14 जुल॰ 2007

AAg



एक दिन तुमने मुझे

चूल्हा -गोलाई के नीचे से पुकारा था !!

हाँ ...!

मुझे ही तो पुकारा था

तुमने

उस दिन जब

उस गाँव की भोली जनता के

दोगले नेता से मिलकर मैं

उदास ...नहीं हताश होकर लौटा था !

हाँ सूरज !

याद करो

तुमने मुझे ही पुकारा हां....!

अपनी मक्कारियों की से जनता को जकड़्ते

उस मगर -मच्छ ने ईमानदारी की राह को कंटीली झाड़ियों

पाटा था ....और मैं बेबस ....लौट रहा था

सूरज......मुझे तुम्हारी आग की ज़रूरत नहीं है ....

मेरी ईमानदारी की आग उसे जला देगी

मुझे तुम्हारी आग के ज़रूरत कब-कब पड़ीं ...?

फिर भी तुम्हारा शुक्रिया .......

तुम जो मुझे याद ओ करते तो हो !!

*girish billore "mukul"

1 टिप्पणी:

  1. मेरी ईमानदारी की आग उसे जला देगी
    मुझे तुम्हारी आग के ज़रूरत कब-कब पड़ीं ...?
    फिर भी तुम्हारा शुक्रिया .......
    तुम जो मुझे याद ओ करते तो हो !!


    bhaut sundar rachnaa hai mukul jee ;


    Sudeep Sakalle

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!