाब में यह सर्वेक्षण हुआ लगभग ५० वर्षों के बाद, जब अंग्रेजों का पूरे पंजाब पर स्वामित्व हो गया.  जी. डब्लू. लेटनर नाम के ब्रिटिश आई सी एस अधिकारी ने इस सर्वेक्षण का काम किया था. उनमे से कुछ सर्वेक्षणों के रिपोर्ट के आधार पर उन्होने पुस्तक भी लिखी – History of Indigenous Education in Punjab : Since Annexation and in 1882. इसमे लेटनर बड़ी जबरदस्त बातें लिखते हैं. वो कहते हैं, ‘भारत में बड़ी अच्छी विकेंद्रित शिक्षा व्यवस्था हैं. लगभग प्रत्येक गांव की अपनी पाठशाला हैं, जो गाव वाले चलाते हैं. इन पाठशालाओं को जमीन आबंटित हैं, जिसकी आमदनी से पाठशाला का खर्चा निकलता हैं.‘ 

लेटनर आगे लिखते हैं, ‘इन में से अनेक स्कूलों का स्तर तो हमारे ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के बराबर का हैं. शिक्षकों को अच्छा वेतन दिया जाता हैं’.  

यह जी डब्लू लेटनर (G. W. Leitner) बड़े जबरदस्त व्यक्तित्व के धनी थे. Dr. Gottlieb Wilhelm Leitner का जन्म १४ अक्तूबर १८४० में हंगेरी की राजधानी बुडापेस्ट में हुआ था. लेटनर का परिवार यहूदी (ज्यू) था. उन्हे भाषाओं पर विलक्षण प्रभुत्व हासिल था. जब वे आठ वर्ष के थे, तब कोन्स्टेंटिनोपोल (आज का ‘इस्तांबुल’) गये और वहां से अरबी तथा तुर्की भाषा सीख कर आए. दस वर्ष की आयु में वह इन दो भाषाओं के साथ, अधिकतर यूरोपियन भाषाएं सहजता से बोल लेते थे. पंद्रह वर्ष की आयु में वह क्रिमिया में ब्रिटिश कमिशनरेट में अनुवादक की नौकरी करने लगे. 

इस यहूदी नौजवान ने बाद में मुस्लिम धर्म अपना लिया, और वह अरेबिक का व्याख्याता बन कर विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगा. लंदन के किंग्स कॉलेज में पढ़ाते समय, उन्हे ब्रिटिश सरकार ने भारत में पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया. १८६४ में लेटनर, लाहौर की Government University का प्रमुख बनकर, आई सी एस अधिकारी के रूप मे, भारत आये. १८८२ में उन्ही ने पंजाब यूनिवर्सिटी की स्थापना की. भारत में इस मुकाम में, उन्होने भारतीय प्रणालियों का गहन अध्ययन किया. लेटनर ने १८७० – १८७५ के बीच मे, उत्तर पंजाब के होशियारपुर जिले का बृहद आर्वेक्षण किया, जो पुस्तक के रूप में उपलब्ध हैं. लेटनर ने लिखा हैं, ‘इस होशियारपुर जिले में साक्षरता की दर ८४% हैं’. (अंग्रेजों के, भारत से जाते समय, सन १९४८ में किए गए सर्वेक्षण में यह दर मात्र ९% बची थी. इस दरम्यान अंग्रेजों ने, गांव के पाठशालाओं को आंबटित जमीन हड़प ली. विकेंद्रित शिक्षा व्यवस्था बंद की. उसे केंद्रीकृत किया, और अंग्रेजों के अनुसार पाठ्यक्रम निर्धारित होने लगा.)

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक और अधिकारी, अलेक्जेंडर वॉकर (१७६४ – १८३१) ने दस वर्ष से ज्यादा समय भारत में गुजारा. वे अमेरिका भी गये और वहां से वापस भारत आये. उन्होने केरल के मलाबार में शिक्षा और साक्षरता का जो वातावरण देखा, उस के बारे लिख के रखा हैं. उन्होने लिखा हैं की अत्यंत साधे और प्राकृतिक संसाधनों से इन भारतियों ने अपने शिक्षा प्रणाली की रचना की हैं. 

वॉकर लिखते हैं, “The literature of Malabar has the same foundation, and consists of the same materials, as that of all Hindoo nations. Education with them is an early and important business in every family. Many of their women are taught to read and write. The children are instructed without violence and by a process, peculiarly simple. The system was borrowed from the Bramans and brought from India to Europe. It has been made the foundation of National Schools in every enlightened country. The pupils were the monitors of each other and the characters (अक्षर / आंकड़े) are traced with finger on the sand.’ (page no 263 of his book) 

वॉकर ने आगे लिखा हैं, “The Missionaries have now honestly owned that the system upon which these (British) schools are now taught, was borrowed from India.”
ऑस्ट्रीया के एक मिशनरी, जॉन फिलिप वेस्डिन, अठारवी शताब्दी के अंत में केरल के मलाबार में काम कर रहे थे. वर्ष १७७६ से १७८९ तक वह केरल में थे. उन्होने यूरोप में वापस जा कर, वर्ष १७९६ मे, रोम में अपना लेख (जिसे उन्होने account कहा हैं) प्रकाशित किया. इस में वो लिखते हैं, “The education of youth in India is much simpler, and not near so expensive as in Europe. The method of teaching writing was introduced into India, two hundred years before the birth of Christ, according to the testimony of Megasthenes, and still continued to be practiced.” 
मिशनरी बनने के बाद लिये हुए Fra Paolino Da Bartolomeo इस नाम से लिखे इस आलेख में वो आगे कहते हैं की इन कक्षाओं के शिक्षक, छोटी कहानियां और श्लोकों के माध्यम से नैतिक और सदाचार पूर्ण शिक्षा देते हैं. इन्हों ने उन सभी विषयों की सूची दी हैं, जो पाठशालाओं में पढ़ाये जाते हैं. ये विषय हैं – कविता, वनस्पति शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, नौकानयन शास्त्र, तर्कशास्त्र, न्याय शास्त्र, खगोलशास्त्र, निःयुध्द (मार्शल आर्ट), मौन, स्वाध्याय आदि... वे कहते हैं, “भारतियों की इस शिक्षा पध्दति से विद्यार्थियों का व्यावसायिक ज्ञान मजबूत और उन्नत होता हैं”. यह सब लिखते हुए वह डिडोरस सिकुलस, स्ट्राबो, आरियन आदि ग्रीक (यूनानी) विद्वानों के संदर्भ देते हैं. 
यह सब लिखने के बाद, फ्रा पाओलिनो दा बार्टोलोमीओ (पहले का नाम – जॉन फिलिप वेस्डिन) लिखते हैं, “Indian do not follow that general and superficial method of education, by which children are treated as if they were all intended for the same condition and for discharging the same duties.”

इन्हों ने आगे लिखा हैं, “By the time of Alexander the Great, the Indian had acquired such skill in the mechanical arts, that Nearchus, the commander of Alexander’s fleet, was much amazed at the dexterity (निपुणता / कौशल) with which they (Indians) imitated the accoutrements of the Grecian soldiers.” आगे लिखा हैं, “It however can not be denied that the arts and sciences in India have greatly declined since the foreign conquerors expelled the native kings, by which several have been laid extremely waste and the cast confounded with each other.”

