“सांस्कृतिक भेदभाव से खंड खंड होता पाकिस्तान
बंटवारे के बाद भारत से पाकिस्तान गए लोग इन दिनों असमंजस एवम पछतावे की स्थिति में हैं। एक ओर उनकी परंपराएं और उनकी सांस्कृतिक पहचान विलुप्त हो गई है तो दूसरी ओर उनको पाकिस्तान जैसे अविकसित देश के नागरिक होने का दर्द है।
मुगल काल में और उसके बाद के अपनी सांस्कृतिक-पहचान आज भी उत्तर भारत की अपनी एक सांस्कृतिक विरासत है जिसको भारत ने साजों के रखा है. । जबकि बंटवारे के बाद जो लोग पाकिस्तान गए उन्होंने अपनी पहचान ही खो दी है।
अब न तो उनके साथ न तो उनकी अपनी प्राचीन सांस्कृतिक पहचान है , और अब न ही वे मानसिक रूप से अपने आप को 1947के पूर्व की भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं से पृथक कर पा रहे हैं।
पाकिस्तान के कुछ परिवार तो स्वयं को अरब से जुड़ा होना बताया जाता रहा है जो मुगल काल में स्थापित नई सामाजिक-व्यवस्था को त्यागने पर विचार करने लगें हैं।"
आप सभी जानते हैं लोगों की पूजा प्रणाली में परिस्थितिवश परिवर्तन हुआ था। ख़ास बात काबिले गौर है कि ऐसे लोगों के डी एन ए में सांस्कृतिक परंपराएं पूर्ववत भारतीय ही हैं।
अगर 1947 के बाद के पाकिस्तान की बदलती परिस्थितियों पर नजर डालें तो आपको पता चलेगा कि वह स्वयं सियासी एवं प्रशासनिक तौर पर अब भी अरब से जोड़ना पसंद करतें हैं।
यह समस्या पाकिस्तान के पंजाब सूबे के शहरियों में पहचान खोने की छटपटाहट आजकल सबसे ज्यादा देखने को मिलती है।
वैसे तो बलोचिस्तान गिलगित बालटिस्तान पीओके सिंध प्रांत सांस्कृतिक रूप से विविधताओं से भरे हुए हैं। उनकी अपनी सांस्कृतिक पहचान है।
इससे उलट भारतीय संस्कृति ने सभी संस्कृतियों का स्वागत किया। भारत में संतूर का ही उदाहरण लीजिए जो ईरान से आई और भारत में बस गई। समोसा भारतीय प्रोडक्ट नहीं है यह भी एक अरबी व्यंजन है। भारत ने जहां से जो अच्छा मिला उसे स्वीकार ही नहीं बल्कि उसे इससे आत्मसात भी किया है।
इससे उलट पाकिस्तान के हुक्मरान और पाकिस्तानी प्रशासन मेरी मुर्गी की ढेड़ टांग वाले सिद्धांत पर काम कर रहे हैं।
भारतीय सामाजिक विचारक अथवा socio-economic विशेषज्ञ सभी रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर भरोसा करते हैं यह सनातन रूप से सिद्ध है।
कुछ राष्ट्र ऐसे होते हैं जो रूढ़ीवादी व्यवस्था को अपनाते हैं, कालांतर में अपनी पहचान तक खो देते हैं। पाकिस्तान में भी यही कुछ हो रहा है। पाकिस्तानी जनता खास तौर पर पंजाब सूबे के लोग वहां के मूल निवासियों जैसे तो बलोचिस्तान गिलगित बालटिस्तान पीओके सिंध प्रांत कलस,हुंजा,पश्तो , पठान, के प्रति न तो अच्छा व्यवहार रखते हैं और न ही उन्हें सामान महत्व देते हैं। जैसा उनने बंगालियों के साथ किया था.
1971 के पूर्व पाकिस्तान का बंगला देश के रूप में अभ्युदय केवल इसी कारण से हुआ है।
क्या अब भी ऐसा कुछ होने जा रहा है?
जी हां अब भी कमोबेश वही स्थिति है। सिंधुदेश की मांग बलूचिस्तान की मांग पीओके तथा केपीके (खैबर पख्तूनख्वा) में पाकिस्तान विरोधी आंधियां रुकी नहीं है वरन तेज अवश्य हुई है..! इसका कारण है कि पाकिस्तान सामाजिक व्यवस्था में संस्कृतियों और परंपराओं को स्वीकार करने की मानसिकता नहीं है। पाकिस्तान में पाकिस्तान की मूल संस्कृतियों जैसे सनातन सिख बौद्ध सिंधी, बलोच, पश्तो,कलश, हुंजा तथा अन्य कबीलों को संस्कृति के आधार पर सांप्रदायिकता के ऐनक से देखा जाता है। उनके साथ भेदभाव की होता है । ऐसे में अलगाव की ये आंधियां पाकिस्तान के विखंडन के रास्ते खोल रहीं हैं । सीधे शब्दों में कहें तो ऐसी परिस्थियों में पाकिस्तान का विखंडन अब तय ही मानिए.
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!