20 जुल॰ 2008

आज संजीव भाई की कहानी

आभार सहित : आरंभ Aarambha
पिता का वचन :
{छत्‍तीसगढ में बस्‍तर की वर्तमान परिस्थितियों पर मैंनें कलम चलाने का प्रयास किया है जो कहानी के रूप में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं । आप सभी से इस कहानी के पहलुओं पर आर्शिवाद चाहता हूं :-संजीव तिवारी}
चूडियों की खनक से सुखरू की नींद खुल गई । उसने गहन अंधकार में रेचका खाट में पडे पडे ही कथरी से मुह बाहर निकाला, दूर दूर तक अंधेरा पसरा हुआ था । खदर छांधी के उसके घर में सिर्फ एक कमरा था जिसमें उसके बेटा-बहू सोये थे । बायें कोने में अरहर के पतले लकडियों और गोबर-मिट्टी से बने छोटे से कमरानुमा रसोई में ठंड से बचने के लिए कुत्ता घुस आया था और चूल्हे के राख के अंदर घुस कर सर्द रात से बचने का प्रयत्न कर रहा था । जंगल से होकर आती ठंडी पुरवाई के झोंकों में कुत्ते की सिसकी फूट पडती थी कूं कूं ।
सुखरू कमरे के दरवाजे को बरसाती पानी की मार को रोकने के लिए बनाये गये छोटे से फूस के छप्पकर के नीचे गुदडी में लिपटे अपनी बूढी आंखों से सामने फैले उंघते अनमने जंगल को निहारने लगा । अंदर कमरे से रूक रूक कर चूडियां खनकती रही और सिसकियों में नये जीवन के सृजन का गान, शांत निशा में मुखरित होती रही । सुखरू का एक ही बेटा है सुल्टू । कल ही उसने पास के गांव से गवनां करा के बेदिया को लाया है । इसके पहले उस कमरे में सुखरू और सुल्टूस का दो खाट लगता था और लकडी के आडे तिरछे खपच्चियों से बना किवाड हवा को रोकने के लिए भेड दिया जाता था । आज दिन में ही सुखरू नें लोहार से कडी-सांकल बनवा कर अपने कांपते हाथों से इसमें लगाया है । ‘बुजा कूकूर मन ह सरलगहा फरिका ल पेल के घुसर जथे बाबू ‘ सुल्टू के कडी को देखकर आश्चर्य करने पर सुखरू नें कहा था ।
रात गहराती जा रही थी पर सुखरू के आंख में नींद का नाम नहीं था, कमरे के अंदर से आवाजें आनी बंद हो गई । मंडल बाडा डहर से उल्लू की डरावनी आवाज नें सुखरू का ध्यान आकर्षित किया । ‘घुघवा फेर आ गे रे, अब काखर पारी हे ‘ उसने बुदबुदाते हुए सिरहाने में रखे बीडी और माचिस का बंडल उठाया और खाट में बैठकर पीने लगा, आंखों में स्वप्न तैरने लगे ।
बदरा को उसने गांव के घोटुल में पहली बार देखा था । टिमटिमाते चिमनी की रोशनी में बदरा का श्यामल वर्ण दमक रहा था । वस्त्र विहीन युवा छाती पर अटखेलियां करते उरोज नें सुखरू के तन मन में आग लगा दिया था । सामाजिक मर्यादाओं एवं मान्यता के अनुरूप सुखरू नें बदरा से विवाह किया था । रोजी रोटी महुआ बीनने, तेंदूपत्ता तोडने व चार चिरौजी से जैसे तैसे चल जाता था । हंसी खुशी से चलती जिंन्दगी में बदरा के सात बच्चे हुए, पर गरीबी-कुपोषण व बीमारी के कारण छ: बच्चे नांद नहीं पाये । सुल्टू में जीवन की जीवटता थी, घिलर-घिलर कर, कांखत पादत वह बडा हो गया । सल्फी‍ पीकर गांव मताने के अतिरिक्त सभी ग्राम्य गुण सुल्टूक नें पाये । सुखरू नें पडोस के गांव के आश्रम स्कूल में सुल्टू को पढाने भी भेजा पर वह ले दे कर आठवीं तक पढा और फेल हो कर मंडल के घर में कमिया लग गया । तीन खंडी कोदो-कुटकी और बीस आगर दू कोरी रूपया नगदी में । सुखरू और बदरा अपना अपना काम करते रहे ।
