दमिश्क के राष्ट्रपति महल में बशर अल असद की दुखद उपस्थिति भले ही पश्चिमी पूर्वानुमानों के विपरीत हो परंतु इससे जितनी क्षति है उससे कहीं अधिक लाभ है। उनका हत्यारा आतंकवाद जैसी और तेहरान समर्थक शासन है पर साथ ही गैर विचारधारगत और अपेक्षाकृत सेक्युलर है, इसने अराजकता को रोक रखा है साथ ही इस्लामवादी शासन , जनसंहार और सीरिया के रासायनिक हथियारों को दुष्ट हाथों में जाने से भी रोक रखा है।
जबकि सीरिया का गृहयुद्ध तीव्र हो चुका है तो पश्चिमी राज्य धीरे धीरे विद्रोहियों को असद और उनके सहयोगियों को सत्ता से उखाडने के लिये सहयोग कर रहे हैं। ऐसा करते हुए पश्चिम को आशा है कि वह लोगों के जीवन बचा सकता है और लोकतांत्रिक संक्रमण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अनेक पश्चिमी आवाजें केवल गैर घातक सहायता तक ही सीमित नहीं हैं और वे विद्रोहियों को शस्त्र भी उपलब्ध कराना चाहते हैं , सुरक्षित क्षेत्र स्थापित करना चाहते हैं और यहाँ तक कि सरकार के विरुद्ध उनके युद्ध में भी शामिल होना चाहते हैं।
हालाँकि विद्रोहियों को सहायता प्रदान करने से एक मूलभूत प्रश्न की अवहेलना होती है: क्या सीरिया में असद के विरुद्ध हस्तक्षेप करने से हमारे हित सधते हैं? यह सीधा सा प्रश्न इसलिये छूट जाता है क्योंकि अनेक पश्चिमी अपने अच्छे होने को लेकर इतना अधिक आत्मविश्वास अनुभव करते हैं कि अपनी सुरक्षा के प्रति ध्यान देने के स्थान पर उन पर अधिक ध्यान देते हैं जो कि उनकी कल्पना में कमजोर और शोषित हैं चाहे वे मानव हों ( आदिवासी हों या फिर गरीब), या फिर पशु हों ( व्हेल या अन्य समुद्रीजीव) । पश्चिम के लोगों ने इन चिंताओं पर कार्य करने के लिये अत्यंत सटीक कार्ययोजना विकसित कर ली है( पशु अधिकार कार्यकर्त्तत्व का दायित्व)
हम लोगों में से जिनको अधिक आत्मविश्वास नहीं है वे अब भी सुरक्षा और सभ्यता के खतरे को पहली प्राथमिकता मानकर चल रहे हैं। इस प्रकाश में विद्रोहियों को सहायता उपलब्ध कराने के पश्चिम के लिये कुछ नुकसान हैं।
पहला, विद्रोही इस्लामवादी हैं और एक ऐसी विचारधारागत सरकार का निर्माण करना चाहते हैं जो कि पश्चिम के प्रति असद से अधिक शत्रुता वाली होगी। तेहरान से अपने सम्पर्क तोडने के उपरांत भी इसके द्वारा इस्लामवाद की बर्बर सुन्नी शक्ति को आगे बढाने से यह संतुलन वैसे ही बना रहता है।
दूसरा यह तर्क कि पश्चिमी हस्तक्षेप से विद्रोहियों की सामग्री के प्रति सुन्नी देशों के प्रति निर्भरता कम होने से उनका इस्लामवादी स्वरूप कम हो सकेगा एक निहायत ही हास्यास्पद तर्क है। सीरिया के विद्रोहियों को शासन गिराने के लिये पश्चिम की सहायता की आवश्यकता नहीं है ( और वे इसके लिये कृतज्ञ भी नहीं होंगे यदि उन्हें सहायता मिलती है यदि इराक को देखें तो) । अपने आधार स्वरूप में सीरिया का संघर्ष देश के 70 प्रतिशत बहुसंख्यक अरब सुन्नी जनसंख्या को छिने अधिकारों और 