14 मई 2008

जयपुर में मजाज़ मैं और धमाके

उस दिन शाम डालते हे मजाज़ ने मुझे बुलाया था . मुझे देखते ही कहने लगे
भाई, ''मस्जिदों में मौलवी खुतबे सुनाते ही रहे
मंदिरों में बिरहमन श्लोक गाते ही रहे
एक न एक दर पर ज़बाने शौक़ घिसती ही रही
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही
रहबरी जारी रही पैगंबरी जारी रही''
हाँ ज़नाब सही कह रहें है आप
-मेरा ज़बाब था.
टहल रहे थे हम जयपुर की सडकों पे.
गुलाबी शहर में एक ज़ोरदार फ़िर ज़ोरदार
धमाका, फ़िर धमाकों के सिलसिले.......
मजाज़ आप को मालूम था कि ...?
मजाज़ बोले :-"भाई,ये तो होना ही था जब सियासतें ,तिज़रतों के आँगन में रक्ख्स करेंगी यही सब कुछ होगा..!"
क्या कुछ देख रहे हो ...?
"मजाज़ साहेब,मैं सोच रहा हूँ:-तब जब मैं दफ्तर जाते हुए अखबार पडूंगा ,
तब जब मैं अपना कल गढूँगा....?
कल तब जब कि मैं
तुम हम सब इंसानियत की दुहाई देते
जयपुर पर वक्तव्य देंगे .......!
तब उगेगी दर्द की लकीरें सीने में
घाव बनातीं आंखों के आँसू सुखातीं
न कोई हिन्दू न मुसलमान
न क्रिस्टी न गुलफाम
कोई नहीं मरेगा
मरेगी तो केवल इंसानियत।
और चंद बयानों की रेज़गारी डाल दी जाएगी
बिलखती रोती माँ की गोद में.....!
मजाज़ बागी हो गए
लग भाग चीखते हुए बोले :-
बढ के इस इन्द्रसभा का साज़-ओ-सामां फूंक दूं
इस का गुलशन फूंक दूं उसका शबिस्तां फूंक दूं
तख्त-ए-सुल्तां क्या मैं सारा क़स्र ए सुल्तां फूंक दूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करू, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

"

4 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहा जाये. अति दुखद और निन्दनीय घटना है.

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  2. आतंकवादियों का कोई धर्म नही होता है। पता नही इसके मन क्‍या क्‍या उपजता रहता है। यह देश की गम्‍भीर छति है।

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  3. गिरीश जी,

    इन पंक्तियों से मैं भी इत्तेफाक रखता हूँ जब एसी घटनायें हो जाती हैं:-

    अब तो हम सब का दिल तुम्हारी तरह यही चाहता है कि :
    बढ के इस इन्द्रसभा का साज़-ओ-सामां फूंक दूं
    इस का गुलशन फूंक दूं उसका शबिस्तां फूंक दूं
    तख्त-ए-सुल्तां क्या मैं सारा क़स्र ए सुल्तां फूंक दूं
    ऐ ग़म-ए-दिल क्या करू, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

    बहुत सुन्दर रचना।

    इस घटना नें आपकी तरह मुझे भी विह्वल किया। इसी संदर्भ की मेरी रचना www.rajeevnhpc.blogspot.com पर है।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  4. और चंद बयानों की रेज़गारी डाल दी जाएगी
    बिलखती रोती माँ की गोद में.....

    पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ, क्या कहूं मन इतना दुखी है कि इस समय आपकी कविता की तारीफ भी नहीं कर सकता।
    अभी जा रहा हूँ फिर वापस आ कर आपके सारे लेख जरूर पढ़ूंगा, हेमराज जी जैन के बारे में भी जानने की उत्सुकता है पर , यह कविता पढ़ने के बाद...

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!