जमाना बदल रहा था, गांव में लाल स्याही से लिखे छोटे बडे पाम्पलेट चिपकने लगे, खाखी डरेस पहने बंदूक पकडे दादा लोगों का आना जाना, बैठका चालू हो गया । सुखरू अपने काम से काम रखता हुआ, दादा लोगों को जय-जोहार करता रहा । पुलिस की गाडियां भी अब गांव में धूल उडाती आने लगी । रात को गांव में जब उल्लू बोलता, सुबह गांव के किसी व्यक्ति की लाश कभी चौपाल में तो कभी जंगल खार में पडी होती । परिजन अपने रूदन को जब्ब‍ कर किरिया-करम करते, सब कुछ भूल कर अपने अपने काम पर लग जाते । कभी कभी जंगल में गोलियों की आवाजें घंटो तक आते रहती और रात भर भारी भरकम बूटों से गांव की गलियां आक्रांत रहती ।
शबरी के जल में भोर की रश्मि अटखेलियां कर रही थी । सूरज अपनी लालिमा के साथ माचाडेवा डोंगरी में अपने आप को आधा ढांपे हुए उग रहा था । सुखरू तीर कमान को अपने कंधे में लटकाये, जंगल में दूर तक आ गया था, बदरा भी पीछे पीछे महुआ के पेडों के नीचे टपके रसदार महुए को टपटपउहन बीनते हुए चल रही थी । ‘तड-तड धांय ‘ आवाज नें सुखरू के निसाने पर सधे पंडकी को उडा दिया । सुखरू पीछे मुडकर आवाज की दिशा में देखा । दादाओं और पुलिस के बीच जंगल के झुरमुट में लुकाछिपी और धाड-धाड का खेल चालू हो गया था । भागमभाग, जूतों के सूखे पत्तों को रौंदती आवाजें, झाडियों की सरसराहट, कोलाहल, शांत जंगल में छा गई । चीख पुकार और छर्रों के शरीर में बेधने का आर्तनाद गोलियों की आवाज में घुल-मिल गया । सुखरू नें कमर झुका कर बदरा को आवाज दिया ‘भागो ‘ , खुद तीर कमान को वहीं पटक गांव की ओर भागा ।
गांव भर के लोग जंगल की सीमा में सकला गए थे । गोलियों की आवाज की दिशा में दूर जंगल में कुछ निहारने का प्रयत्न करते हुए । दो घंटे हो गए बदरा बापस नहीं आई, गोलियों की आवाजें बंद हो गई । सुखरू का मन शंकाओं में डूबता उतराता रहा ।
शाम तक पुलिस की गाडियों से गांव अंट गया, जत्था के जत्था वर्दीवाले हाथ में बंदूक थामे उतरने लगे, जंगल को रौदने लगे । कोटवार के साथ कुछ गांव वाले हिम्मत कर के जंगल की ओर आगे बढे । जंगल के बीच में जगह जगह खून के निसान पेडों-पत्तों पर बिखरे पडे थे । दादा व पुलिस वालों की कुछ लाशें यहां वहां पडी थी । सुखरू महुए के पेड के नीचे झाडियों पर छितरे खून को देखकर ठिठक गया । झाडियों के बीच बदरा का निर्जीव शरीर पडा था । जल, जंगल-जमीन की लडाई और संविधान को मानने नहीं मानने के रस्‍साकसी के बीच चली किसी गोली नें बदरा के शरीर में घुसकर बस्तर के जंगल को लाल कर दिया था ।
