Ad

20 दिस॰ 2007

प्रेम ही संसार की नींव है


शुक्र और चांद अचानक नहीं इनका मिलाना तयशुदा था। उस दिन जब चंद्रमा और शुक्र का मिलन तय था और मेरे शहर का आकाश अगरचे बादलों भरा न होया तो इस पल को सब निहारते। कईयों ने तो इसे निहारा भी होगा .....उनके आकाश में बादल जो नहीं हैं ।
प्रेम की परिभाषा भी यहीं कहीं मिलती है ....!
"प्रेम"एक ऐसा भाव है जिसको स्वर,रंग ,शब्द , संकेत, यहाँ तक कि पत्थरों ने भी अभिव्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ...... खजुराहो से ताजमहल तक उर्वशी से मोनालिसा तक ,जाने कितनी बातें हैं जो प्रेम के इर्दगिर्द घूमतीं हैं ....!
"सच प्रेम ही संसार कि नींव है "......आसक्ति प्रेम है ही नहीं ! प्रेम तो अहो ! अमृत है ! प्रेम न तो पीड़ा देता है न ही वो रुलाता। आशा और विश्वास का अमिय है ..प्रेम सोंदर्य का मोहताज कभी नहीं हो सकता ...परंतु जब यह अभिव्यक्त होता है तो जन्म लेतें कुमारसंभव जैसे महाकाव्य !! किसी ने क्या ख़ूब कहा -"जिस्म कि बात नहीं ये "
सच !यदि दिल तक जाने कि बात हो तो ....आहिस्ता आहिस्ता जो भाव जन्मता है वोही है प्रेम।
अगर आप सच्चा प्रेम देखना चाहतें हैं ..... एक ऐसी मजदूर माँ को देखिए जो मौका मिलते ही अपने शिशु को अमिय पान करा रही है...क्या आप देख नहीं पा रहे हैं अरे ! इसके लिए आपमें वो भाव होना ज़रूरी जो स्तनपान करते शिशु में है।
अगर इसे आप प्रेम का उदाहरण नहीं माने तो फिर आप को एक बार फिर जन्म लेना ही होगा !
शिवाजी ने सिपाही द्वारा लायी गयी विजित राज्य की महिला को "माँ" कहा तो भारत को एक नयी परिभाषा मिल ही गयी प्रेम की।
मैंने प्रेम को लेकर कहां:-
"इश्क कीजे सरेआम खुलकर कीजे .... भला पूजा भी कोई छिप-छिप के किया करता है "
इसके कितने अर्थ निकालिए निकलते रहेंगे लगातार गुरु देव शुद्धानन्द नाथ ने आपने सूत्र में कहा :-"दुर्बल व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता प्रेमी दुर्बल नहीं हों सकता "

यदि मैं कहूं कि " मुझे कई स्त्रियों से प्रेम है , मुझे कई पुरुषों से प्रेम है तो इसे फ्रायड के नज़रिये से मत देखो भाई। प्रेम के अध्यात्मिक अर्थ की खोज करते-कराते जाने कितने योगी भारत ही नहीं विश्व के कोने कोने में भटकते रहे.......!ग्रंथ लिखे गए "हेरी मैं तो प्रेम दीवानी" गाया गया .... ये इश्क-इश्क है दुहराया गया.... आज रंग है तो मस्त कर देता है फिर भी हम केवल फ्रायड की नज़र से इश्क को जांचते हैं....? ऐसा क्यों है
क्या हम देह से हट के कभी मानस पर मीरा खुसरो को बैठा कर अपने माशूक या माशूका को निहारिए
यही है तत्व ज्ञान है...!
चिट्ठाजगत

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

Free Page Rank Tool

यह ब्लॉग खोजें