21 मई 2011

छब्बीस घण्टे बीस मिनिट दिल्ली में part 02


कार्यक्रम वाले दिन यानी 30 अप्रैल 2011  अल्ल सुबह घर  से निकला किंगफ़िशर जनता फ़्लाईट में नाश्ता-वास्ता लिये  बिना सोचा था कि   उधर यान बालाएं खाने पीने को पूछेंगी ही सो  श्रीमति जी की एक न मानी. अब ताज़ा हसीन ताज़ा तरीन चेहरे वाली व्योम बालाओं  के हाथों से खाऊंगा सोचकर सतफ़ेरी अर्धांगिनी की न मानना महंगा पडेगा इस बात का मुझे इल्म न था. 

ट्राली लेकर पधारीं  दो लावण्य मयी व्योम-बालाओं  में से एक बोली : आप मीनू अनुसार आर्डर कीजिये 
वेज़ सेण्डविच..?
न, नहीं है सर 
तो साल्टी काज़ू ही दे दो काफ़ी भी देना, काफ़ी के साथ दो जोड़ा बिस्किट फ़्री मिले. 
नाश्ता आते आते पड़ोसी से दोस्ती हो गई थी. उनको गुज़रात जाना था. समीपस्थ  सिवनी नगर  के व्यापारी थे जो अपने जीजा जी के अत्यधिक बीमार होने की खबर सुन के रातों रात जबलपुर आए थे. यात्रा के दौरान पनपी मित्रता का आधार उनका पहली बार का विमान यात्री होना तो था मेरा आकर्षण वो इस कारण बने क्योंकि उनके पास तम्बाखू मिश्रित जबलपुरिया गुटखे का भण्डार पर्याप्त था. न भी होता तो मै मित्र अवश्य बना लेता ... बात चीत तो करनी ही थी.  
          नाश्ता करकुरा के हम दौनों ने पारस्परिक यात्रा प्रयोजनों के कारण की एक दूजे से पता साजी की फ़िर  सामयिक विषयों विषयों जैसे भ्रष्टाचार,मंहगाई, आदि पर संवाद किये. तभी एक संदेश गूंजा जिससे साबित हुआ दिल्ली दूर नहीं. 
       एयर पोर्ट पर वादा करके मियां महफ़ूज़ न आ सके कारण जो भी हो ललित बाबू की बात सही निकली कि "यात्रा में खुद पे भरोसा करो वादों पे नहीं !!" 
    हम गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंचे वहां वो सब घटा जो जो तय था. गर्मी उफ़ क्या कहने फ़िर उसी कक्ष में शास्त्री जी का काफ़िला, प्रमुख इंतज़ाम अलि अविनाश उर्फ़ अन्ना भाई, केवल राम जी आदि पधारे. खाना आया थोड़ा बहुत खा पीकर हम समारोह स्थल यानी हिंदी भवन जा पहुंचे . जहां ब्राड-बैंड कनेक्टिविटी की कोशिशों में लगे थे भाई पद्म सिंह और फ़िर पवन चंदन जी ने भी साथ दिया उनका. सब कुछ होने के बावज़ूद ब्राडबैण्ड के ज़रिये हम प्रसारण न कर सके , जिस काम के सम्मान मिलना था  उसी काम को न कर पाने की खिन्नता से  रह रह कर ब्राडबैण्ड बाबा से चालू होने की प्रार्थना कर रहा था. खटीमा का इतिहास न दुहरा पाने की शर्मिंदगी से भरे हम जैसे तैसे प्रसारण कर रहे थे. इंदौर में बैठीं  अर्चना चावजी की मदद से  हम कुछ काम कर पाये.  
डा०सरोजनी प्रीतम का कौतुहल
                 पद्म सिंह, और मैं हताश थे पर प्रयास जारी रखे हमने  रखते भी क्यों न सारे विश्व से ब्लागर हमारे कारनामे  देखना चाहते थे . आयोजकों का अति-विश्वास या उनकी व्यस्तता तथा मेरा एक दिन बाद पहुंचना बाधक साबित हुआ था स्मूथ वेबकास्टिंग के लिये.  "मंचीय-कार्यक्रमों के मामले में मेरी राय भी इसी के इर्द गिर्द है कि -"तय जो होता है वही हो ऐसा तय नही है !"
         सो हे मित्रो यदि आप अपने शहर में ऐसा कोई आयोजन कराते हैं और मुझे वेबकास्टिंग के लिये बुलाएं तो ब्राड-बैण्ड कनेक्शन प्राथमिक शर्त होगी. वरना मेरा टिकट कैंसिल मानिये. मुझे न बुलाएं मुझे बुरा न लगेगा, बुरा तो तब लगता है जब हम टांय-टांय फ़िस्स हो जाते हैं. 
      सफ़ल वेबकास्टिंग के लिये तेज़ गतिवान ब्राडबैण्ड कनेक्शन का होना ज़रूरी है ताकि ध्वनि और फ़ोटो एक साथ आन एयर हो सके. 
         खटीमा का रिकार्ड तोड़ना चाहता था मैं  दिल्ली से किंतु यह न हो सका . मैं शर्मिंदा हूं. पर हताश नहीं. ये सच है कि मैं प्रीमियम सदस्य नहीं हूं क्योंकि बहुत सारा धन लगता है. यूस्ट्रीम या बैमबजर पर इस के लिये. जो मेरे लिये अभी सम्भव कदापि नहीं है...! जिस दिन ये सम्भव होगा मैं प्रोफ़ेशनली उतर आऊंगा इस धंधे में. ये पक्की बात है. 
खैर अब प्रोग्राम के प्रथम भाग की समाप्ति के बाद चाय-नाश्ता जिसकी खास ज़रूरत थी सबने सूता. फ़िर शुरु हुई नाट्य-प्रस्तुति, 

