7 मार्च 2010

नवगीत : चूहा झाँक रहा हंडी में... --संजीव 'सलिल'

नवगीत :

चूहा झाँक रहा हंडी में...

संजीव 'सलिल'
*
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली-खाली?
मोती तोंदों के महलों में-
क्यों बसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में सदा बताशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
भरी तिजोरी फिर भी भूखे
वैभवशाली आश्रमवाल.
मुँह में राम बगल में छूरी
धवल वसन, अंतर्मन काले.
करा रहा या 'सलिल' कर रहा
ऊपरवाला मुफ्त तमाशा?
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
अँधियारे से सूरज उगता,
सूरज दे जाता अँधियारा.
गीत बुन रहे हैं सन्नाटा,
सन्नाटा निज स्वर में गाता.
ऊँच-नीच में पलता नाता
तोल तराजू तोला-माशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

3 टिप्‍पणियां:

  1. भरी तिजोरी फिर भी भूखे
    वैभवशाली आश्रमवाल.
    मुँह में राम बगल में छूरी
    धवल वसन, अंतर्मन काले.
    करा रहा या 'सलिल' कर रहा
    ऊपरवाला मुफ्त तमाशा?
    चूहा झाँक रहा हंडी में,
    लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
    वाह बहुत अच्छा गीत है। शुभकामनायें

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!