10 नव॰ 2009

तेवरी : मार हथौडा, तोड़ो मूरत. --संजीव 'सलिल'

मार हथौडा, तोड़ो मूरत.
बदलेगी तब ही यह सूरत..

जिसे रहनुमा माना हमने
करी देश की उसने दुर्गत..

आरक्षित हैं कौए-बगुले
कोयल-राजहंस हैं रुखसत..

तिया सती पर हम रसिया हों.
मन पाले क्यों कुत्सित चाहत?.

खो शहरों की चकाचौंध में
किया गाँव का बेड़ा गारत..

क्षणजीवी सुख मोह रहा है.
रुचे न शाश्वत-दिव्य विरासत..

चलभाषों की चलाचली है.
'सलिल' न कासिद और नहीं ख़त..

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5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना..आचार्य जी को बधाई...आपका आभार.

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  2. संजीव जी
    अति सुन्दर
    अधि सूचना जारी हो चुकी
    है अब ब्लॉग बार कम ही आना होगा
    आप भी व्यस्त हो जाओगे जी
    फिर भी जारी रहे ब्रिगेड के काम
    सादर

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  3. मुकुल जी!
    घोषित हुए चुनाव अब अधिक हुए दायित्व.
    फिर भी कोशिश जाल पर निभा सकें कुछ स्वत्व.
    शब्द ब्रम्ह आराधना ही श्वासों का ध्येय.
    क्षर को लें जान हम रह न सके अज्ञेय.

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!