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5 जुल॰ 2007

- हरिवंशराय बच्चन की रचना

मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धरऔर दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?
उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?
- हरिवंशराय बच्चन

1 टिप्पणी:

  1. बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता

    अति सुन्दर शब्दो का चयन ,,,,

    हरिवंशराय बच्चन जी की यह कविता पोस्ट करने के लिये धन्यवाद :)

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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