यह भी माना जाता हैं की अंग्रेज़ आने से पहले, शिक्षा पर ब्राह्मणों का ही एकाधिकार था. किंतु अंग्रेजों ने, उन्होने प्रारंभिक काल में, देश के विभिन्न हिस्सों में जो सर्वेक्षण किए, उन में मिला डेटा यह इस मिथक को पूरी तरह ध्वस्त करता हैं. यह झूठ, अंग्रेजी शासन के प्रारंभिक दिनों में ईसाई मिशनरी और शिक्षा विभाग में काम कर रहे अंग्रेज़ अफसरों ने फैलाया हैं.  

सर्वेक्षणों से प्राप्त डेटा के अनुसार वर्ष १८२५ के आस पास, शाला में जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या थी १,७५,०८९. इनमे मात्र ४२,५०२ यह ब्राह्मण विद्यार्थी थे (अर्थात २४.२५%). ब्राह्मणों के अलावा अन्य सवर्ण जातियों के विद्यार्थियों की संख्या थी १९,६६९ (११%). बचे हुए लोगों में ८५,४०० यह शूद्र तथा अन्य पिछड़ी जाती के थे. (अंग्रेजी आंकड़े और नामों के अनुसार). मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या ७% थी. मद्रास प्रेसीडेंसी के अंतर्गत मलाबार के जो आंकड़े दिये गए हैं, उनके अनुसार, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र, तर्कशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों में कुल १,५८८ विद्यार्थी थे, उनमे ब्राह्मणों की संख्या थी ६३९. अंग्रेजों के अनुसार ‘शूद्र’ इस संज्ञा के अंतर्गत २५४ विद्यार्थी थे. अन्य पिछड़ी जाती के विद्यार्थी ६७२ थे. चिकित्सा शास्त्र के १९० विद्यार्थियों में ब्राह्मण विद्यार्थियों की संख्या मात्र ३१ हैं. 

अंग्रेजों ने किए हुए सर्वेक्षणों में, पूरे देश के किसी भी हिस्से का डेटा लिया, तो भी यही निष्कर्ष निकलते हैं. अर्थात, अंग्रेज़ आने से पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था सब के लिए खुली थी. मुक्त थी. 

John Malcolm Ludlow यह एंग्लो – ब्रिटिश बैरिस्टर थे, जिनका जन्म १८२१ में मध्य प्रदेश के नीमच में हुआ था. इनके पिताजी ईस्ट इंडिया कंपनी में अधिकारी थे. बाद में John Malcolm इंग्लैंड गए और वहां ‘वर्किंग मेंस कॉलेज’ की स्थापना की. इस कॉलेज के विद्यार्थियों को समय – समय पर भारत के बारे में जो व्याख्यान (लैक्चर) उन्होने दिये, उनका संकलन ‘ब्रिटिश इंडिया’ शीर्षक से हुआ. यह संकलन ३ भागों (volumes) में उपलब्ध हैं. इस ‘ब्रिटिश इंडिया’ में जॉन माल्कम लुड़लो कहते हैं, “In every Hindu village, which has retained anything of its form, the rudiments of knowledge are sought to be imparted, there is not a child, who is not able to read, to write, to cipher in the last branch of learning they are confessedly most proficient.”

इसी ‘ब्रिटिश इंडिया’ में आगे लिखा हैं, “Where the village system has been swept away by us (Britishers), as in Bengal, here the school system has equally disappeared !”  
     
संक्षेप मे, अंग्रेज़ जब भारत में सत्ता के आसपास पहुंच रहे थे, तब भारत की शिक्षा व्यवस्था विकेंद्रित थी. लगभग सभी गावों में पाठशालाएं थी. गावों के द्वारा इन पाठशालाओं की आर्थिक व्यवस्था देखी जाती थी. शिक्षकों को अच्छा वेतन था. इन पाठशालाओं का स्तर अच्छा था (लेटनर तो कहता हैं, इनका स्तर, केंब्रिज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों के बराबर था). एक सुव्यवस्थित शिक्षा पद्धति भारत में कार्यरत थी. 

इसी समय इंग्लैंड में शिक्षा व्यवस्था की क्या स्थिति थी ? 

एलेक्झेंडर वॉकर ने ‘भारतीय शिक्षा’ पर पर जो पुस्तक लिखी हैं, उसमे इसका वर्णन हैं. वॉकर लिखता हैं, ‘इंग्लैंड में सत्रहवी – अठारवी शताब्दी में औद्योगीकरण का उछाल (boom) आया था. यह औद्योगीकरण, विद्यार्थियों की तरुणाई को खाये जा रहा था. बच्चों को इन उद्योगों में, कठिन परिस्थिति में, काम में झोंक दिया जाता था. बाल श्रमिकों के विरोध में कोई कानून नहीं था. 

इंग्लैंड में ऑक्सफोर्ड, केंब्रिज, एडिनबर्ग आदि विश्वविद्यालय तेरहवी – चौदहवी शताब्दी से थे. अठारवी शताब्दी तक इंग्लैंड में ५०० ‘ग्रामर स्कूल्स’ थे. किन्तु इनकी पहुंच जनसामान्य तक नहीं थी. शिक्षा महंगी थी और समाज का आभिजात्य वर्ग ही उसे ग्रहण कर सकता था. वर्ष १७९२ मे, पूरे इंग्लैंड के शालाओं में विद्यार्थियों की संख्या मात्र ४०,००० थी ! सामान्य वर्ग के लिए, ‘बच्चे को बाइबल पढ़ते आया, अर्थात अच्छी शिक्षा मिल गई’, ऐसा माना जाता था. 

ऐसी पृष्ठभूमि मे, एंड्रयू बेल नामक शिक्षाविद ने सन १८०२ के आसपास, भारतीय शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन कर के इंग्लंड की शालाओं के लिए एक प्रणाली विकसित की, जो आज भी ‘मोनिटोरियल सिस्टम’ या ‘मद्रास सिस्टम’ के नाम से जानी जाती हैं. ‘मद्रास सिस्टम’ इसलिए, क्यूँ की एंड्रयू बेल और जोसफ लंकास्टर ने मद्रास इलाके के एगमोर में शालाओं का अध्ययन कर के, यह प्रणाली विकसित की. 

इस पध्दति में शिक्षा सस्ती थी. एक ही शिक्षक, विद्यार्थियों के बड़े समूह को सिखाता था. वह कक्षा के ‘कक्षा नायकों’ (मोनिटर्स – monitors) की मदद लेता था. यह ‘कक्षा नायक’, उन विद्यार्थियों में से ही होते थे, जो थोड़े तेज रहते थे. यह बच्चे (मोनिटर्स), अपने समूह के बच्चों को नियंत्रित करते थे. इसे ही ‘मोनिटोरियल सिस्टम’ या ‘मद्रास सिस्टम’ कहा गया.  

एंड्रयू बेल, एक निजी शिक्षक (प्राइवेट ट्यूटर) के रूप में अपना करीयर बनाना चाह रहे थे. फरवरी १७८७ में वे भारत के दक्षिण – पूर्वी किनारे, मद्रास में पहुंचे. मद्रास प्रेसीडेंसी में वे दस वर्ष रहे. इन्होने केरल में देखा की कुछ विद्यार्थी, अपने ही साथ के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं. बाद मे, इस व्यवस्था की और अधिक जानकारी लेने के बाद, एंड्रयू बेल के दिमाग में ‘मोनिटोरियल शिक्षा पध्दति’ की कल्पना साकार हुई. उन्होने इंग्लैंड जाकर, जोसेफ लंकेस्टर के साथ मिल कर इस प्रणाली की पाठशालाएं प्रारंभ की, जिन्हे जबरदस्त समर्थन मिला. और इस प्रकार भारतीय शिक्षा पध्दति पर आधारित शालाएं इंग्लैंड में चलने लगी. 

