17 अप्रैल 2009

आलोचक ही नहीं सभी तो बीस-बीस वाला मैच खेल रहे हैं ....!! .

किसलय जी ने जो भी यहाँ जो भी लिखा सही और सटीक लिखा तभी तो पंकज स्वामी "gulush ने कहा… आदरणीय किसलय जी,आप हिंदी साहित्य संगम के माध्यम से जबलपुर के साहित्यकारों के सम्बन्ध में विभिन्न अवसरों पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत करते हैं। इसके लिए आप को साधुवाद। श्री ओंकार ठाकुर ने जिस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में 'शताब्दी' प्रकाशित करते रहे, वह साहित्यिक क्षेत्र में बड़ी बात है। दुख इस बात का है कि आलोचकों की नजरों में ओंकार ठाकुर निरंतर ही उपेक्षित रहे हैं।
इस पर मेरी सहमति अधिक तल्ख़ और चुभने वाली लग सकती है । जबलपुर तो एक उदाहरण है पूरेc देश में आलोचक बीस-बीस वाला मैच खेल रहे हैं इस बात के उदाहरण अनवरत आपको मिलेंगे ।डाक्टर मलय शर्मा भी इस तरह की उपेक्षा का शिकार रहे हैं। जबकि बुन्देली लोक भाषा के कवि एवं कथाकार "गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त "तो उपेक्षा यानि कार्य के मूल्यांकन न होने से मुझे प्राप्त जानकारी केa अनुसार एकाकी पसंद हो गए।
आलोचक ही क्यों आयोजक और हम सभी के लिए सोचना ज़रूरी है कि "हम कुछ चुनिन्दा के इर्द गिर्द ही क्यों डोलते फिरतें हैं " हाँ इस के विरोध के स्वर उभरते तो हैं जिसको पागलपन कहा जाता है जैसा कि कई बार मैंने भोगा और सुना है।
सच तो यह है कि "आत्म केन्द्रित सोच के चलते बहुजन हिताय की सोच अब शून्य सी हो गई है "
विगत तीन चार बरस पहले की बात है हमने कोशिश शुरू की थी नगर और बाहर के सृजन धर्मियों की कृतियों का पठन पाठन हो उस पर चर्चा हो पाठक मंच की तरह तब स्वर्गीय श्री राम ठाकुर दादा के अलावा किसी ने इस हेतु सहयोग नहीं दिया इसका अर्थ क्या था कई दिनों तक सोचता रहा था मैं एक दिन तो बात यहाँ तक पहुँच गयी कि इस तरह के मासिक आयोजन की भीड़ को कम करने प्रायोजित-समानान्तर-आयोजनों का सिलसिला शुरू कर दिया गया । कुल मिला कर आत्म-मुग्धता का सर्वोत्तम ऐसे उदाहरणों से हम क्षतिग्रस्त हुए जिसका परिणाम यह है कि:-"श्री ओंकार ठाकुर जैसे महान रचनाकारों की उपेक्षा का दंश सबको चुभ रहा है किन्तु उनको नहीं जो यह ऐलान करतें हैं कि वे साहित्य और सृजन शीलता के प्रोत्साहक हैं "
अस्तु मेरा सवाल ये नहीं की सिर्फ़ आलोचक ही जिम्मेदार होते हैं....मैं सहमत नहीं जिम्मेदार तो हम सभी हैं साहित्य के लिए हिन्दी के सार्थक सृजन को प्रोत्साहित कराने उनके समय पर मूल्यांकन के लिए । वैसे मुझे यह मालूम है की इस आलेख को आप कुंठा ही कहेंगे किंतु ऐसा नहीं है मुझे आपसे यह अनुरोध करना है कि यदि आपके शहर में ऐसे कोई उपेक्षित से साहित्यकार हों तो उनको उनका सम्मान ज़रूर दिलाएं यदि आप यह कर सकें तो बेहद रचनात्मक कार्य होगा ।
विशेष विनम्र अनुरोध :-इस पोस्ट को केवल जबलपुर से जोड़कर न देखें यह हर जगह की स्थिति की रपट है




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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!