संजीव वर्मा 'सलिल'
हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं. दीनिक जीवन में व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं ली जा सकती पर वह अशीत्या, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है. हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा. तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है.
चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे. के उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रमाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हां' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है. शायद अकम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इनदोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ धरती से संपर्क कर सकें. अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है. यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है.
भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है. विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है. हर वर्ष कई विद्यालयों और कुछ विश्व विद्यालयों में हिंदी विभाग खुल रहे हैं. हिन्दी निरंतर विकसित हो रहे है जबकि उर्दू समेत अन्य अनेक भाषाएँ और बोलियाँ मरने की कगार पर हैं. इस सत्य को पचा न पानेवाले अपनी मातृभाषा हिन्दी के स्थान पर राजस्थानी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देली या बघेली लिखाकर अपनी बोली को राष्ट्र भाषा या विश्व भाषा तो नहीं बना सकते पर हिंदी भाषियों की संख्या कुछ कम जरूर दर्ज करा सकते हैं. इससे भी हिन्दी का कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है. आगत की आहत को पहचाननेवाला सहज ही समझ सकता है कि हिंदी ही भावी विश्व भाषा है. आज की आवश्यकता हिंदी को इस भूमिका के लिये तैयार करने के लिये शब्द निर्माण, शब्द ग्रहण, शब्द अर्थ का निर्धारण, अनुवाद कार्य तथा मौलिक सृजन करते रहना है जिसे विश्व विद्यालयों की तुलना में अधिक प्रभावी तरीके से चिट्ठाकर कर रहे हैं.
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम/ सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
भारी भरकम
जवाब देंहटाएंकिन्तु ज्ञानदाई पोस्ट आचार्य जी
प्राथमिकता अपनी भाषा के सरल शब्दों को देना चाहिये। यह भी सोचना व्यावहारिक नहीं है कि शुरू से ही १००% हिन्दी चले। हमारी न्निति यह हो कि हम अपनी भाषा के शब्द प्रयोग करेंगे किन्तु आवश्यक होने पर विदेशी भाषा के शब्द प्रयोग कर लेंगें। किन्तु दीर्घावधि (दस वर्ष से लेकर सौ वर्ष) में हम अन्तत: अपनी भाषा के शतप्रतिशत शब्दों को प्रचलित करके मानेगे। जब हम अपनी भाषा के कहते हैं तो पाँच-छ: प्रतिशत ऐसे भी शब्द हैं जिन्हें अन्तराष्ट्रीय समुदाय ज्यों का त्यों प्रयोग करता है - हम भी वैसा ही करेंगे।
जवाब देंहटाएंआचार्य जी की सार्थक व लोकचेतोपयोगी पोस्ट, इस प्रकार की रचना और सोच ही हमें आगे ले जायेगी।
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