और हमे पढ़ाया जाता रहा की भारत की शिक्षा पध्दति, अंग्रेजों ने खड़ी की..!   

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार को ज्यादा मजबूत बनाने के लिए, ब्रिटन की संसद ने एक ‘चार्टर अधिनियम’ पारित किया. ‘१८१३ का चार्टर अधिनियम’ इस नाम से यह प्रसिध्द हैं. इस अधिनियम के अनुसार, भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को जारी रखा गया. अर्थात इसके अंतर्गत, भारत पर ब्रिटन के राजा की संप्रभुता साबित की गई. चार्टर अधिनियम मे, मिशनरियों को भारत में जाकर ईसाई धर्म का प्रचार – प्रसार करने की अनुमति दी गई थी. 

लोकतंत्र के प्रति अपना प्रेम दिखने के लिये, ब्रिटन की संसद ने, इस अधिनियम के अंतर्गत यह कहां की ‘भारत को शिक्षित करना ब्रिटन का दायित्व हैं’ (अधिनियम के इस एक वाक्य से अंग्रेजों ने यह साबित करने का पूरा प्रयास किया, की अंग्रेजों के आने से पहले का भारत गंवार और अनपढ़ था). अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी को कहां गया की वे शिक्षा पर ज्यादा पैसा खर्च करे तथा इन नेटिवों को (भारतियों को) ‘ठीक से’ शिक्षित करे. अब मुद्दा उठा की शिक्षा किसे देनी हैं ? कौन सी भाषा में देनी हैं ? और कौन सी रचना से (कौन सी सिस्टम से, कौन से विभाग से) देनी हैं ?

भाषा के मामले में अंग्रेजों में ही दो मत थे. एक मत के समर्थक कह रहे थे की भारतीय भाषाओं में, विशेषकर संस्कृत मे, भारतियों को शिक्षा देना चाहिए. इस मत के लोगों ने भारतीय ज्ञान का वैभव देखा था. उन्हे यह मालूम था, की भारतीय ज्ञान परंपरा यह इंग्लैंड की ज्ञान परंपरा से कही अधिक प्राचीन और समृध्द हैं.   

किंतु इस ‘ओरिएंटलिस्ट विचारधारा’ के समर्थक अत्यंत अल्पमत में थे. अधिकतर अंग्रेजों को लगता था की भारतीय लोगों की स्वतः की कोई शिक्षा पध्दति नहीं हैं. ये तो दक़ियानूसी और पिछड़े लोग हैं. इन्हे अंग्रेजी में ही शिक्षित करना चाहिए. 

इसी बीच, वर्ष १८१८ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठों को हराकर, लगभग पूरे देश पर अपना अधिकार जमा लिया था. अब तो इस शिक्षा व्यवस्था को, रियासतों को छोड़कर, बचे हुए ‘ब्रिटिश इंडिया’ में लागू करना सरल था. युध्द का वातावरण भी नहीं के बराबर था. इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी, इस व्यवस्था के कार्यान्वयन पर जुट गई. 

इसके तहत, लॉर्ड थॉमस बाबिंग्टन मेकाले (Lord Thomas Babington Macauly) ने २ फरवरी, १९३५ को अपनी रिपोर्ट कंपनी के सुपुर्द की. यह मेकाले के ‘मिनट ऑफ इंडियन एजुकेशन’ नाम से प्रसिध्द हैं. इसके अनुसार, भारतियों को दी जाने आली शिक्षा यह ‘कंपनी के व्यापारिक हितों’ को देखते हुए ही दी जानी चाहिए. मेकाले के अनुसार, अंग्रेजी उपनिवेश (colony) अगर मजबूत करना हैं, तो भारतीयों की जड़ों को हिलाना पड़ेगा. उन्हे ब्रिटिश उपनिवेश के रंग में रंगना होगा. मेकाले का यह रिपोर्ट मूलतः पढ़ना चाहिए. इसमे कुल ३६ मुद्दों के आधार पर मेकाले अपनी बात रखते हैं. पूरे रिपोर्ट में भारतीयों के और भारतीय भाषाओं के बारे में मेकाले अत्यंत तुच्छतापूर्वक और घटिया भाषा में उल्लेख करते हैं. भारतियों के लिये उन्होने ‘नेटीव’ शब्द का प्रयोग किया हैं. अंग्रेजी जानने वाला नेटीव, उनकी भाषा में ‘लर्नेड नेटीव’ हैं. उन्ही के शब्दों में कुछ बिन्दु –
• All parties seem to be agreed on one point, that the dialects commonly spoken among the natives of this part of India contain neither literary nor scientific information, and are moreover so poor and rude that, until they are enriched from some other quarter, it will not be easy to translate any valuable work into them.  It seems to be admitted on all sides, that the intellectual improvement of those classes of the people who have the means of pursuing higher studies can at present be affected only by means of some language not vernacular amongst them.
• I have no knowledge of either Sanscrit or Arabic. But I have done what I could to form a correct estimate of their value. I have read translations of the most celebrated Arabic and Sanscrit works. I have conversed, both here and at home, with men distinguished by their proficiency in the Eastern tongues. I am quite ready to take the oriental learning at the valuation of the orientalists themselves. I have never found one among them who could deny that a single shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia. The intrinsic superiority of the Western literature is indeed fully admitted by those members of the committee who support the oriental plan of education.
• When we pass from works of imagination to works in which facts are recorded and general principles investigated, the superiority of the Europeans becomes absolutely immeasurable. It is, I believe, no exaggeration to say that all the historical information which has been collected from all the books written in the Sanscrit language is less valuable than what may be found in the most paltry abridgments used at preparatory schools in England. In every branch of physical or moral philosophy, the relative position of the two nations is nearly the same.

इसी रिपोर्ट के अंतिम भाग मे, ३४ वे बिन्दु मे, मेकाले ने जो लिखा हैं, वह भयंकर हैं. १९४७ तक अंग्रेजी शासन इसी विचार के आधार पर चला और दुर्भाग्य से, स्वतंत्रता के पश्चात भी हमारे तत्कालीन राज्यकर्ताओं ने इसी विचार प्रवाह को आगे बढ़ाया. क्या हैं यह बिन्दु..? 

इस ३४ वे बिन्दु में मेकाले लिखते हैं, “हमारे सीमित संसाधनों के साथ पूरे भारत को शिक्षित करना संभव नहीं हैं. इसलिए हमे एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहिए, जो हमारे और सामान्य नेटीवों के बीच दुभाषिए के रूप में काम करे और जो हमारी बाते उनसे करवा ले. यह वर्ग ऐसा होना चाहिए, जिनका खून और रंग भारतीय हो, किंतु मन और मश्तिष्क से वे अंग्रेज़ हो...”
• In one point I fully agree with the gentlemen to whose general views I am opposed. I feel with them that it is impossible for us, with our limited means, to attempt to educate the body of the people. We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern,  --a class of persons Indian in blood and colour, but English in tastes, in opinions, in morals and in intellect. To that class we may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those dialects with terms of science borrowed from the Western nomenclature, and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population.

उन दिनों लॉर्ड विलियम बेंटिक यह भारत के गवर्नर जनरल थे. ४ जुलाई १८२८ से २० मार्च १८३५ तक उनका कार्यकाल रहा. अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उन्होने लॉर्ड मेकाले के ‘मिनट’ को स्वीकृति दी. ब्रिटिश पार्लियामेंट से English Education Act 1835 पारित कराया. उन दिनों न्यायालयों में चलनी वाली फारसी भाषा के स्थान पर अंग्रेजी की प्रतिस्थापना की. 