 नाटक लावणी मर्म-स्पर्शी रहा. टैगोर की कहानियों में साबित होता है कि  समकालीन  मानवीय संवेदनाओं  के हनन से रवींद्र बाबू कितना आहत हो जाते थे. अगर मेरा मानना है कि "रवीन्द्र नाथ टैगोर की हर रचना काल जयी है तो ग़लत कहां है मेरी सोच "






अब आप को मालूम तो है कि कौन कौन आया था सम्मान लेने अरे क्या भूल गये तो लगाइये इधर चटका ज़रा 
हां  "इधर" 
 एरियल फ़ोटो 


























   




2 टिप्‍पणियां:

  1. इसमें शर्मिन्दा या हताश होने जैसी कोई बात नहीं है..नई विधा है..सीमित संसाधन हैं..आपने प्रयास किया..नहीं सफल रहा. आगे हो जायेगा.


    अनेक शुभकामनाएँ.

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  2. कुछ भी हो... सब से मिलना हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि रही है...समारोह के तीन दिन पहले से मेरी कार में सीटों और डिग्गी में किताबों के पांच बड़े बड़े(तीस पैंतीस किलो के) पार्सल भरे हुए थे... खटीमा एंड पार्टी एक दिन पहले आ चुकी थी... रात साढ़े बारह बजे आशा शैली आंटी का उनके ठहरने के स्थान से फोन आया कि शास्त्री जी को मच्छर काट रहे हैं यहाँ से ले जाओ... मै अपने वाहन की वजह से पंगु हो गया था. प्रोग्राम के समय इंटरनेट की बेवफाई ने सारा गुड़ गोबर कर दिया. जैसी सेटिंग मैंने की थी, बिना सूचना अविनाश भाई द्वारा उसमे परिवर्तन कर दिया गया था और इंटरनेट की व्यवस्था डोंगल द्वारा कर दी गयी थी... और टीवी पर दिखाई जाने वाली डोंगल की "ज़ूम" स्पीड बैलगाड़ी साबित हुई... एयरटेल,रिलायंस,वोडाफोन, सब निकम्मे निकले... फिर भी सब से मिलना सुखद रहा..

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!