27 जन॰ 2008

हरिवंशराय "बच्चन" शुद्ध आध्यात्मिक कवि : मधुबाला के ज़रिए एक पड़ताल

हरिवंश राय जी का रचना संसार मेरी दृष्टि में आध्यात्मिकता का स्मारक है। वे जो भी रचते
आत्मा और नियंता के बीच स्पष्ट संवाद ही तो है आप देखिए जानिए मेरे साथ अकेले भी परखिए बच्चन को
तेरा हार (1932)
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)
मधुकलश (1937)
निशा निमंत्रण (1938)
एकांत संगीत (1939)
आकुल अंतर (1943)
सतरंगिनी (1945)
हलाहल (1946)
बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)
मिलन यामिनी (1950)
प्रणय पत्रिका (1955)
धार के इधर उधर (1957)
आरती और अंगारे (1958)
बुद्ध और नाचघर (1958)
त्रिभंगिमा (1961)
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
दो चट्टानें (1965)
बहुत दिन बीते (1967)
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
जाल समेटा (1973)
विविध
बचपन के साथ क्षण भर (1934)
खय्याम की मधुशाला (1938)
सोपान (1953)
मैकबेथ (1957)
जनगीता (1958)
ओथेलो(1959)
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960)
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
आधुनिक कवि:७ (1961)
नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961)
नये पुराने झरोखे (1962)
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
नागर गीत) (1966)
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
1972)
टूटी छूटी कड़ियां (1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हंस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)
आत्मकथा / रचनावली
क्या भूलूं क्या याद करूं (1969)
नीड़ का निर्माण फिर(1970)
बसेरे से दूर (1977)
दशद्वार से सोपान तक (1965)
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)

उस रात जब हरिवंश जी को दुनियाँ छोडनी थी मुझसे नींद रूठी थी ज्यों ज्यों रात गहरा रही थी त्यों-त्यों मैं गोया मर रहा था. सोचता कविता लिखूं कहानी लिखूं.. गीत बुनूं रीत चुनूं किसी काम के लिए जी नहीं चल रहा था यहाँ तक कि किसी क़िताब को छूने तक कि इच्छा न हुई.अमृत्य सेन को तो सेल्फ में छिपा दिया . तो निशा निमंत्रण तो समझ ही नहीं आ रही था.तभी "मधुबाला" पे हाथ जा लगा थोड़ा बहुत पड़ने को जी चाहा. ख़ुद को मधुबाला मान बैठा पहला छंद पड़ कर-
"मैं मधुबाला मधुशाला की
मैं मधुशाला की मधुबाला !
अपनी आत्मा की ईश्वर-आसक्ति का अनुभव मुझे प्रथम बार हुआ ये कैसे हुआ क्यों हुआ इसका राज़ तब जाना जब मैंने अपनी माँ के लिए लिखी कविता की पंक्तियाँ जब भी पढनी चाही न पढ सका . जिस भाव से लिखा जाता है पढते वक़्त वेही भाव मंडराते हैं पाठक के मानस पर.
हाँ तो अध्यात्मिक चिंतन के लिए ये पंक्ति पर्याप्त है:-
"इस नीले अंचल की छाया
मैं जग ज्वाला का झुलासाया
आकर शीतल करता काया
मधु-मरहम का लेपन कर
अच्छा करती उर का छाला !"
थोड़ा सोचा तो पाया मेरा मन आज दुनियाँ भर के छलों के बारे में सोच रहा था कुछ देर पहले मेरे मित्र ने मुझे पीठ में छुरा भौंका था मैं वो दर्द भूल गया . आत्मा मधुबाला सी नृत्य करने लगी विचार मंच पर "मेरे नूपुर के छम-छनन में ले होता जग का क्रंदन, झूमा करता मानव-जीवन"
मानस में उमड़-घुमड़ के विचार आते कि दुनियाँ बुरी है बेक़ार और मतलब परस्तों से भरी है तो आत्मा समझाइश देती :-"तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया था भ्रम छाया
था मातम छाया था ग़म छाया,
ऊषा का दीप लिए सिर पर
मैं करती आई उजियारा"
"मालिक-मधुशाला" तो उदघोषणा है "अहम-ब्रह्मास्मि" कि विश्व में ब्रह्म और जीवन की पूर्ण रूप से रेखांकित किया देखें:-"जब ये मधु पी-पीकर छलकें
देखो इनकी पुलकित पलकें
कल कंधों पर चंचल अलकें"
मैं देख जिन्हें मतवाला हूँ
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
संदेश भी है १५ वें पद में
"कटु जीवन में मधुपान करो
जग के रोदन की गान करो "
मधुपायी के रूप देहों की रख के देखिये
"हमने छोड़ी कर की माला,पोथी-पत्रा भू पर डाला,मन्दिर-मस्जिद के बंदीगृह की
तोड़,लिया कर में प्याला!"
कुछ पल बच्चन के इर्द गिर्द घूमता रहा मेरा मानस उनकी रचनात्मकता को समझ ही रहा था कि अचानक मेरी नज़र पडी
आज तक के एक पत्रकार को ये कहते सुना :-"बच्चन जी नही रहे !!"
महाशोक के बीच मन ने बच्चन जी को मधुशाला के ज़रिए पड़ताल जारी रखी....?
ये अलग बात है कि अमर सिंग ने किसी पत्रकार को झडपा कारण से मुझे कोई लेना देना नहीं सो आगे जानिए
मधुपायी का छठवॉ पद सामयिक लगा
"है ज्ञात हमें नश्वर जीवन
नश्वर इस जगती का क्षण-क्षण
है,किन्तु , अमरता की आशा
करती रहती उर में क्रंदन ,
अमरता की ललक को ललकारता कलम का सिपाही इन पंक्तियों के समझ आने तक मौन हों चुका था । तभी तो वे "पथ का गीत" में अभिलाषित हें
"गुंजित कर दो पथ का कण-कण , कह मधुशाला जिन्दाबाद "

2 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!