और उसके बाद, भारत की शिक्षा पध्दति का एकमात्र उद्देश्य, भारतियों को अंग्रेजी मानस में ढालना, इतनाही रह गया..!

वर्ष १८४४ में हेनरी हार्डिंग्स यह भारत के गवर्नर जनरल बने. ये सेनानी थे. फील्ड मार्शल रह चुके थे. फर्स्ट वायकाउंट हार्डिंग यह उनकी उपाधि थी। यह जब भारत के गवर्नर जनरल बनाए गए, तब ब्रिटिश सेना, उत्तर – पश्चिमी भाग में सिखों से लड़ रही थी.

हेनरी हार्डिंग्स ने गवर्नर जनरल का पदभार सम्हालने के तुरंत बाद घोषणा की, कि ‘जिन लोगों ने अंग्रेजी शालाओं से अपना पाठ्यक्रम पूरा किया हैं, उन सभी को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगी’. 

इसके दस वर्ष के अंदर ही, अर्थात वर्ष १८५४ में, सर चार्ल्स वुड ने भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को एक पत्र लिखा, जिसे ‘वुड्स डिस्पेच’ या ‘वुड का घोषणापत्र’ कहा जाता हैं. इसे ‘भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैंग्ना कार्टा’ भी कहा जाता हैं. (‘मैग्ना कार्टा’ या ‘ग्रेट चार्टर’, यह एक दस्तावेज़ हैं, जो १५ जून १२१५ को थेम्स नदी के किनारे किंग जॉन, इंग्लैंड में राजनैतिक स्वतंत्रता के संदर्भ में हस्ताक्षर कर जारी किया था). 

सर चार्ल्स वुड (१८०० – १८८५), ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य थे. वे १८५२ से १८५५ तक, ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ के अध्यक्ष भी थे. अपने घोषणापत्र में उन्होने भारत में अंग्रेजी शिक्षा के महत्व पर ज़ोर दिया. भारत में अंग्रेजी सत्ता ठीक से स्थापित होने में उनका सबसे बड़ा योगदान यह था, कि उन्होने भारतीयों के बीच एक ‘अंग्रेजी वर्ग’ (इंग्लिश क्लास – पूर्णतः अंग्रेजी मानसिकता का भारतीय वर्ग) का निर्माण किया, जो अंग्रेज़ो और अंग्रेजी शासन के प्रति अत्यधिक वफादार था. 

इन सब के चलते अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी साहित्य का प्राबल्य हुआ. पुरानी चलती आ रही भारतीय शिक्षा पध्दति को दकियानूसी माना जाने लगा. धीरे – धीरे थोड़ी बहुत बची हुई गुरुकुल परंपरा समाप्त होती गई. अत्यंत सुंदर विकेंद्रित व्यवस्था के अंतर्गत, गांवों में चलाई हुई पाठशालाएं बंद होती गई और उनके स्थान पर अंग्रेजी शालाएं खुलती गई..!

अर्थात भारत में स्वतंत्र विकसित, प्राथमिक शिक्षा की प्रणाली, इंग्लंड ने अपनाई, और हमारी विकेंद्रित शिक्षा पध्दति को नष्ट कर के हम पर अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली थोप दी...!
-   प्रशांत पोळ 
('विनाशपर्व' इस आगामी प्रकाशित पुस्तक के अंश)
#स्वराज्य75 ; #Swarajya75 ; #British_Raj ; #BritishRaj

संदर्भ –
1. The British System of Education – Joseph Lancaster (1778 – 1838)
2. The Practical Parts of Lancaster’s improvements and Bell’s experiments – Joseph Lancaster and Andrew Bell. Edited by David Salmon (1932)
3. Improvement in Education, as it respects the Industrious Classes of the Community – Joseph Lancaster
4. Cambridge Essay’s on Education – Arthur Christopher Benson (1919)
5. The Beautiful Tree : Indigenous Indian Education in the Eighteenth Century – Dharmpal
6. Education System in Pre-British India – Ram Swarup
7. A Report on the State of Education in Bengal – William Adam
8. Alternate Perceptions of India : Arguing for a Counter Narrative – Dr. Anirban Ganguly (VIF)
9. British India, its races and its history, considered with reference to mutinies of 1857 – John Malcom Ludlow
10. Background of Macaulay’s Minute – Elmer H. Cutts (Published in American Historical Review – Vol 58, No 4, July 1953)
11. Missionaries in India - Arun Shourie
12. Impact of British Raj on the Education System in India: The Process of Modernization in the Princely States of India – The case of Mohindra College, Patiala – Kanika Bansal (2017)
13. The Tormented Indian Spirit : Redemption or Regression – Bhagini Nivedita 
14. The History of British India – James Mill (1848)
15. Sir John Malcolm and the Creation of British India – Jack Harrington (2011)

15 अप्रैल 2021

हनुमान जी का शक्ति प्रबंधन

जगदम्ब की आराधना का पुनीत पर्व नवरात्रि का आज शुभारंभ है। प्राचीन काल से ही शाक्त मतावलंबियों के लिए नवरात्रि शक्ति के अर्जन एवं संरक्षण का प्रमुख उत्सव रहा है। इस अवधि में योग दर्शन के अनुरूप धारणा, ध्यान एवं समाधि के क्रमिक चरणों से गुजरता हुआ साधक जगत में व्याप्त शक्ति से तादात्म्य स्थापित कर शक्ति के स्वरूप में ही बदलने लगता है। विभूतिपाद में कहा है कि- "बलेषु हस्तिबलादिनी" अर्थात बलों में संयम करने से हाथी आदि के समान बल प्राप्त होते हैं। भाव यह है कि जब भी साधक हाथी या सिंह आदि के बल तथा वायु आदि के वेग से तदाकार होकर समाधि पर्यंत संयम करता है तब वह उन्हीं के बल को प्राप्त होता है। श्री पवन तनय तो साक्षात वायुनंदन ही है। कारण से कार्योत्पत्ति होती है। चूंकि वायु में अपरिमित बल एवं वेग है इसलिए वायुपुत्र में भी अप्रमेय बल एवं वेग होना स्वभाविक है। अभिप्राय इतना ही है कि पवन में जो बल है, जो शक्तियां है, पवनात्मज में वे सभी पवन की अपेक्षा विशेष है एवं अधिक विस्तृत है।


शक्ति आराधन से भी महत्वपूर्ण पक्ष है कि शक्ति का दीर्घकाल तक संचयन कैसे रहे? उसके अपव्यय को हम कैसे न्यून करें? बजरंगबली के जीवन से शक्ति के प्रबंधन को हम समेकित रूप से समझ सकते हैं। रामचरितमानस से ज्ञात होता है कि पवनात्मज ने रामायण के चार चुने वीरों पर मुष्टिका प्रहार किया है। लंका नगर की अधिष्ठात्री देवी लंकिनी पर हनुमान जी का प्रथम मुष्टिका प्रहार हुआ-

'मुठिका एक महा कपि हनी, रुधिर बमत धरनी ढनमनी।'

लंकिनी के प्राण-पखेरू न उड़ जाए और स्त्री हत्या का पाप ना लगे इसलिए उसे हल्के से ही मारा। यही कारण है कि पहले हनुमान जी को चोर कहने वाली लंकिनी जब संभल कर उठती है तो हनुमान जी को हाथ जोड़कर प्रणाम करती है एवं भविष्य के लिए शुभाशीष भी देती है।