12 प्रतिशत अलावी अल्पसंख्यकों को मिले अधिकारों में निहित है। इसके साथ ही इन्हें विदेशी इस्लामवादी कार्यकर्ताओं का सहयोग है साथ ही अनेक सुन्नी राज्य ( तुर्की, सउदी अरब , कतर) और इसके कारण असद शासन पतन की ओर है। असद अपने शासन के विरुद्ध इस बढते विद्रोह को दबा नहीं सकते, इसके बजाय जितना अधिक उनकी सेना लोगों की हत्या करेगी उतना ही बिखराव होगा और उनके शीर्ष अलावी गुट में ही उनका समर्थन सिमटता जायेगा।
तीसरा, असद शासन के पतन को अधिक तीव्र करने से भी जीवन बचाये नहीं जा सकेंगे। इससे संघर्ष का अंत नहीं होगा वरन केवल इसका आरम्भिक अध्याय बंद हो जायेगा जिसके उपरांत कहीं अधिक हिंसा का दौर आरम्भ होगा। सुन्नी अलावी लोगों से अपने पचास वर्षों के उत्पीडन का प्रतिशोध लेंगे और विद्रोहियों की विजय एक सम्भावित नरसंहार की सम्भावना को ही बढाती है। सीरिया का संघर्ष अधिक अतिवादी और हिंसक होगा कि पश्चिम के लोग दोनों ही पक्षों से दूरी बनाने में ही प्रसन्न होंगे।
चौथा, सीरिया में चल रहा संघर्ष पश्चिम के लिये लाभदायक है। अनेक सुन्नी सरकारों ने देखा है कि ओबामा प्रशासन इस मामले में कुछ अधिक नहीं कर रहा है तो उन्होंने सीरिया को ईरान के खेमे से निकालने के लिये स्वयं दायित्व लिया और यह स्वागतयोग्य कदम है कि दशकों तक शिया शासन को आत्मसात करने के उपरांत उन्होंने ऐसा किया। साथ ही सुन्नी इस्लामवादी शिया इस्लामवादियों से लड रहे हैं तो दोनों ही पक्ष कमजोर हो रहे हैं और उनकी घातक प्रतिद्वंदिता उनकी क्षमता को कम कर रही है कि वे बाहरी विश्व को परेशान कर सके ।अनेक असंतुष्ट अल्पसंख्यकों को प्रेरित करके ( ईरान में सुन्नी, तुर्कीमें शिया और कुर्द) सीरिया में लगातार चलने वाली लडाई इस्लामवादी सरकारों को भी कमजोर करेगी।
जब शासन का पतन होगा तो अलावी नेतृत्व वह असद के साथ या उनके बिना सीरिया के उत्तर पश्चिमी लटाकिया प्रांत में चला जायेगा : ईरान इन्हें समुद्र के रास्ते धन और अस्त्र उपलब्ध करा सकताहै और अगले चार वर्षों तक इसे नियंत्रण स्थापित रखने देगा ताकि सुन्नी और शिया इस्लामवादियों के मध्य संघर्ष जारी रहे और फिर उन्हें अन्य स्थानों पर आक्रमण की ओर मोड देगा।
हस्तक्षेप न करने की नीति का एक अपवाद है कि सीरिया के विशाल रासायनिक हथियारों की सुरक्षा ताकि इसे आतंकवादी गुटों को प्राप्त करने से रोका जाये साथ हे असद को अन्य किसी स्थान पर इसे तैनात करने से रोकने के लिये यद्यपि यह कठिन मिशन है परन्तु इसके लिये 60,000 विदेशी थल सैनिक सीरिया में तैनात करने होंगे।
पश्चिम के संविधान में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि सभी विदेशी संघर्ष में उन्हें शामिल होना चाहिये इसे समाप्त होने को देखना भी चतुर कदम होगा। आने वाली भयानक परिस्थितियों के प्रति उत्तरदायी न होकर इसका नैतिक लाभ तो होगा ही साथ ही पश्चिम इससे अलग रहकर सीरिया में अपने वास्तविक मित्रों इस देश के उदारवादियों की सही मायने में सहायता करेगा।
