8 दिस॰ 2007

प्रिय तुमने जबसे मेरी आस्तीन छोड़ी


प्रिय तुमने जबसे मेरी आस्तीन छोड़ी तबसे मुझे अकेलापन खाए जा रहा है । तुम क्या जानो तुम्हारे बिना मुझे ये अकेला पन कितना सालता है । हर कोई ऐरा-गैरा केंचुआ भी डरा देता है।
भैये.....साफ-साफ सुन लो- "दुनियाँ में तुम से बड़े वाले हैं खुले आम घूम रहें हैं तुम्हारा तो विष वमन का एक अनुशासन है इनका....?"
इनका इनका कोई अनुशासन है ही नहीं ,यार शहर में गाँव में गली में कूचों में जितना भी विष फैला है , धर्म-स्थल पे , कार्य स्थल पे , और-तो-और सीमा पार से ये बड़े वाले लगातार विष उगलतें हैं....मित्र मैं इसी लिए केवल तुमसे संबंध बनाए रखना चाहता हूँ तुम मेरी आस्तीन छोड़ के अब कहीं न जाना भाई.... ।
जीवन भर तुम्हारे साथ रह कर कम से कम मुझे इन सपोलों को प्रतिकारात्मक फुंकारने का अभ्यास तो हों ही गया है।
भाई मुझे छोड़ के कहीं बाहर मत जाना । तुम्हें मेरे अलावा कोई नहीं बचा सकता मेरी आस्तीनों के कईयों को महफूज़ रखा है। बाहर तो तुम्हारे विष को डालर में बदलने के लिए लोग तैयार खड़े हैं जी । सूना है तुम्हारे विष की कीमत है । तुम्हारी खाल भी उतार लेंगें ये लोग , देखो न हथियार लिए लोग तुम्हारी हत्या करने घूम हैं ।नाग राज़ जी अब तो समझ जाओ । मैं और तुम मिल कर एक क्रांति सूत्र पात करेंगें । मेरी आस्तीन छोड़ के मत जाओ मेरे भाई।

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!