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16 मई 2011

छब्बीस घण्टे बीस मिनिट दिल्ली में part 01



“सम्मान के यश को दुगना करने की रीत निभाई जबलपुर के स्नेहीजनों नें   किस किस का आभार कहूं कैसे कहूं स्तब्ध हूं. जी कुछ लोग ऐसे भी होते हैं   जो दीवारें पोतने का काम करते हैं, उन पुताई करने वालों का भी आभारी हूं उनसे न तो   मुझे गुरेज़ है न ही उनके लिये मेरे मन में कोई नकारात्मक भाव शुभचिंतकों का आभारी हूं….!”... 
मित्रो मित्राणियो
रवींद्र जी और अविनाश जी के आग्रह टालना असम्भव था.  
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                                    जी उस दिन घर में घर में काफ़ी तनाव था चचेरे भाई की शादी का तय होना और मेरा ये ऐलान कर देना कि मैं "दिल्ली जाऊंगा" सबको रास न आया.. पर जब तीस का फ़्लाईट का टिकट मंगवाया तो सब को धीरज आ गया २९ अप्रैल तक की सारी रस्मों में सबके साथ रहूंगा. दूल्हा सचिन भी खुश हुआ..सबने कहा ठीक है बरात में न सही महत्वपूर्णं अवसरों पर तो साथ रहोगे. तीस अप्रैल से एक मई तक दिल्ली जाने की अनुमति मिल गई.  
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मेरी नज़र में दिल्ली समागम एक ऐसा समागम था जो एक सूत्र में सबको पिरोने का मादआ रखता है. मुझे तो आशीष से अभिसिक्त कर ही दिया था मेरी ताई ने.. ताई एक स्नेह की पोटली अपने हृदय में लेकर चलतीं हैं.


अवधिया जी ललित जी से जूझते हुए  

लो हम खु हेंच लिए फोटुक
बनियान ने बयान कर ही दिया की दिल्ली में ए सी फ़ैल हैं

होटल में संजीव भाई का उदबोधन


मगन मन सुनते अवधिया जी पाबला जी __________________________________
दिल्ली एक आग्रह था मेरे लिए . आपके लिए दिल्ली क्या है इस बात से मुझे कोई सरोकार कम अज कम इस आलेख में  तो नहीं . अविनाश वाचस्पति पद्म जी  , ललित जी, अग्रवाल जी, अरे हाँ रवींद्र प्रभात जी केवलराम जी इन सबके शीतल व्यवहार ने तमतमाई दिल्ली उष्म हवाओं से राहत दिलाई. उत्तरांचल से सदलबल पधारे शास्त्री जी तो मानो उधर की ठंडक भी ले आए थे. गांधी शान्ति भवन तक पहुंचाने वाले रास्ता बताऊ दिल्ली वासी या तो रास्ता ग़लत बता रहे थे या हमारी समझ में कम आया बहरहाल हम पहुंच गये गांधी भवन यानी बेचारा गांधी भवन सचमुच बेचारा है... तभी तो ब्लागर्स ए सी के जुगाड़ में होटलों में रुके. ललित जी एवम पाबला जी अवधिया जी, संजीव तिवारी, सभी होटल में रुके बार बार ललित जी मुझे दम दे रहे थे आ जाओ आ जाओ सो मैने रात आने का वादा किया . 
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क्रमश:      

4 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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