2 अक्तू॰ 2011

मनीष शर्मा ने क्या कहा था ऐसा कि उनके व्याख्यान को छात्राओं एवम प्राद्यापिकाऒं ने नि:शब्द होकर सुना..?



 एक सवाल कि मनीष शर्मा ने क्या कहा था ऐसा कि उनके व्याख्यान को हवाबाग कन्या महाविद्यालय में छात्राओं एवम प्राद्यापिकाऒं ने नि:शब्द होकर सुना..? सवाल ज़ायज था अली सैयद साहब का जो गूगल+ के ज़रिये उठाया ..
मेरी दृष्टि में  मनीष जी ने खास कुछ ऐसा न कहा था कि लोग नि:शब्द होकर सुने फ़िर एकाएक ढेरों सारे सवाल सामने रख दें..!  दरअसल मनीष भाई एक अधिकारी ही नहीं प्रतिभाशाली अधिकारी हैं जो बेवज़ह बातों से परहेज करते हुए साफ़-सुथरे तरीके से विषय पर केंद्रित रहते हैं. मुझे मालूम था कि मैं क़ानून का छात्र रहा हूं और सरकारी तौर पर क़ानूनी कार्यों में मेरी संलग्नता 18 वर्ष पुरानी है जबकि मनीष बहुत बाद  मेरे सहयोगी बने..पर साफ़गोई से कह सकता हूं मनीष मुझसे उन्नीस कतई नहीं बीस ही हैं.अदालती मसलों के संदर्भ में. उनके पास कोई दिखावा नहीं सरलता उनके व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है. अस्तु मैने "घरेलू-हिंसा" के आख्यान के लिये अपने एक मित्र के अलावा विकल्प के तौर पर मनीष को आमंत्रित किया  मुख्य आमंत्रित मित्र आदतन आमंत्रण से किसी कार्य के आने का बहाना कर किनारे हो गए और वैकल्पिक व्यवस्था यानी मनीष ने (जिन पर भरोसा था) बड़ी सहजता से अपने वक्तव्य में कहा-"नारी, के प्रति की गई हिंसा बेशक एक अपराध है किंतु मध्य-प्रदेश ,में इस से महिलाओं को बचाने के लिये ऊषा-किरण योजना के ज़रिये डोमेस्टिक-वायलेंस एक्ट का क्रियान्वयन किया जा रहा है. " 

महिलाओं के विरुद्ध हिंसाओं की व्याख्या करते हुए मनीष जी  ’घरेलू-हिंस” के हर उस बिंदु पर प्रकाश डाला जिसे सदन में उपस्थित समुदाय अपरिचित था. यानी जन-जाग्रति का अभाव मुझे स्पष्ट रूप से नज़र आ रहा था.
एक सवाल के उत्तर में उन्हौने  बताया कि ”पुलिस  और कानूनी उलझनों  से बचना चाहता है आम आदमी फ़िर भारतीय महिलाएं जो अपेक्षाकृत अधिक सहन शील होती हैं पारिवारिक बिखराव को किसी भी तरीके से रोके रखना पसंद करतीं हैं क़ानून में भी इस  
 बात का विशेष ख्याल रखा गया है कि पारिवारिक मसले सहज सुलझ जाएं. उनका अनुभव आधारित वक्तव्य ये था कि "महिलाएं सदैव समन्वय चाहतीं हैं समझौता चाहतीं हैं, क़ानून में भी  बुनियादी तौर पर काउंसलिंग को प्राथमिकता  है "

 बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो महिलाओं एवम छात्राओं को अपने आसपास की उन महिलाएं याद आने लगीं जिनकी वे मददगार बनना चाहतीं हैं.


 सवाल किये गए सहयोग की अपेक्षा 

 भी थी हमारे पास थे उत्तर और समाधान जो शायद वे तलाश रहीं थीं.. 
सुधि पाठको आज़ मैं केवल स्तनपान से जुड़ी भ्रांतियों पर लिखना चाहता था किंतु  अली सैयद साहब के सवाल का उत्तर देना ज़रूरी था सो लिख दिया  आप ब्लाग पर चिपके इन चित्रों में खोजिये सवालों के सही ज़वाब






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      या देखिये ये फ़िल्म छोटी सी 

4 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यंत महत्वपूर्ण प्रविष्टि ! आप और मनीष जी दोनों को साधुवाद ! शेष टिप्पणी गूगल प्लस पर !

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  2. उपयोगी विषय पर सार्थक प्रस्तुति।

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  3. प्रिय गिरीश जी ,
    मैं सवाल बिलकुल भी नहीं पूछता अगर बात "महिलाओं के निशब्द" बने रहने से जुडी हुई नहीं होती :)

    पूरी पोस्ट तन्मयता से पढ़ी ! महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि महिलायें स्वयं ही घरेलू हिंसा से जुड़ी कानूनी बारीकियों से अपरिचित थीं अतः मनीष जी ने इस अनछुए पक्ष को छूकर ही श्रोताओं को वशीभूत किया , अतः सवाल में निहित मेरी शंका का समाधान हुआ कि महिलायें निशब्द ( मौन ) कैसे हुईं ! मेरा ख्याल ये कि
    अच्छा वक्ता वही जो श्रोताओं की नब्ज़ पहचाने ! सो आश्वस्त हुआ ! आप दोनों को पुनः बहुत बधाई !

    आपने घरेलू हिंसा पर जो लिंक दिया था वो भी देख लिया है आलेख अच्छा लगा !

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!