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21 अग॰ 2007

यूँ-सहर तक जगता हूँ


यूँ सहर तक़ जागता हूँ, ख़ाक दर-दर छानता हूँ...
धवलपोशो की धवलता,ख़ूब मैं पहचानता हूँ.. ..!!
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ये तपश्वी वो यशश्वी,हर जगह ऐसे-ही-ऐसे
आम इन्सा एक-दो ही जिन्है मैं भी जानता हूँ..!
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आग के गोले गिराते , बस्तियों को जो जलाते
वो हैं वक्ता प्रखर सच में , उन्हें मैं पहचानता हूँ...!
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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