जबकि सीरिया का गृहयुद्ध तीव्र हो चुका है तो पश्चिमी राज्य धीरे धीरे विद्रोहियों को असद और उनके सहयोगियों को सत्ता से उखाडने के लिये सहयोग कर रहे हैं। ऐसा करते हुए पश्चिम को आशा है कि वह लोगों के जीवन बचा सकता है और लोकतांत्रिक संक्रमण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अनेक पश्चिमी आवाजें केवल गैर घातक सहायता तक ही सीमित नहीं हैं और वे विद्रोहियों को शस्त्र भी उपलब्ध कराना चाहते हैं , सुरक्षित क्षेत्र स्थापित करना चाहते हैं और यहाँ तक कि सरकार के विरुद्ध उनके युद्ध में भी शामिल होना चाहते हैं।
हालाँकि विद्रोहियों को सहायता प्रदान करने से एक मूलभूत प्रश्न की अवहेलना होती है: क्या सीरिया में असद के विरुद्ध हस्तक्षेप करने से हमारे हित सधते हैं? यह सीधा सा प्रश्न इसलिये छूट जाता है क्योंकि अनेक पश्चिमी अपने अच्छे होने को लेकर इतना अधिक आत्मविश्वास अनुभव करते हैं कि अपनी सुरक्षा के प्रति ध्यान देने के स्थान पर उन पर अधिक ध्यान देते हैं जो कि उनकी कल्पना में कमजोर और शोषित हैं चाहे वे मानव हों ( आदिवासी हों या फिर गरीब), या फिर पशु हों ( व्हेल या अन्य समुद्रीजीव) । पश्चिम के लोगों ने इन चिंताओं पर कार्य करने के लिये अत्यंत सटीक कार्ययोजना विकसित कर ली है( पशु अधिकार कार्यकर्त्तत्व का दायित्व)
हम लोगों में से जिनको अधिक आत्मविश्वास नहीं है वे अब भी सुरक्षा और सभ्यता के खतरे को पहली प्राथमिकता मानकर चल रहे हैं। इस प्रकाश में विद्रोहियों को सहायता उपलब्ध कराने के पश्चिम के लिये कुछ नुकसान हैं।
पहला, विद्रोही इस्लामवादी हैं और एक ऐसी विचारधारागत सरकार का निर्माण करना चाहते हैं जो कि पश्चिम के प्रति असद से अधिक शत्रुता वाली होगी। तेहरान से अपने सम्पर्क तोडने के उपरांत भी इसके द्वारा इस्लामवाद की बर्बर सुन्नी शक्ति को आगे बढाने से यह संतुलन वैसे ही बना रहता है।
दूसरा यह तर्क कि पश्चिमी हस्तक्षेप से विद्रोहियों की सामग्री के प्रति सुन्नी देशों के प्रति निर्भरता कम होने से उनका इस्लामवादी स्वरूप कम हो सकेगा एक निहायत ही हास्यास्पद तर्क है। सीरिया के विद्रोहियों को शासन गिराने के लिये पश्चिम की सहायता की आवश्यकता नहीं है ( और वे इसके लिये कृतज्ञ भी नहीं होंगे यदि उन्हें सहायता मिलती है यदि इराक को देखें तो) । अपने आधार स्वरूप में सीरिया का संघर्ष देश के 70 प्रतिशत बहुसंख्यक अरब सुन्नी जनसंख्या को छिने अधिकारों और 12 प्रतिशत अलावी अल्पसंख्यकों को मिले अधिकारों में निहित है। इसके साथ ही इन्हें विदेशी इस्लामवादी कार्यकर्ताओं का सहयोग है साथ ही अनेक सुन्नी राज्य ( तुर्की, सउदी अरब , कतर) और इसके कारण असद शासन पतन की ओर है। असद अपने शासन के विरुद्ध इस बढते विद्रोह को दबा नहीं सकते, इसके बजाय जितना अधिक उनकी सेना लोगों की हत्या करेगी उतना ही बिखराव होगा और उनके शीर्ष अलावी गुट में ही उनका समर्थन सिमटता जायेगा।