हनुमान जी ने दूसरा मुष्टि-प्रहार मेघनाथ पर अशोक वाटिका में किया, मुक्का लगते ही मेघनाथ मूर्छित हो गया लेकिन मेघनाथ के प्राण बच गए। वस्तुतः हनुमान जी के मुक्के का मुख्य उद्देश्य मेघनाथ को पाठ पढ़ाना है ना कि प्राण लेना।  वह तो पाठ पढ़ाकर भी निज प्रभु के कार्य के लिए नागपाश का बंधन स्वीकारने को तैयार है परंतु मेघनाद उनके मुष्टि-प्रहार को भूल नहीं पाता है। यही कारण है कि लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध में हनुमान जी के बार-बार आह्वान के बावजूद मेघनाथ भुक्तभोगी होने के कारण हनुमान जी से युद्ध हेतु तैयार नहीं होता-


"मुठिका मार चढ़ा तरु जाई, ताहि एक छन मुरछा आई।

उठि बहोरि कीन्हेसि बहु माया, जीति न जाइ प्रभंजन जाया।"

हनुमान जी ने तीसरा मुष्टि-प्रहार रावणानुज कुम्भकर्ण पर किया। कुम्भकर्ण जैसे बलशाली जिसे पर्वत एवं चट्टानों की मार रुई के फाहे जैसी नि:स्सार लगती है को जब हनुमान जी द्वारा मुष्टि-प्रहार किया तो भूधर स्वरूप कुम्भकर्ण भी इस प्रहार से तिलमिला उठा। कुम्भकर्ण भूतल पर गिर पड़ा, जब वह उठा तो मुष्टि-प्रहार से तुरंत पुनः भूतलगामी हो गया-

"तव मारुतसुत मुठिका हन्यो, परयो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो।

पुनि उठी तेहि मारेऊ हनुमंता, घुर्मित भूतल परेऊ तुरंता।"



दशग्रीवस्यदर्पहा का चौथा विशिष्ट मुष्टि-प्रहार दशानन रावण पर था। पूर्व प्रहारों की अपेक्षा यह बज्र मुष्टि कुछ विशिष्ट थी। लंकिनी, घननाद तथा घटकर्ण को तो मुष्टि का प्रहार मात्र था पर लंकेश को बज्रमुष्टिका लगी। लंकेश को ऐसा लगा कि पर्वत एवं बिजली एक साथ उसके ऊपर गिर पड़े हैं। लंकेश इस प्रहार से मूर्छित हो गया-।मूर्च्छा के उपरांत दसानन हनुमानजी के बल की सराहना भी करता है।


मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेऊ सैल जन बज्र प्रहारा।

मुरछा गे बहोरि सो जागा। कपि बल विपुल सराहन लागा।


इस प्रकार पवनात्मज चार अलग-अलग लंकावीरों को मुष्टि-प्रहार से भूतलगत करते हैं। पवनात्मज को यह सदैव भान है कि लंका के किस वीर पर कितनी युक्ति प्रयोग करनी है, किसको मात्र स्पर्श कराना है, किसी पर प्रहार करना है तो अन्य पर बज्राघात करना है। शक्ति का अतिशय प्रयोग हनुमान जी की संपूर्ण योजना में नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह मुष्टि-प्रहार से इन लंकावीरो का वध नहीं कर सकते थे। वध तो मुष्टि-प्रहार से तय था परंतु यह विधि के विधान के विपरीत होता तथा शक्ति के संरक्षण के भी प्रतिकूल होता। इस प्रकार पवनात्मज शक्ति के आराधन, संरक्षण एवं प्रबंधन का मुष्टि-प्रहार के द्वारा अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। नवरात्रि में शक्ति की अधिष्ठात्री देवी एवं शक्ति के अधिष्ठान पवनात्मज से यही प्रार्थना है कि हम समस्त मानवों को शक्ति के सम्यक प्रबंधन की दिशा प्रदान करें।


नमः शिवाय अरजरिया

11 अप्रैल 2021

महान् समाज सेवक एवं सुधारक - वंचितों के मसीहा - पुनर्जागरण के महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले

यह आलेख आनंद राणा जबलपुर द्वारा फेसबुक वॉल पर प्रस्तुत किया है। उनकी अनुमति के साथ ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है

अवतरण 11अप्रैल सन् 1827 पुणे, पिता : गोविंदराव फुले, 

माता : विमला बाई, पत्नी : सावित्रीबाई फुले 

 महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविंदराव फुले) को 19वी. सदी का प्रमुख समाज सेवक एवं सुधारक थे, उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया। अछूतोद्धार नारी-शिक्षा, विधवा विवाह और किसानो के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है। 

संक्षिप्त जीवन वृत्त - महात्मा ज्योतिबा जी का अवतरण 11 अप्रैल  1827  को सतारा महाराष्ट्र , में हुआ था. उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था. ज्योतिबा जब मात्र  एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया. सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया.

 जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा. स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमें पढ़ने की ललक बनी रही. सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की. घरेलू कार्यों के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थे. ज्योतिबा  पास-पड़ोस के बुजुर्गो से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थे. लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे। उन्‍होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। उन्होंने इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।

उन्होंने वर्ण संस्था और जाति संस्था को शोषण की व्यवस्था बताया और जब तक इनका पूरी तरह से समापन नहीं होता तब तक एक सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण असंभव है- ऐसी स्पष्ट भूमिका रखी. ऐसी भूमिका रखने वाले वो पहले भारतीय थे। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, ब्रम्ह्नोत्तर आंदोलन, बहुजन समाज को आत्मसम्मान देने की, किसानों के अधिकार की - ऐसी बहुत सी लड़ाईयों को प्रारंभ किया. सत्यशोधक समाज भारतीय सामाजिक क्रांति के लिये प्रयास करनेवाली अग्रणी संस्था बनी। महात्मा फुले ने लोकमान्य तिलक ,आगरकर, न्या. रानाडे, दयानंद सरस्वती के साथ देश की राजनीति और समाज को नवीन दिशा दी।

महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ने के बाद 1848 में उन्होंने पुणे में लड़कियों के लिए भारत की पहली पाठशाला खोली | 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की | वह इस संस्था के पहले कार्यकारी व्यवस्थापक तथा कोषपाल भी थे |इस संस्था का मुख्य  उद्देश्य समाज में वंचितों और दलितों पर पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था | महात्मा फुले अंग्रेजी राज के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे क्योंकि अंग्रेजी राज की वजह से भारत में न्याय और सामाजिक समानता के नए बीज बोए जा रहे थे | महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की | उन्होंने उच्च जाति की विधवाओं के लिए सन् 1854 में एक घर भी बनवाया था |  दूसरों के सामने आदर्श रखने के लिए उन्होंने अपने खुद के घर के दरवाजे सभी जाति तथा वर्गों के लोगो के लिए हमेशा खुले रखे। 

ज्योतिबा मैट्रिक पास थे और उनके घर वाले चाहते थे कि वो अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी बन जाए लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया था | उन दिनों में स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब थी क्योंकि घर के कामों तक ही उनका दायरा था | बचपन में शादी हो जाने के कारण स्त्रियों के पढ़ने लिखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था | दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में ही विधवा हो जाती थी तो उसके साथ बड़ा अन्याय होता था | तब उन्होंने सोचा कि यदि भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताएँ ही अंधकार में डूबी रहेगी तो देश का क्या होगा और उन्होंने माताओं के पढ़ने पर जोर दिया था |

