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27 अप्रैल 2007

दौर
ये रातों में सूरज के निकलने का दौर हैआस्तीनों में साँपों के पलने का दौर है।।
बेपर्दगी, नुमाइशें और बेशर्म निगाहेंहर दौर से बदतर है, संभलने का दौर है।
तारीफ़ सामने मेरी, फिर ज़हर से बयान,सबको पता है जीभ, फिसलने का दौर है।
हम भी हो नामचीन, सबसे मिले सलाम,ओहदों से पदवियों से, जुड़ने का दौर है।
हर राह कंटीली है, हर साँस है घायल,अपनी ज़मीन छोड़ के, चलने का दौर है।
इस दौर में किस-किस की शिकायत करें 'मुकुल', ये दौर तो बस खुद को, बदलने का दौर है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर लिखा है दोस्त...
    क्या आप नारद या ब्लोग वाणी पर रजिस्टर हैं.. अगर नही तो अपने ब्लोग को रजिस्टर करें और अधिक पाठकों तक पहुंचे

    जवाब देंहटाएं

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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