3 दिस॰ 2008

बुआ वाला भोपाल

कला बुआ वाला भोपाल
मामाजी वाला भोपाल
मेरा नही हम सबका भोपाल
जिसे निगला था मिथाइल आइसो सायानाईट के
धुंएँ ने जो
समा गया था देहों में उन देहों में
जो निष्प्राण हो गयीं
जो बचीं वे ज़र्ज़र आज भी कांपते हुए जी रहीं हैं
उनमे मेरी कला बुआ जो देह में बैठे प्राण को आत्म-साहस के साथ
सम्हाले रखीं हैं ,
बुआ रोज जीतीं हैं एक नई जिंदगी
उन लोगों को याद भी करतीं हैं
शाह्ज़हानाबाद की आम वाली मस्जिद में उनके आसपास रहने वाली आशा बुआ, अब्दुल चाचा,
जोजफ सतबीर
यानी वो सब जिनकी अलग अलग इबादतगाहें

2 टिप्‍पणियां:

  1. कविता प्रभावशाली है ।
    भोपाल गैस काण्ड पर इन कविताओं को भी देखिएगा।लगे तो राय दीजिएगा।

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  2. प्रिय गिरीश जी /आज के भास्कर के रसरंग में राजेश जोशी जी का आलेख ""पहल "पत्रिका वाबत प्रकाशित हुआ है एवं श्री ज्ञानरंजन दी द्वारा पूर्व में कलकत्ता में दिए गए भाषाण का अंश भी प्रकाशित हुआ है

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!