उन्होंने विधवाओं और महिला कल्याण के लिए काफी काम किया था | उन्होंने किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के भी काफी प्रयास किये थे | स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा और उनकी पत्नी ने मिलकर 1848 में स्कूल खोला जो देश का पहला महिला विद्यालय था | उस दौर में लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाना शुरू कर दिया और उनको इतना योग्य बना दिया कि वो स्कूल में बच्चों को पढ़ा सके |

ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समानअधिकार नहीं पा लेतीं । उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें । मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं । महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया । वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे । मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था । 

 दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 'सत्यशोधक समाज' स्थापित किया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे लोकमान्य के प्रशंसकों में थे।ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया था | यह बच्चा बड़ा होकर एक चिकित्सक बना और इसने भी अपने माता पिता के समाज सेवा के कार्यों को आगे बढ़ाया | मानवता की भलाई के लिए किये गए ज्योतिबा के इन निस्वार्थ कार्यों के कारण मई 1888 में उस समय के एक और महान समाज सुधारक “राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णाजी वान्देकर” ने उन्हें “महात्मा” की उपाधि प्रदान की | जुलाई 1988 में उन्हें लकवे लग गया | जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता गया लेकिन उनका जोश और मन कभी कमजोर नहीं हुआ। 

27 नवम्बर 1890 को उन्होंने अपने सभी प्रियजनों को बुलाया और कहा कि “अब मेरे जाने का समय आ गया है, मैंने जीवन में जिन जिन कार्यों को हाथ में लिया है उसे पूरा किया है, मेरी पत्नी सावित्री ने हरदम परछाईं की तरह मेरा साथ दिया है और मेरा पुत्र यशवंत अभी छोटा है और मैं इन दोनों को आपके हवाले करता हूँ |” इतना कहते ही उनकी आँखों से आँसू आ गये और उनकी पत्नी ने उन्हें सम्भाला | 28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दी और एक महान् विभूति ने इस दुनिया से अपनी अनंत यात्रा के लिए विदाई ले ली।


10 अप्रैल 2021

किताबें मरती नहीं..!




    हाल ही में पहल संपादक पूज्य ज्ञानरंजन जी ने डिक्लेअर किया कि वे अब अपनी पत्रिका नहीं छापेंगे...!
     कारण जो भी हो भक्तों को काफी दुख हुआ। कुछ भक्तों को यह तक कहने लगे कि इस तरह  पत्रिका का अवसान बेहद दुखद है !
    दुख तो मुझे भी हुआ परंतु में ज्ञान जी की परिस्थितियों को समझता हूं। बेहतरीन एडिटर हैं ।
    पिछले बार भी ऐसी ही कोई स्थिति उत्पन्न हुई थी एक पाठक के रूप में पत्रिका की गैरमौजूदगी दुख का विषय तो है। धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान कादंबिनी आदि आदि कई सारी पत्रिकाओं का प्रकाशन किसी ना किसी कारण से या तो खत्म हो गया या बंद कर दिया गया ।
   यहां किसी किताब के नियमित प्रकाशन ना हो पाने को उस  किताब का अवसान होना पूर्णत: बाल बुद्धि का परिचय है। मित्र समझ लो किताबें कभी नहीं मरती।
   किताब जीती है किताबें जीवंत रहती है चाहे भी ताड़ पत्र पर लिखी हों या दीवारों पर अब इंटरनेट पर किताबें जिंदा हो जाती तब जब तुम उसे बांचते हो । मरते तो 24 लोग जो वर्दी पहनते हैं मरते तो जानवर हैं । किताबें जो आकाश से उतर आती हैं उनका क्या किताबें जो जंगलों में आरण्यक के रूप में लिखी जाती है किताबें जो उपनिषद होती हैं इन सब के बारे में आप क्या कहोगे..?
    निरर्थक भावुक मत बनो यह बाल बुद्धि है मुझे तो लगा कि:"मित्र तुम वैसे ही बच्चे हो जो चॉकलेट खाना चाह रहा था रोज की तरह और आज से तय हो गया कि तुम्हें चॉकलेट नहीं मिलेगी ।"
   एक  पत्रिका का नहीं आना कोई घटना नहीं कि आप शोक गीत लिखें।
इसे मोह कहा गया है । इतना पढ़ने के बाद भी मोह से तुम्हें छुटकारा नहीं है। कोई बात नहीं जब परिपक्वता आएगी तब सब समझ जाओगे ।
   व्हेन सांग फाह्यान बहुत कुछ लिख गए हैं। चाणक्य ने क्या कम लिखा है और फिर वह गीता जो गांधी जी हाथ में लेकर घूमते थे वह किताब नहीं है।
   दुनिया भर में जानकारियों की बौछार को समझिए। ये बौछारें तुम्हें समझ में नहीं आ सकती है कभी। हैमलेट और अभिज्ञान शाकुंतलम को बराबरी से रख कर पढ़ा है कभी ?
    उड़ना है तो पंख लगाओ और
उड़ो ऊंचे और ऊंचे आसमान अंतहीन है । आसमान में चक्रव्यूह नहीं है वैसे तुम अभिमन्यु नहीं हो अभी तो पहला ही द्वार पार नहीं कर पाए।
  निर्मोही बनो इतनी आसक्ति  भी बात की..!
   तिरलोक सिंह आंखों में ढेर सारा प्यार लेकर आते थे । तब तक आए जब तक आंखों ने साथ देना नहीं छोड़ा था। अरुण जी फिर मैं फिर मलय जी हम सबके बीच सकारात्मक संदेशों का ताना-बाना बुना करते थे । असंगघोष की किताब के बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की किताब आंखों को भिगो देती थी । तिरलोक सिंह ने पढ़ना सिखाया है कसम उस अवतार पुरुष की तुम ही मत रो जितना है उतना संभाल लो पढ़ लो समझ लो अक्षर बुनना तो सबको आता है। बुने हुए अक्षर शब्द बनते हैं । और इन्हीं की व्यवस्था किताबें हैं।
  किताबें तब मरती हैं जब तुम्हारी अलमारी के ताबूत में बंद रहा करतीं है । जैसे ही आंख के सामने आती जिंदा हो जाती है कसम से ।
   विमर्श करना हमारा दायित्व है और विरासत भी। नाराज मत हो बस समझा रहा हूं। पहल कभी नहीं मरती  जिंदा रहती है अनंत काल तक।

7 अप्रैल 2021

राम दुआरे तुम रखवारे : नमः शिवाय अरजरिया

राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।

यह हनुमान चालीसा की एकमात्र ऐसी चौपाई है जो द्वैतवाद का समर्थन करती प्रतीत होती है। रखवारे या द्वारपाल का तात्पर्य ही ऐसे व्यक्ति से लिया जाता है, जो दहलीज पर खड़ा हो! जिसका अंतःपुर एवम वर्हिनगर में निर्वाध आवागमन हो। वस्तुतः द्वारपाल होना ही दो जगतों वाह्य एवं आन्तरिक का बोध कराता है, बिल्कुल सांख्य दर्शन के प्रकृति एवं पुरुष की तरह। 

