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28 सित॰ 2010

राष्ट्रमंडल खेल : इस गुलामी के प्रतीक को कब तक ढोना होगा और ?

http://www.vicharmimansa.com/wp-content/uploads/2010/08/commonwealth_games.pnghttp://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/7/73/Elizabeth_II_greets_NASA_GSFC_employees%2C_May_8%2C_2007.jpgकोई भी राष्ट्र अपनी अस्मिता और संप्रभुता के संदर्भ में कोई समझौता करे राष्ट्र को शोभा नहीं देता.  इसी क्रम में सबसे पहले आपसे इस विनती के साथ अपने विचार रखूंगा कि न तो मुझे किसी किसी विचारधारा से जुड़ा मानिये और न ही मुझे खेलों का दुश्मन ही समझिये वास्तव में मैं ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रतीक इस कामन वेल्थ खेल परम्परा के तत्कालीन स्वरूप को लेकर दु:खी तब हुआ जब हमें यह ज़ताने की ज़रूरत हुई कि ”महामहिंम  साम्राज्ञी''  आपके प्रतिनिधि नही हमारी महामहिम राष्ट्रपति महोदया राष्ट्रमंडल खेलों का उदघाटन करेंगी . इसे स्वतन्त्र भारत की मज़बूरी के अलावा और क्या कहा जावे...? हमारे स्वतन्त्र होने की  परिभाषा में हम कह सकते हैं कि भारत एक संप्रभुता सम्पन्न गणराज्य है जहा तत्कालीन औपनिवेशवाद के प्रतीकों को ढोना ज़रूरी है. उन प्रतीकों में एक अंग्रेज़ी, दूसरा क्रिकेट, तीसरा राष्ट्रकुल और राष्ट्रकुल खेल ....!!आखिर क्यों हमको ये गुलामी के प्रतीक ढोने होंगे कब तक ढोने होंगे, क्या राष्ट्रकुल खेल अंतर्राष्ट्रीय खेल परम्पराओं के अनुरूप नहीं हो सकते.  यदि नहीं तो भारत में  बन्किंघम पैलेस की शर्तों पर  आयोजित करने में भारत का रुतबा कितना रुतबा बढ़ता है...? वास्तव में इन प्रतीकों को हूबहू स्वीकारना उचित कतई नहीं है.भारतीय संस्कृति के संदर्भ में देखा जाए तो इस पश्चिमी ढांचे के खेल महोत्सव के स्वरूप को हूबहू स्वीकारना ग़ुलामी के प्रतीक को ढोना नहीं तो और क्या है .वैसे एशियन गेम्स, औलोम्पिक, दक्षेस, खेल महाकुम्भ वास्तव में स्वीकार्य योग्य हैं किंतु यह खेल महाकुम्भ अपने पुराने स्वरूपों के अनुसार ही आयोजित होता है तो स्वीकर्य नहीं..होना चाहिये. .सैकड़ों जुबानें कलमें इस तथ्य को मानने को राजी नहीं हैं. परंतु जो इतिहास जानता है उसे यह क़दापि स्वीकार्य नहीं कि "राष्ट्रमंडल खेल  गुलामी के प्रतीक नहीं "


11 टिप्‍पणियां:

  1. लेख को पढ़कर अच्छा लगा ........

    जाने काशी के बारे में और अपने विचार दे :-
    काशी - हिन्दू तीर्थ या गहरी आस्था....

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  2. कितने प्रतीकों को हटाना बाकी हैं, अभी तो हर हिन्दुस्तानी के घर, अतीत और शरीर में बरतानिया निशान बाकी हैं, सरकार और उसके मिजाज में भी!

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  3. जन गण मन अधिनायक जय हो, भारत भाग्‍य विधाता। कौन है हमारा भाग्‍य विधाता? किस अधिनायक की जय हो? हम कल भी गुलाम थे और आज भी हैं।

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  4. प्रतीक तो अपने आप हट जायंगे आप दिल से भारतीय बन के देखिये ऊपर ऊपर से नहीं चलेगा भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के दोहरे चलन के कारण क्या गति - प्रगति है आप देख सकते हैं

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  5. आपने सही कहा..गुलाम तो हम अभी भी हैं ही...चाहे ही छद्म रूप से सही... अंग्रेजी के बिना हमारी गति नहीं है...क्रिकेट के अलावा कुछ और सूझता नहीं है...क़ानून भी ढो रहे हैं तो वो भी अंग्रेजों के ज़माने के...संविधान है तो वो भी दूसरे देशों की नकल मात्र..
    विचारणीय आलेख

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  6. हम अपनी वेल्थ ऐसे ही निर्धारित करते हैं।

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  7. जब तक देश मै अग्रेजी बोलने वाले साहब कहलायेगे तब तक, हम आज भी दिमागी तॊर पर गुलाम है , वेसे भी गुलामी की आदते पीढी दर पीढी रहती है, अगर आजाद बनाना है तो सब तरफ़ हिन्दी ओर स्थानिया भाषा ही नजर आये, कोई भी सडक अग्रेजो के नाम से, कोई भी इमारत इब फ़िरंगियो के नाम से ना बने, ना उस की उस की पहचान इन के नाम से हो, बहुत कठिन है यह काम, इस लिये गुलाम ही रहे अच्छा है

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  8. बहुत बढ़िया और विचारणीय लेख रहा! अच्छा लगा पढ़कर!

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

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