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1 जन॰ 2023

बलूचिस्तान सिंधुदेश मुक्ति आंदोलन आतंकी तालिबान से संबंधित नहीं है : रेज़ा बलोच


(बलोच सिंधुदेश मुक्ति आंदोलन ने पाकिस्तान में इन दिनों जोर पकड़ा   है। परंतु वे किसी भी सूरत में आतंकी संगठनों की मदद से किसी भी प्रकार के स्वतंत्रता आंदोलन को अपनी सहमति नहीं देते। यह आलेख पाकिस्तान की अस्थिर आर्थिक राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को एक्टिविस्ट के कथनों पर आधारित है।)

    यह सच है कि बलूचिस्तान सिंधुदेश अपनी आजादी के लिए संघर्षरत है। परंतु वह किसी भी स्थिति में आतंक के रास्ते पर चलना नहीं चाहते बावजूद इसके कि उनके परिवार के हजारों युवक पाकिस्तानी सेना की भेंट चढ़ चुके हैं। मुक्ति संघर्ष में जितने भी लोगों को लापता किया है मुक्ति संघर्ष के आंदोलनकारी मानते हैं कि इसकी जिम्मेदारी पाकिस्तानी आर्मी आई एस आई जैसे महकमों की है। वह पाकिस्तान के संपूर्ण विकास के लिए भी पहले से संघर्षरत थे जिसमें देश के सामूहिक विकास के संदर्भ में काम किए जाएं। पाक द्वारा हटाए गए कश्मीर के लोग तो अब बेहद खफा हो गए हैं। वह आदमी से बेइंतेहा नाराजगी व्यक्त करते हैं। पाकिस्तान की माली हालत देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि पाकिस्तान अब किसी भी तरह के संघर्ष से मुक्ति पाने में सक्षम है। दक्षिण एशिया में socio-economic डेवलपमेंट जरूरी फैक्टर बन चुका है। एक और बलूचिस्तान अपनी भूगर्भीय संपत्ति के विदोहन के लिए चीन के प्रयासों को घटक मानता है तो दूसरी ओर सिंधु देश के लोगों का मानना है कि वह जो भी कमाते हैं वह पाकिस्तान के दूसरे इलाकों के लिए खर्च कर दिया जाता है। जबकि पाक द्वारा हटाए गए कश्मीर के मामले में वहां के लोग जब भारत से पहुंच रही खबरों को देखते हैं तो वह अपनी कौम की बेहतरी के लिए अपने क्षेत्र के विकास के लिए अधीर हो रहे हैं। भारत के कश्मीर में विकास की जो पटकथा लिखी जा रही है और जितना दृश्य नजर आ रहा है उसे देखते ही पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों के मन में एक तरह से अपने आप को ठगे जाने वाली भावना  तेजी से उभर रही है।
   दक्षिण एशिया के सभी देशों में अशांति का वातावरण निर्मित करने के लिए अधिकांश लोग चाइना के स्वार्थ को दोषी मानते हैं। बलूचिस्तान और पीओके के लोगों का कहना है कि-" हम अपने प्राकृतिक भूगर्भीय संसाधनों का उपयोग ना कर पाएंगे इसका लाभ चीन को मिलेगा ऐसी परियोजनाओं का सीधा सीधा असर पाकिस्तान की आर्थिक सामाजिक व्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है। वह अपनी राजनीतिज्ञ एवं नीति निर्धारण करने वालों के चिंतन को देखकर हतप्रभ होते हैं। उनका कहना है कि हम-" अकूत प्राकृतिक संसाधनों भूगर्भीय संपदाओं का विदोहन करने के लिए हम कि जैसे राष्ट्र के समक्ष आत्मसमर्पण कर रहे हैं।"
   1971 की घटना के बाद से यह साफ तौर पर स्पष्ट है कि-" पाकिस्तान का अर्थ केबल पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र तक सीमित रह गया है। अधिकांश लोगों का मानना है कि सारा रिवेन्यू कलेक्शन पंजाब सूबे पर खर्च किया जाता है।
   रेज़ा शाह का कहना है कि-" हम आजादी की जंग जरूर लड़ रहे हैं लेकिन हमें तालिबानी तरीकों से आजादी नहीं चाहिए न ही हम उनके प्रति किसी भी तरह की सहमति रखते हैं।"
   दक्षिण एशियाई देशों में म्यांमार संघर्ष में चीन का सबसे बड़ा योगदान रहा है। पाकिस्तान से बड़ा सर दर्द दक्षिण एशिया के लिए चाइना के अलावा और कोई राष्ट्र नहीं है। श्रीलंका की स्थिति जगजाहिर है कर्जे में दबे हुए यह राष्ट्र कुल मिलाकर भारत से सपोर्ट चाहते हैं परंतु उनकी अपनी क्या मजबूरियां है ? इस बात का अंदाज लगाया जाना जरा मुश्किल हो रहा है।
   सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे  वीडियो यह बताते हैं कि-" पाकिस्तानी युवा और अधिकांश प्रौढ़ आबादी भारत के विकास और पाकिस्तान के पिछड़ेपन के कारणों की पतासाजी करते हैं।
  शिक्षा चिकित्सा जीवन यापन के लिए अर्थव्यवस्था उत्पादन रोजगार पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या है। परंतु प्रो-आर्मी पाकिस्तानी प्रबंधन कुल मिलाकर इस संदर्भ में कितना सोच रहा है इसका अंदाज़ा आपको पाकिस्तान की स्थिति से लग  सकता है।
    इससे अलग भारत चाहता है कि-" दक्षिण एशिया में शांति और सामाजिक आर्थिक मजबूती स्थापित हो।"
   इस आर्टिकल के लिखे जाने के कुछ समय पूर्व पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिफ मीर मुनीर ने इस बात को स्वीकार लिया है कि-" पाकिस्तान एक जबरदस्त आर्थिक एवं आतंकी समस्याओं से सामना कर रहा है!"
   2022 के सप्ताहांत मुनीर  के इस बयान को लेकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ खासे परेशान और हैरान जरूर होंगे। इस बयान का सीधा-सीधा अर्थ है कि-" पाकिस्तान का प्रशासन जो सेना गौरव प्रबंधित है वह वास्तविकता के बिल्कुल करीब है।"
   सैयद मुनीर सभी पक्षों से इस मसले पर एक रणनीति तैयार करने के इच्छुक भी हैं। इतिहास गवाह है कि-" जहां भी राजव्यवस्था जनता के प्रति संवेदनशील नहीं होती है वह व्यवस्था चाहे वह मोनार्की हो , डेमोक्रेसी हो अथवा आर्टिफिशियल डेमोक्रेटिक सिस्टम (कम्युनिज़्म) छिन्न-भिन्न होते डेट नहीं होती। ऐसी ही परिस्थितियां भारत के इर्द-गिर्द के राष्ट्रों में अर्थात दक्षिण एशियाई देशों में नजर आ रही है।
  कुल मिलाकर राष्ट्र के प्रबंधन का मुख्य लक्ष्य जन कल्याणकारी कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू करना है। परंतु जिन राष्ट्रों में ऐसा नहीं किया जाता वे राष्ट्र कालांतर में बेहद कष्ट में होते हैं कई बार तो ऐसे राष्ट्रों का अस्तित्व ही खत्म हो जाता है। अगर उन्हें सुधारने का तरीका सीखना चाहिए तो वह जापान से सीखने की कोशिश कर सकते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान ने जिस तरह की वैश्विक दादागिरी की थी उसका परिणाम सबके सामने हिरोशिमा नागासाकी के रूप में आया यद्यपि यह मानवीय परिपेक्ष में बेहद शर्मनाक घटना है,  फिर भी राष्ट्रों को जनकल्याणकारी राष्ट्र बनने की तरफ अपने प्रयास निरंतर जारी रखनी चाहिए। आपको स्मरण ही होगा कि वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने खुले शब्दों में रसिया को यह बताते हुए पूरे विश्व को संदेश दिया कि-" यह समय युद्ध का नहीं है।"
   आज से कई वर्ष पूर्व ही भारत ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी और उस पर आज भी स्थिर है। भारत अच्छे आतंकवाद और बुरे आतंकवाद को भली प्रकार विश्लेषक कर चुका है। भारत का स्पष्ट मानना है कि टेररिज्म किसी भी सूरत में कल्याणकारी राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता। स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत राष्ट्रों के लोग अपने आंदोलन को आतंक से जोड़कर नहीं रखना चाहते जैसा बलोच और सिंधुदेश के एक्टिविस्ट स्पष्ट कर चुके हैं।
( लेखक के रूप में मैं दक्षिण एशियाई सामाजिक आर्थिक संदर्भ पर अपने आर्टिकल अपने ब्लॉग पर लिखत हूं। यह राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पॉलिटिकल उद्देश्य से नहीं लिखे जाते बल्कि दक्षिण भारतीय आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भों में लिखे गए हैं।)

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

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