जीवन भर प्रिवलेज़ के आदी हम लोग किस मार्गदर्शक मशाल की तलाश में हैं समझ में नहीं आ रहा किस दिशा में सोच रहे हैं और किस दिशा में जा रहें हैं. जिस दिन से देश आज़ाद हुआ है हम हमारे हक़ से ज़्यादा शायद ही कुछ सोच पा रहे हैं.....? क्यों आखिर क्यों हमें आने वाले समय का ख्याल नहीं होता बस आत्म-केन्द्रित सोच कुंठित वृत्ति इसके आगे भी कुछ सोचा-समझा है हमने तो आत्म-प्रसंशा के लिए . मेरे मातहत एक महिला कर्मचारी हैं उनकी राय थी की अमुक काम श्रम-साध्य है उसे हम महिलाओं को करना न तो शोभा देता और न ही उचित है. मुझे लगा कि महिला होकर विकास की गति में बाधा उत्पन्न करने के लिए यह महिला आमादा है तो क्यों न ऐसा पाठ पढ़ाया जाए उनको कि या तो वे सुधर कर जिस निमित्त वे नियुक्त हैं काम करें अथवा पे मुझसे पिंड छुडा लें. अस्तु उनको मैनें कार्य सौंपना लगभग बंद कर दिया. बस वेतन वाले दिन उनसे एक बात कही :-"मैडम जी, आपके एकांत में पैसा भेज दिया है किन्तु एक बात पूछनी थी आपसे ?"
स्वीकृति मिलने पर मैंने कहा:-"बड़े दिन का अवकाश आपने बिताया आनंद पूर्वक ?"
"सर,इस बार चार दिन तक अवकाश मिला खूब आनंद आया "
"जी मैडम,आनंद तब और अधिक आएगा जब प्रभू ईशु की इस बात सूक्ति करत आप समझ जाएंगीं..?"
"सर, ईशु की कौन सी सूक्ति...? "
"प्रभू,ने कहा कि काले हाथ किये बगैर (बिना मेहनत किये) रोटी खाना गुनाह है बगैर मेहनत के कमाई रोटी खाना पाप है !"
इस संवाद के बाद उन महोदया ने यथा संभव काम के लिए इनकार नहीं किया.
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स्वीकृति मिलने पर मैंने कहा:-"बड़े दिन का अवकाश आपने बिताया आनंद पूर्वक ?"
"सर,इस बार चार दिन तक अवकाश मिला खूब आनंद आया "
"जी मैडम,आनंद तब और अधिक आएगा जब प्रभू ईशु की इस बात सूक्ति करत आप समझ जाएंगीं..?"
"सर, ईशु की कौन सी सूक्ति...? "
"प्रभू,ने कहा कि काले हाथ किये बगैर (बिना मेहनत किये) रोटी खाना गुनाह है बगैर मेहनत के कमाई रोटी खाना पाप है !"
इस संवाद के बाद उन महोदया ने यथा संभव काम के लिए इनकार नहीं किया.
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आज का दौर वो दौर है जिस दौर में राजनैतिक दबाव में आकर मशीनरी को काम करना होता है नियमों को बलाए-ताक रखवाने में अग्रणी राज-नीतिज्ञों को अपने "शक्तिवान होने का दुरुपयोग न तो करना चाहिए और न हीं अपने इर्द-गिर्द स्वपन-दिखाने वाला आभा मंडल ही बनाना चाहिए " नियमों के अनुसार कार्य कराने और शास्त्री जी की तरह सादगी पूर्ण विचार वान देश का सच्चा सेवक होता है बाकी जो भी देश सेवक होने का दावा करतें हैं नाटकबाज़ नज़र आतें हैं दुनिया को.
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अखबार के प्रतिनिधि महोदय ने आकर कुछ माह पहले एक अधिकारी को धौंस पट्टी कर कोई कार्य कराना चाहा उस अधिकारी भी उनसे विनम्रता से आगामी दस दिवस का समय चाहा और नियत तिथि पर अधिकारी उनके वरिष्ठ मित्र को कार्यालय में आमंत्रित कर लिया था . अपने बॉस को कार्यालय में देख उस युवा ब्लैकमेलर पत्रकार के होश फाख्ता होना ही था सो हुए ...... अधिकारी भी कम न थे बस बीस साल पुरानी पत्रकारिता और पत्रकारिता विषय पर अपने सम्पादक मित्र से चर्चा करते रहे. पत्रकार होने का अन-ला-फुल प्रिवलेज़ शब्द का बार-बार उल्लेख हुआ,
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बहुत सही बातें सामने ला रहे हैं आप...पत्रकार होने का अन.ला. फुल प्रीविलेज बहुतों को लेते देखा है.
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