मयकदा पास हैं पर बंदिश हैं ही कुछ ऐसी ..... मयकश बादशा है और हम सब दिलजले हैं !!
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5 सित॰ 2024
अपन जबलपुरिया : नई दुनिया जबलपुर प्रकाशित आर्टिकल
काय बड्डे कहां से शुरू करें ! समझ नईं पढ़ रहा क्या लिखूं ? बक्शी जी के सामने भी यही समस्या थी । फिर क्या हुआ?
वही हुआ जो होना था , एक गज़ब ललित निबंध लिख दिया बक्शी जी ने।
खुद को बक्शी जी के समानांतर खड़ा नहीं चाहता केवल लेखन के पूर्व के संकट की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं।
खैर, अपन जबलपुरिया लोग हैं तो कमाल के।
बात 1981 की है हायर सेकेण्डरी पास करके कॉलेज में प्रवेश डी एन जैन कॉलेज में एडमिशन के बाद छात्र नेतागिरी का चस्का लगा दिया ।
सांस्कृतिक साहित्यिक अभिरुचि के साथ सियासी रंगत मिलते ही एक नया अनुभव । मन में अखबारों में नाम छपाने की लालसा हमें विज्ञप्ति वीर बना देती है। हर किसी विषय पर विज्ञप्ति बनाना और फिर आपसी सौजन्य से अखबारों के दफ्तर तक पहुंचवाना लगभग दैनिक प्रक्रिया में शामिल था।
हां याद आया कि उसे दौर में 90 पेंट के बॉटम का साइज धीरे-धीरे कम होने लगा था।
जबलपुर तब भी एक बड़ा कस्बा था जैसा आज है।
याद है अपन जबलपुरिया लड़के रोजिन्ना खाना खाने के बाद अपने-अपने घरों के पास जैसे फुहारा, गढ़ा बजरिया , फुहारा, मस्ताना चौक, डिलाइट टॉकीज, गोरखपुर , घमापुर चौक, घमंडी चौक हिलडुल पान भंडार, मोटर स्टैंड पान गुटके की तलब में जाते थे। उद्देश्य था कि पूरे शहर की खबरें हमें एक दूसरे से सुनने को मिले।
जबकि मां बाप हमें इस मुद्दे को लेकर ताना करते थे - "क्या हम इन स्थानों पर इसलिए जाते हैं कहीं यह चोरी न हो जाए..!"
यह वह दौर था जब साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां सतत रूप से आयोजित होती थी।
महावीर जयंती का कवि सम्मेलन हो और शहर का कोई भी युवा आपके घर में मिले ऐसा हो ही नहीं सकता था।
गतिविधियों के आयोजन की जिम्मेदारी मिलन मित्र संघ हिंदी मंच भारती गुंजन कला सदन, विवेचना त्रिवेणी परिषद मध्य प्रदेश लेखक संघ अनेकांत जैसे संगठनो की स्वघोषित रूप से हुआ करती थी।
साहित्यक गतिविधियों के मामले में अगर किसी एक व्यक्तित्व का नाम उल्लिखित करेंगे तो अन्य पूर्वजों के सम्मान में कमी होगी वास्तव में तब साहित्यिक गतिविधियां कुल मिलाकर प्रशिक्षण कार्यशाला से कम न थी।
अपन जबलपुरियों ने गीत कविता और गद्य लेखन का हुनर इसी शहर से सीखा है।
केशव पाठक जी सुभद्रा जी भवानी दादा के दौर में तो हम न थे परंतु उसके बाद परसाई जी के हाथ से गटागट मिलने के बाद उनके साहित्य का भी स्वाद हमने लिया है।
भोलाराम का जीव पढ़ कर मुझ पर तो इतना प्रभाव पड़ा कि हमने अपनी मातहत का पेंशन प्रकरण उनके रिटायरमेंट के दिन फाइनलाइज कर दिया।
वीरांगना रानी दुर्गावती के स्मृति दिवस को बनाने वाली त्रिवेणी परिषद मिलन मित्र संघ जैसी संस्थाओं के संकल्प बुलाई नहीं भूलते।
डॉ सुमित्र का घर हो या श्री जानकी रमण महाविद्यालय ये हमारे लिए तीर्थ से कम नहीं है।
यही हमारे गुरु हमें प्रेरित करते थे लिखने के लिए कुछ कर गुजरने के लिए। 80 के दशक में किशोरावस्था से ही हम जान गए थे कि यह गुंडों का शहर नहीं है बल्कि महान संस्कारधानी है , जहां रजनीश जैसा विश्व को हिला देने वाले वारियर ने अपनी बयान से तलवार निकाल कर उसे असरदार बनाया था।
जब अभिभावक कहते हैं कि - इस शहर में कुछ नहीं है, तुम मुझे उनकी बाल बुद्धि पर तरस आता है। शहर तुमसे कभी नहीं कहेगा कि मुझ में क्या खासियत है, तुमको खुद शहर को समझना होगा। 10 साल हो गए बच्चों के बीच काम करते, शहर आज भी वैसा बचपन की रहा है जैसा हम अपने बचपन में उत्साहित हुआ करते थे। संगीत कला चित्रकला साहित्य कविता उर्दू साहित्य, आज भी जीवंत है इस शहर में।
होली की रात हम सदर में लुकमान जी को सुनने जाते थे। सियविजन वास सुना कर रुलाने वाले लुकमान जी ने जबलपुर के कवियों को जीवंत कर दिया। लौट लौट के अपनी फिल्मों में जबलपुर के दृश्यों को कैद करना राज कपूर की आदत बन गई थी। पास्कल पाल को गोल्डन टच देकर प्रेम नाथ ने अद्भुत कार्य कियाथा। घनश्याम चौरसिया बादल ने इस शहर को कुछ इस तरह परिभाषित किया है
खदानों के पत्थर जो अनुमानते हैं ।
मेरे घर की दीवारें वह जानते हैं।।
देश के अन्य शहरों के मुताबिक भले ही शहर उतना विकसित न हुआ हो परंतु संस्कारित आज भी है। एक बार फिर कह देना चाहता हूं कि यह गुंडों का शहर नहीं है। यह शहर आचार्य विनोबा की संस्कारधानी है। नजर जैसी नजरिया वैसा, मैनेज जबलपुर को पत्थरों का शहर नहीं कहा क्योंकि यह पथरीला शहर है ही नहीं।
अपन जबलपुरिए अपनी जन्मभूमि के प्रति कृतज्ञ हम अपने शहर को अपनी मां का दर्ज़ा देते हैं और यह एहसास रखते हैं कि
जा माँ की गोद में, सर रख के सिसक ले
क्यों अश्क़ गिराता है, रिसाला लिए हुए !!
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!