हनुमान चालीसा कि इस चौपाई का शाब्दिक अर्थ है कि, आप राम द्वार के द्वारपाल हैं। आप राम द्वार की रक्षा करते हैं। आपकी आज्ञा के बिना कोई रामद्वार से अंदर प्रवेश नहीं पा सकता। इसका सामान्य अर्थ यह भी है कि आपकी कृपा के बगैर कोई राम की अनुकंपा हासिल नहीं कर सकता। परंतु इस चौपाई का विशिष्ट एवं श्लेषात्मक अर्थ क्या है? आज देवदत्त पटनायक द्वारा प्रणीत मेरी हनुमान चालीसा में जब इस चौपाई का अर्थ अन्वेषण किया तो पाया कि पाश्चात्य विचारकों की तरह पटनायक जी भी इस चौपाई की जड़ें भारतीय जाति व्यवस्था में खोजते हैं। उनका मानना है कि उच्च भारतीय जातियां अपनी पवित्रता, कुलीनता तथा जाति विषयक व्यावसायिक विशिष्टता को बनाए रखने के लिए अपने घर, महल या निवास के बाहर द्वारपाल रखती थी, जो निम्न जातियों को कुलीन लोगों से मिलने से रोकता था या नियंत्रित करता था। परन्तु आम जन से कुलीन शासक का कटाव ना हो इसीलिए ऐसे शासक वर्ष में एक या दो बार रथों पर सवार होकर आम जनों के बीच जाते थे, श्री पटनायक रथयात्रा को इसी का अवशेष बताते हैं। श्री देवदत्त पटनायक द्वारा प्रतिपादित इस तथ्य का जब वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीकृत रामचरितमानस के आलोक में परीक्षण किया तो उक्त दोनों ग्रंथों में ऐसा कोई भी उदाहरण देखने को नहीं मिला जिसमें राघवेंद्र किसी निम्न जाति या वर्ण के व्यक्ति से मेल मिलाप में भेद करते हो। प्रभु श्री राम का जीवन तो ऐसे उदात्त उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनका आलंबन करने से वर्तमान समाज में पाई जाने वाली जातीय या जनजातीय समस्याओं को समूल नष्ट किया जा सकता है। अहिल्या उद्धार, राम-केवट संवाद, वानर जाति से मित्रता, माता शबरी प्रसंग आदि ऐसे अनेकों कथानक हैं जो प्रतिपादित करते हैं कि भक्तों एवं श्री राम के बीच किसी भी जातीय भेद की बात अनर्गल वितंडवाद से इतर कुछ नही है। यद्यपि कुछ लोग शंबूक वध को लेकर मिथ्यारोपण करते हैं। इस संबंध में मेरा यही अन्वेषण है की मूल रामायण या रामचरितमानस में इसका उल्लेख नहीं है यह आख्यान परिवर्ती साहित्यकारों ने राम के उदार एवं उदात्त चरित्र को लघुतर करने के उद्देश्य से जोड़े हैं।

विशिष्ट एवं श्लेषात्मक अर्थ की खोज श्री पटनायक से इतर यूट्यूब पर कई वीडियो तक जारी रही, अंतर्मन से यही प्रश्न बार-बार प्रकट हो रहे थे कि, 
1-रामद्वार क्या है ?
2-द्वारपाल कौन है? उसमें कौन-कौन से गुण होना चाहिए?
3-पैसारे का क्या तात्पर्य है?

जहां तक मेरा मानना है कि राम द्वार से तात्पर्य ऐसे किसी महल या कुटिया से नहीं है ना ही साकेत स्थित कनक भवन से है जिसके दरवाजे पर द्वारपाल के रूप में दनुजवन कृशानु दशग्रीव का दर्प दमन करने वाले बजरंगबली विराजमान हो। वास्तव में इन सभी आख्यानों के प्रतीकात्मक अर्थ अधिक महत्वपूर्ण हैं- जैसे राम द्वार से तात्पर्य है - सत चित आनंद में प्रवेश का दरवाजा अर्थात राम के गुणों का समूह। यह दशा या लक्षण किसी भी मानव मात्र में उत्पन्न हो सकते हैं। परंतु प्रकृति का स्वभाव ऐसा है कि यहां अगर हृदय रूपी प्रवेश द्वार पर एक और गणनीय सद्गुण प्रवेश हेतु आते हैं तो दूसरी ओर ह्रदय देश में प्रवेश हेतु दुर्गुणों की अगणित भीड़ एकत्रित है। हम ह्रदय देश के द्वार पर खड़े द्वारपाल पर निर्भर हैं कि वह अंतस्थ में सद्गुणों को प्रवेश की इजाजत दे या दुर्गुणों को। वस्तुतः हनुमान जी महाराज द्वारपाल के रूप में सदगुरुदेव की ही भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। गुरु ही है जो साधक के दुर्गुणों को कुम्हार की तरह ठोक ठोक कर दूर करता है तथा उसका साक्षात्कार परम तत्व से कराता है। यही कारण है कि आचार्य शंकर से लेकर कबीरदास जी तक सभी प्रज्ञा वान व्यक्ति गुरु के महत्व को अपने-अपने ढंग से निरूपित या प्रतिपादित करते हैं। कबीर दास जी तो यहां तक कहते है- 

गुरु गोविंद दोऊ खड़े,काके लागुं पांय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए ।।

अर्थात साधक के समक्ष अगर भगवान प्रकट हो भी जाएं तो साधक पहचान नहीं पाएगा, पहचान के लिए गुरु एक कसौटी की तरह कार्य करता है। तुलसीदास जी के जीवन में तो इसका प्रत्यक्ष अनुभव रहा है, हनुमान जी सदैव तुलसीदास जी के लिए एक प्रेरक गुरु के रूप में रहे हैं यद्यपि तुलसीदास जी के हृदय में श्री राम को पाने की उत्कट अभिलाषा थी। वह प्रभु दर्शन के लिए बहुत विकल भी रहते थे, लेकिन सम्मुख आने पर भी अपने आराध्य श्री राम को वह पहचान ना पाए। ऐसी दशा में सद्गुरु हनुमान जी ने इशारा कर तुलसीदास जी को अपने आराध्य प्रभु श्रीराम से परिचय कराया।

 चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर।
 तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुवीर।।

वस्तुतः हनुमान जी महाराज ज्ञान एवं गुणों के सागर हैं, आप अमित बल के स्वामी हैं, अत्यंत चतुर एवं विद्यावान है, तपस्वी हैं और इन सबसे ऊपर समर्पण एवं विनम्रता में वरेण्य हैं। सामान्यतः द्वारपाल में चार गुण होना चाहिए-