तीसरा, असद शासन के पतन को अधिक तीव्र करने से भी जीवन बचाये नहीं जा सकेंगे। इससे संघर्ष का अंत नहीं होगा वरन केवल इसका आरम्भिक अध्याय बंद हो जायेगा जिसके उपरांत कहीं अधिक हिंसा का दौर आरम्भ होगा। सुन्नी अलावी लोगों से अपने पचास वर्षों के उत्पीडन का प्रतिशोध लेंगे और विद्रोहियों की विजय एक सम्भावित नरसंहार की सम्भावना को ही बढाती है। सीरिया का संघर्ष अधिक अतिवादी और हिंसक होगा कि पश्चिम के लोग दोनों ही पक्षों से दूरी बनाने में ही प्रसन्न होंगे।
चौथा, सीरिया में चल रहा संघर्ष पश्चिम के लिये लाभदायक है। अनेक सुन्नी सरकारों ने देखा है कि ओबामा प्रशासन इस मामले में कुछ अधिक नहीं कर रहा है तो उन्होंने सीरिया को ईरान के खेमे से निकालने के लिये स्वयं दायित्व लिया और यह स्वागतयोग्य कदम है कि दशकों तक शिया शासन को आत्मसात करने के उपरांत उन्होंने ऐसा किया। साथ ही सुन्नी इस्लामवादी शिया इस्लामवादियों से लड रहे हैं तो दोनों ही पक्ष कमजोर हो रहे हैं और उनकी घातक प्रतिद्वंदिता उनकी क्षमता को कम कर रही है कि वे बाहरी विश्व को परेशान कर सके ।अनेक असंतुष्ट अल्पसंख्यकों को प्रेरित करके ( ईरान में सुन्नी, तुर्कीमें शिया और कुर्द) सीरिया में लगातार चलने वाली लडाई इस्लामवादी सरकारों को भी कमजोर करेगी।
जब शासन का पतन होगा तो अलावी नेतृत्व वह असद के साथ या उनके बिना सीरिया के उत्तर पश्चिमी लटाकिया प्रांत में चला जायेगा : ईरान इन्हें समुद्र के रास्ते धन और अस्त्र उपलब्ध करा सकताहै और अगले चार वर्षों तक इसे नियंत्रण स्थापित रखने देगा ताकि सुन्नी और शिया इस्लामवादियों के मध्य संघर्ष जारी रहे और फिर उन्हें अन्य स्थानों पर आक्रमण की ओर मोड देगा।
हस्तक्षेप न करने की नीति का एक अपवाद है कि सीरिया के विशाल रासायनिक हथियारों की सुरक्षा ताकि इसे आतंकवादी गुटों को प्राप्त करने से रोका जाये साथ हे असद को अन्य किसी स्थान पर इसे तैनात करने से रोकने के लिये यद्यपि यह कठिन मिशन है परन्तु इसके लिये 60,000 विदेशी थल सैनिक सीरिया में तैनात करने होंगे।
पश्चिम के संविधान में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि सभी विदेशी संघर्ष में उन्हें शामिल होना चाहिये इसे समाप्त होने को देखना भी चतुर कदम होगा। आने वाली भयानक परिस्थितियों के प्रति उत्तरदायी न होकर इसका नैतिक लाभ तो होगा ही साथ ही पश्चिम इससे अलग रहकर सीरिया में अपने वास्तविक मित्रों इस देश के उदारवादियों की सही मायने में सहायता करेगा।
द्वारा डैनियल पाइप्स द वाशिंगटन टाइम्स 21 अगस्त, 2012 मौलिक अंग्रेजी सामग्री: Wait Out the War in Syria
हिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी
लोकतन्त्र की चाह कहीं एक और पाकिस्तान न बना दे..
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