17 अक्तू॰ 2010

हिजड़ों पर हंसना, लंगड़े को लंगड़ा कहना औरत को सामग्री करार देना सांस्कृतिक अपराध ही तो है


https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiQMeXPbV9CosMv5AdHDCKhpgYmiGq48cIykwjxAbHpSp-6opQmHVJ1PG-WhvOrZd91TQxvhoL7214s4bc9p4xvzRlRECUzCsAr8HfpWfxnLvtuHor3jHBfuuRMhJYSek3c5jhcDr7CBVV1/s1600/1175483985.jpghttp://hindi.cri.cn/mmsource/images/2006/04/07/lunyi4.jpghttp://www.bbc.co.uk/hindi/images/pics/eunuch150.jpg                जो दु:खी है उसे पीड़ा देना सांस्कृतिक अपराध नहीं तो और क्या है. नारी के बारे में आम आदमी की सोच बदलने की कोशिशों  हर स्थिति में हताश करना ही होगा. क़ानून, सरकार, व्यवस्था इस समस्या से निज़ात दिलाए यह अपेक्षा हमारी सामाजिक एवम सांस्कृतिक विपन्नता के अलावा कुछ नहीं. आराधना चतुर्वेदी "मुक्ति" ने अपने आलेख में इस समस्या को कई कोणों से समझने और समझाने की सफ़ल कोशिश की है. मुक्ति अपने आलेख में बतातीं हैं कि हर स्तर पर नारी के प्रति रवैया असहज है. आर्थिक और भौगोलिक दृष्टि से भी देखा जाए तो नारी की स्थिति में कोई खास सहज और सामान्य बात नज़र नहीं आती. मैं सहमत हूं कि सिर्फ़ नारी की देह पर आकर टिक जाती है बहसें जबकी नारी वादियों को नारी की सम्पूर्ण स्थिति का चिंतन करना ज़रूरी है. परन्तु सामाजिक कमज़ोरी ये है कि हिजड़ों पर हंसना, लंगड़े को लंगड़ा कहना औरत को सामग्री करार दिया जाना हमारी चेतना में बस गया है  जो सबसे बड़ा सामाजिक एवम सांस्कृतिक अपराध  है .मुझे मालूम है कि आप सभी जानते हैं कि  अपाहिजों,हिज़ड़ों को हर बार अपने को साबित करना होता है. अगर इस वर्ग को देखा जाता है तो तुरंत मन में संदेह का भाव जन्म ले लेता है कि "अरे..! इससे ये काम कैसे सम्भव होगा.....?" सारे विश्व में औरत की दशा कमो बेश यही तो है. सब अष्टावक्र रूज़वेल्ट को नहीं जानते, सबने मैत्रेयी गार्गी को समझने की कोशिश कहां की. यानी कुल मिला कर सामाजिक सांस्कृतिक अज्ञानता और इससे विकास को कैसे दिशा मिलेगी चिंतन का विषय है.
(चित्र साभार : लखनऊ ब्लागर एसोसिएशन ,CRI एवम BBC  से )

11 टिप्‍पणियां:

  1. Mujhe aapke dersaye chitra aur line dono. bahut pasaand aaye . Dhanyawaad .

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  2. किसी की अल्पता को मजाक बना देना .. किसी भी स्थिति में उचित नहीं है.
    आवश्यक मुद्दा

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  3. सहमत हूँ ! इस नकारात्मकता से बचना चाहिए !!!

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  4. आपसे सहमत हैं, किसी की हँसी नहीं उड़ानी चाहिये।

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  5. एक बडे मुद्दे को दिशा देती हुई पोस्ट । आभार

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  6. गिरीश जी, कुछ दिनों से नेट से दूर रही, इसलिए देख नहीं पायी. आपने मेरी पोस्ट का सन्दर्भ देते हुए समाज के वंचित वर्गों के प्रति जो संवेदनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूँ.

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  7. मुक्ति जी यही सब ज़्यादा ज़रूरी था सो लिख दिया

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!