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22 जुल॰ 2007

इश्क़ कीजे सरेआम खुलकर कीजे.




इश्क़ कीजे सरेआम खुलकर कीजे। भला पूजा भी छिप छिप कोई करता है।
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* बंदिशें लाख हों, ताले हों, लक़ीरें हों खिचीं
प्रीत की राह पे काँटों की कालीनें बिछीं !
ख़ौफ़ कितना भी हो इज़हार तो कर ही देना-
दिल के झोले को सुक़ून से भर ही लेना...!
वर्ना ख़ुद ज़िंदगी यूँ चैन से नहि जीने ही देगी
अमिय सुख का तुमको भी न पीने नहीं देगी !

पूछ मीरा से जा इश्क़ में क्या ताक़त है ?
इश्क पूजा है-इबादत है कोई तिज़ारत तो नहीं !

ये तो सज़दे में , पूजा, प्रार्थना में यही
ये वो काम जो सरे आम किया जाता है....!

हरेक मज़हब में सुबहो-शाम किया जाता है....!

यकीं नहीं तो खुसरो से पूछ लेना तुम

वो भी कहेंगे जीं हाँ खुलकर कीजे .....भला पूजा भी कोई..... छिप छिप के किया करता है..?
**गिरीश बिल्लोरे "मुकुल

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

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