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29 जून 2007

आईना रूबरू आईने



आईना रूबरू आईने के हो ज़रा -
बात दोनों की चली जाये बहुत गहरे में ।
इजहार बिना इश्क नहीं हो सकता,
अपने अल्फाज़ मत क़ैद करो पहरों में॥



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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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