25 मई 2007

प्राप्ति और प्रतीति

प्राप्ति और प्रतीति
परिंदों,
तुम् आज़ाद हो,

उड़ो,
ऊँचे
और ऊँचे,
जहाँ
सफलता का दृश्य,
बाट जोहता है।
जहाँ से कोई योगी,
पहले पहल सोचता है ?
इस आव्हान का असर,

एक पाखी ने फड़फड़ाए पर,
टकराकर, जाने किस से -गिर गया -!
विस्तृत बयाबान में....!,
तब
से अब तक
हम,आप और !!
ताड़ के पत्तों से,
किताबों के जंगल तक

-अन्वेषणरत-
खोजते
कराहों का कारण।

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!