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17 फ़र॰ 2011

मुक्तिका: तोड़ दिया दर्पण ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

तोड़ दिया दर्पण

संजीव 'सलिल'
*

शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
मुझको तो ये मुल्क चाट का ठेला लगता है.

खबर चटपटी अख़बारों में रोज छप रही है.
सत्य खोजना सचमुच बहुत झमेला लगता है..

नेता-अफसर-न्यायमूर्ति पर्याय रिश्वतों के.
संसद का हर सत्र यहाँ अलबेला लगता है..

रीति-नीति सरकारों की बिन रीढ़, पिलपिली है.
गटपट का दौना जैसे पँचमेला लगता है..

साया-माया साथ न दे पर साथ निभाते हैं.
भीड़ बहुत, मुश्किल में देश अकेला लगता है..

ज्वर क्रिकेट का चढ़ा सभी को, लाइलाज है मर्ज़.
घूँटी में किरकिट ही खाया-खेला लगता है..

'सलिल'शक्ल बदसूरत देखी, तोड़ दिया दर्पण. 
शंकर भी कंकर माटी का डेला लगता है.

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

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