25 अग॰ 2007

अचानक .... होते ...हैं विस्फोट ...!!





हम
जो आदी से हों गए हैं विस्फोट के साथ
तार -तार होती
इंसानियत को देखने
के
लोग जो भारत हैं

लोग जो हैदराबाद हैं...
लोग जो भोपाल हैं ....
लोग जो मुम्बई हैं ...
लोग जो हिंदुस्तान हैं....
लोग जो लता जीं के ग़ज़ल सुनते हैं
लोग जो रफी साहब के गाये भजन गुनते हैं
लोग जो "देबा-शरीफ" में जाकर मन ही मन
मानस पूजक बन जाते हैं ....!
लोग जो क्रिसमस ,ईद , दीवाली ,
साथ-साथ मनाते हैं .......!
वो ही तब्दील हों जाते हैं......चीथड़ों में.... और तार तार हों जाती है
" इंसानियत "

1 टिप्पणी:

  1. बिल्कुल सही कह रहे हैं आप । कविता बहुत विचलित करने वाली लगी ।
    घुघूती बासूती

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!