-द्वारपाल को प्रथमतः सजग होना चाहिए जिससे कोई अनधिकृत व्यक्ति अंतस्थ में प्रवेश ना पा सके।
-द्वारपाल को बलवान होना चाहिए क्योंकि यदि कोई अनधिकृत प्रवेश की बलपूर्वक चेष्टा करें तो उसे उसी की भाषा में जवाब दिया जा सके।
-द्वारपाल का तीसरा लक्षण विवेकवान होना है
-द्वारपाल का चौथा लक्षण है कि उसे आग्रही होना चाहिए क्योंकि सद्गुण अत्यंत स्वाभिमानी होते हैं बार-बार आग्रह पर ही आमंत्रण स्वीकारते हैं एवं ह्रदयंगम होते हैं। सद्गुरु के रूप में हनुमान जी इन गुणों में सिद्धहस्त हैं। हनुमान जी इतने सजग हैं कि जितने में नाग माता सुरसा अपना मुख वापस पूर्व स्थिति में लाती है तत्समय में वह सुरसा के उदर से वापस भी आ जाते हैं। वह अतुलितबलधामं है उनके हृदय में स्वयं अतुलित बल के स्वामी एवं अतुलित बल की प्रभुताई धारण करने वाले श्री राम सदैव धनुष बाण लेकर निवास करते हैं। मारुतिनंदन के व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता उनका विवेक ही है। विवेक मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं तन विवेक, मन विवेक, नयन विवेक एवं वाणी विवेक। किसी वृतांत के वर्णन में या आत्मपरिचय के समय हम सम्मुख उपस्थित व्यक्ति या समूह के समक्ष कैसे उठते या बैठते हैं कैसे हाव-भाव बनाते हैं यह तन विवेक है। हमारा परिधान कैसा हो यह भी तन विवेक की परिभाषा में आता है। मन विवेक दूसरे के कल्याण से संबंधित है। नयन विवेक दर्शन एवं आत्मा अवलोकन से संबंधित है। वही वाणी विवेक हमारे प्रभाव को दूसरे पर प्रकट करने में मदद करता है। किस व्यक्ति से किस समय हमें किस भाषा में क्या बोलना है यह वाणी विवेक का विषय है। यदि हमारी माता या पड़ोसी अनपढ़ हैं और हम उनसे आंग्ल भाषा में बातचीत करें तो यह वाणी विवेक के प्रतिकूल है। वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की सफलता असफलता सामाजिक संबंध वृतांत विवेक पर ही निर्भर है। जब हम मारुतसुत के चरित्र पर विचार करते हैं तो पाते हैं उन्होंने श्री राम से प्रथम परिचय के दौरान ही उन्हें इतना अधिक प्रभावित किया कि, श्रीराम पहले उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनते ही रहे एवं उनकी वाणी तथा हाव भाव से प्रसन्न होकर उन्हें अपना सचिव बना लिया। श्री राम लक्ष्मण से कहते हैं की- हनुमान ने आत्मपरिचय में भाषा व्याकरण आदि की कोई त्रुटि नहीं की है। कोई भी आदमी जिसने ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को ठीक ठीक ढंग से ना सीखा पड़ा हो वह कभी ऐसे अच्छे ढंग से बात नहीं कर सकता। यह पक्का मानो कि इन्होंने संपूर्ण व्याकरण का अभ्यास किया है क्योंकि इतनी बातें कहने पर भी इनके मुंह से ऐसी बात नहीं निकली जिस पर टोका जा सके। इतनी देर में इनके मुख, आंख, मष्तिष्क या भौंह से बने हाव-भाव में कोई खोट दिखाई नहीं पड़ी। वह ना रुके, ना हकलाये ना नेत्र चलाएं ना माथे पर सिकुड़न पड़ने दी ना भौंहें तिरछी या बाकी होने दी। इनका स्वर ना बहुत मंद था एवं ना ही बहुत तीव्र। ह्रदय, कण्ठ एवं दिमाग से निकलने वाली इनकी बोली इतनी प्यारी है कि सुनकर प्रत्येक व्यक्ति का हृदय खिल सकता है। ऐसी बातें सुनकर मारने के लिए तलवार उठाए दुश्मन का निर्णय भी परिवर्तित हो जाएगा। हे लक्ष्मण बताओ जिस राजा के पास ऐसा अच्छा कार्य कुशल बुद्धिमान सेवक हो क्या उसका कोई कार्य सधने से रुक सकता है। हनुमानजी इसीलिए सदैव 'सत- चित- आनंद' रूपी परमात्मा श्रीराम के द्वार हृदयस्थल पर विराजमान है।

पैसारे

आचार्य तुलसी पर समकालीन भाषाओं का अत्यंत प्रभाव था। उन्होंने अपने ग्रंथों में ब्रज भाषा, उर्दू भाषा, अवधी भाषा एवं पंजाबी का बहुतायत में प्रयोग किया। इस चौपाई के अंत में वर्णित शब्द पैसारे पंजाबी भाषा से ही लिया गया है। गुरुवाणी में पसर जाने का प्रयोग समर्पण के संदर्भ में किया गया है। गुरु वाणी में लिखा है-

हम कूकर तेरे दरबार ।
भोंकन आगे बदन पसार।।

अर्थात हम तेरे दरबार के कुत्ते हैं जो दीन हीन होकर तेरे आगे भौंकते रहते हैं। इस प्रकार पसर जाना एक ऐसी दशा या अवस्था है जब व्यक्ति संपूर्ण आलंबनों को छोड़कर एकमात्र परम सत्ता के भरोसे स्वयं को छोड़ देता है तभी 'सत- चित- आनंद' रूपी परमात्मा ह्रदय देश में प्रकट होते हैं। इस दशा में साधक मान-सम्मान, यश- अपयश, हानि- लाभ से परे होकर द्रौपदी, प्रहलाद या गजेंद्र की तरह आर्त स्वर में दीन हीन बनकर एकमात्र ईश्वर का आलंबन ग्रहण करता है। इसी दशा में मानव मात्र का राम द्वार से सत चित आनंद रूपी परमात्मा में प्रवेश होता है। क्योंकि इस दरवाजे पर सद्गुरु रूपी रखवाले होना आवश्यक है। हनुमान जी महाराज सदैव ऐसे द्वार की रक्षा के लिए तत्पर हैं। वीर बजरंगबली से मेरी प्रार्थना है की आत्मा के मार्ग के प्रतीकों के लिए सत चित आनंद रूप राम द्वार के दरवाजे आग्रह पूर्वक खुले रखें।
लेखक नमः शिवाय अरजरिया मध्यप्रदेश शासन में संयुक्त कलेक्टर के पद पर पदस्थ हैं

6 अप्रैल 2021

साहित्यकार दायित्व से कन्नी काट रहे हैं..!


#शुतुरमुर्ग_बुद्धिजीवियो, फूहड़ मंचीय कवियों, साहित्यकारों को चुनौती 
      सृजन धर्मियो चार दिनों से तुम सबके चेहरे साफ साफ देख रहा हूँ। बीजापुर सुकुमा में हिडमा ने 24 जवानों को शहीद कर दिया । तुम्हारी कलम की तेज धार किधर गई ?  शायद तुम्हारी कलम और चेतना दोनों नपुंसक हो गई है। प्रेमचंद कबीर तुलसी कराहते थे ! तुम हो कि-" नक्सलवाद के खिलाफ वातावरण नहीं बना सकते..?"
 हां चुनौती दे रहा हूं...!  जब मानवता सरेआम तार तार होती है तब तुम्हारी भूमिका क्या है..?
या तो तुम आयातित विचारधारा के गुलाम हो या अपने कंफर्ट जोन से बाहर ना निकलने की कसम खा चुके हो ?
  संस्कारधानी हो या मालवा बुंदेलखंड बघेलखंड बड़ी-बड़ी बातें करना मंच पर बैठकर फूहड़ चुटकुलों और गले बाजी करने वाले कवियों क्या बीजापुर तुम्हारे वतन का हिस्सा नहीं है ?
  तुम क्या जानो की दूर पहाड़ में रहने वाला आदिवासी कितने गुमराह किए जा रहे हैं। पढ़ते नहीं हो न और फिर तुम्हारी कलम में धार नहीं है और साथ ही साथ तुम एक विशिष्ट विचारधारा के षड्यंत्र को समझ नहीं पा रहे..! मेरी पोस्ट को पढ़ने के बाद या तो साहित्यकार होने का ऐलान मत करना या आईने के सामने खड़े होकर खुद को तमाचा मारना।
  - अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है लिखो उसके पहले पढ़ो ताकि समाज को समझ में आए कि यह देश किसी आयातित विचारधारा का गुलाम नहीं । 
सृजन और साहित्य की ठेकेदारी बंद करो समाज में सही दिशा देने के लिए साहित्यकार के रूप में राष्ट्र धर्म का पालन करो और यह नहीं कर सकते तो सृजन धर्मी होने का दावा मत करो आने वाली पीढ़ियां सब समझ जावेंगी आप क्या थे..!