29 जन॰ 2013

एक गज़ल का ज़न्म पेपर नेपकीन पर


मुद्दत हुई है साथ निवाला लिये हुए !
माँ साथ में बैठी है दुशाला लिये हुए.!!
वो दौर देर रात तलक़ गुफ़्तगूं का दौर
लौटी ये शाम यादों का हाला लिये हुए !!
आंखों में थमें अश्क़ अमानत उसी की है
है मांगती दुआ जो  माला लिये हुए ..!! 
जा माँ की गोद में, सर रख के सिसक ले -
क्यों अश्क़ गिराता है रिसाला लिए हुए !!
ज़िंदगी को मत बना , अखबार आज का-
आने लगा जो आज़कल, मसाला लिये हुए !!


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05 जनवरी 2013 की शाम हरीष भैया यानी बड़े भैया के प्रमोशन की पार्टी  शाम प्रो. परवीन हक़ के साथ बैठकर पुराने दिनों की बातें चल रही थी. कि मां यानी परवीन हक़ साहिबा ने कहा 
मुद्दत हुई है साथ निवाला लिये हुए    
  और फ़िर ग़ज़ल कलचुरी के पेपर नेपकिन पर लिखी गई.  हमने मिलकर हमारी गज़ल पूरी तो न हो सकी वज़ह थी गुड़िया आपा और ज़मील जीजू आ गये हमें दुलारने जीजू नें स्वीट डिश खिलाई बात निकली बहुत दूर तलक गई 
बहुत देर तक चली कहां से कहां पहुंची हम सब कहते सुनते हंसते हंसाते बतियाते रहे .   



1 टिप्पणी:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!