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18 जुल॰ 2008

ज़िंदगी

रोज़ स्याह रात कभी माहताब जिन्दगी
एक अरसे से मुसलसल बारात ज़िन्दगी
बाद मुद्दत के कोई दोस्त मिले
तबके उफने रुके ज़ज्बात ज़िन्दगी
तेरा बज्म...! मैं बेखबर तू बेखबर
एक ऐसी सुहागे रात ज़िन्दगी
बाद मरने के सब गुमसुम बेचैन दिखें
धुंए के बुत से मुलाक़ात ज़िन्दगी .

5 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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