खण्ड-खण्ड बंट गया, "पंथ-रंग"-रंग गया
अखंड था कहा गया- कहो वो घर
किधर गया ?
सुलग रहे शहर शहर , खाक हो रहे हैं घर -
सियासती गुनाहों से , वतन मेरा बिखर गया .
सियासती गुनाहों से , वतन मेरा बिखर गया .
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आदतन ज़ुर्म की
बिखेरते किमाच हो
बोलते हो विष भरा,आदमी
कि सांप हो..?
राज़पथ पे सरपट “वोट-रथारूढ़ ” तुम-
मेरे फ़टे पे मत हंसो – पैबंद
खुद के ढांप लो..!!
यहां तो बालकाल में दांत शेर के
गिने –
वानरी हुंकार से – कनक-नगर
बिखर गया !!
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रण में जब कहा गया, रण में जो सुना गया-
युगों युगों तलक उसी की ज्योति पे
चला गया !
राम बिम्ब है नहीं कृष्ण को भरम न
कह –
परम पिता की राह में – मातु का आशीष संग
लिये बिना जो
गया –
जाने वो किधर गया ?
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!