सुखरू सिर पकड कर वहीं बैठ गया । लाशों की गिनती होने लगी, पहचान कागजों में दर्ज होने लगे। लाशों को अलग अलग रखा जाने लगा, साधु-शैतान ? ‘और ये ?’ रौबदार मूछों वाले पुलिस अफसर नें कोतवाल मनसुखदास से पूछा । ‘बदरा साहेब’ ‘मउहा बीनत रहिस’ कोटवार नें कहा । ‘दलम के साथ’ साहब नें व्यंग से कहा । कोतवाल कुछ और कहना चाहता था पर साहब के रौब नें उसके मुह के शव्द को मुह में ही रोक दिया । ‘कितने हैं ?’ साहब नें लाश को रखने वालों से पूछा । सर हमारे चार और नक्सोलियों के तीन ।‘ ‘... ये महिला अलग ।‘
सुखरू के आंसू बहते रहे, बुधिया की लाश पुलिस गाडी में भरा के शहर की ओर धूल उडाती चली गई । अंगूठा दस्तोखत, लूट खसोट के बाद आखिर चवन्नी मुआवजा मिला, बोकरा कटा, सल्फी व मंद का दौर महीनों चलता रहा । धूल का गुबार उठा और बस्तर के रम्य जंगल में समा गया । बुधिया की याद समय के साथ धीरे-धीरे सुखरू के मानस से छट गई । सुल्टू साहब लोगों के एसपीओ बनने के प्रस्ताव को ठुकराकर मंडल के खेतों में लगन के साथ मेहनत करने लगा । सुखरू मदरस झार के शहर में जा जा कर बेंचने लगा, जीवन की गाडी धीरे से लाईन पर आ गई ।
सुखरू नें पडोस के गांव से मंगतू की बेटी को अपने बेटे सुल्टू के लिए मांग आया, अपनी सामर्थ और मंडल के दिये कर्ज के अनुसार धूम धाम से बिहाव-पठौनी किया, मुआवजा का पैसा तो उसने मंद में उडा दिया था । सुखरू के स्मृति पटल पर चलचित्र जैसे चलते इन यादों के बीच उसकी नींद फिर पड गई ।
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जंगल की ओर से आती बूटों की आवाजों को सुखरू परखने की कोशिस करने लगा । आवाजें उसके खाट के पास ही आकर बंद हो गई । वह गुदडी से अपना सिर बाहर निकाला, सामने स्याह अंधेरे में दो-चार-दस, लगभग सौ बंदूकधारी सिर खडे थे । सुखरू कांपते पैरों को जमीन में रखते हुए हडबडा कर खाट से उठा । दोनों हाथ जोडते हुए कहा ‘जोहार दादा’ । बंदूक वाले नें सुखरू की बात को अनसुना करते हुए अपने लोगों से बोला ‘बाहर निकालो उसे ‘ सुखरू की रूह कांप गई, वह गिडगिडाने लगा । ‘का गलती होगे ददा’ । साथ में आये दो लोगों नें जर्जर दरवाजे को कंधे से धक्का, मारा । दरवाजा फडाक से खुल गया, सुल्टू और बहु हडबडा कर उठ गये । वो कुछ समझ पाते इसके पहले ही सुल्टू की गर्दन और बहू के बाल को पकडकर लगभग खींचते हुए घर से बाहर लाया गया । तीनों की कातर पुकार जंगल में प्रतिध्वनित होने लगी । ‘धाय ‘ भरमार बंदूक नें आग का गोला उगला । सुल्टू की चीख बाहर निकलते हुए हलक में ही जब्ब हो गई ।
खून जमा देने वाली ठंड में सुखरू के अंग के रोमछिद्रों नें जमकर पसीना उडेल दिया, उसने आंखें खोलकर आजू बाजू देखा । कोई भी नहीं था, सियाह काली रात, छाती धौंकनी की तरह चल रही थी । उसने खाट से उतर कर सुल्टू के कमरे के दरवाजे को टमड कर देखा, दरवाजा साबूत भिडा हुआ था । ‘सुल्टू , बेटा रे ‘ उसने बेहद डरे जुबान से आवाज दिया, शव्द मुह से बमुश्कल बाहर आये । रसोई में सोया कुत्ता उठकर सुखरू के पांव पर कूं कूं कर लोटने लगा । सुखरू की आंखें अब अंधेरे में कुछ देख सकने योग्य हो गई थी, हिम्मत कर के फिर बेटे को आवाज लगाई । सुल्टूट नें अंदर से हुंकारू भरी, सुखरू के जान में जान आई । ‘ का होगे गा आधा रात कन काबर हूंत कराथस’ सुल्टू नें कहा । ‘कुछु नहीं बेटा सुते रह, सपना देख के डेरा गे रेहेंव बुजा ल’ ‘.... रद्दी सपनाच तो आथे बेटा, बने सपना त अब नंदा गे । दंतेसरी माई के सराप ह डोंगरी, टोला जम्मो म छा गे हे, बुढवा देव रिसा गे हे बेटा ....’ सुखरू बुदबुदाने लगा फिर आश्वस्थ हो खाट में बैठ कर बीडी पीने लगा । गोरसी में आग जलाई और आग तापने लगा । कमरे में चूडियां फिर खनकने लगी, कुत्ता कूं कूं कर गोरसी के पास आकर बैठ गया । आग तापते हुए बूढी आंखों में अभी अभी देखे स्वप्न के दृश्य छाये रहे । दिमाग ताना बाना बुनता रहा । मुर्गे नें बाग दिया डोंगरी तरफ से रोशनी छाने लगी ।
सुल्टू अपने कमरे से उठकर कमजोर पडते गोरसी पर लकडी डालते हुए बाप के पास आकर बैठ गया । ‘बेटा अब तुमन अपन ममा घर रईपुर चल देतेव रे, उन्हें कमातेव खातेव । इंहा रहई ठीक नई ये बुजा ह ।‘ सुखरू नें गोरसी के आग को खोधियाते हुए कहा । ‘ सरी दुनिया दाई ददा तीर रहि के सेवा करे के पाठ पढाथे, फेर तें ह कईसे बाप अस जउन हमला अपन ले दुरिहाय ले कहिथस’ सुल्टू अनमने से बात को सामान्य रूप से लेते हुए कहा । ‘बेटा दिन बहुर गे हे, तें ह एसपीओ नई बनेस जुडूम वाले मन खार खाये हें, दादा मन तोर दाई के जी लेवईया संग लडे ल बलावत हें, उहू मन गुसियावत हें । गांव के गांव खलक उजरत हे, सिबिर में गरू-बछरू कस हंकावत हें । कोनो दिन बदरा जईसे हमू मन मर खप जबो, काखर बरछा, काखर गोली के निरवार करबो । तुमन जीयत रहिहू त मोर सांस चलत रहिही बेटा ।‘ सुखरू का गला रूंध आया, आगे वह कुछ ना बोल सका ।
सुल्टूल अपना गांव, घर, संगी-साथी को छोडने को तैयार नहीं पर बाप की जिद है । उसने चार दिन से कुछ भी नहीं खाया है, खाट पर टकटकी लगाए जंगल की ओर देख रहा है । ‘... मान ले बेटा ।‘ सुखरू सुल्टू के हाथ को पकड कर उसने पुन: निवेदन किया । बाप की हालत को देखकर सुल्टू बात टालने के लिए कहता है ‘तहूं जाबे त जाबोन’ । सुखरू के आंखों में बुझते दिये की चमक कौंधती है और हमेशा हमेशा के लिए बुझ जाती है ।
शबरी में तर्पण कर सुल्टू डुबकी लगाता है, नदी को अंतिम प्रणाम करता है । लोहाटी संदूक में ओढना कुरथा को धर कर अपनी नवेली दुल्हन के साथ शहर की ओर निकल पडता है । माचाडेवा डोंगरी से खिलता हुआ सूरज गांव को जगमगाने लगा है । इंद्रावती में मिलने को बेताब शबरी कुलांचे भरती हुई आगे बढ रही है ।
सुल्टू पीछे-पीछे आते कुत्ते को बार बार भगाता है, पर कुत्ता दुतकारने – मारने के बाद भी थोडी देर बाद फिर सूल्टू के पीछे हो लेता है । सुल्टू के श्रम से लहराते खेत पीछे छूटते जाते हैं, सुल्टू के मन में भाव उमड घुमड रहे हैं । पिता के वचन के बाद लिये अपने फैसले से वह आहत है, क्या उसे शहर रास आयेगा ? यदि नहीं आया तो .... वह अपने गांव में फिर से वापस आ तो सकता है । बस में जाते हुए रास्‍तें में वह कई उजडे गांवों का नाम बुदबुदा रहा है । क्‍या सुखरू का स्वप्न आकार लेकर उसके गांव में भी चीत्कार के रूप में छा जायेगा और सारा गांव भुतहा खंडहरों और जली हुई झोपडियों में तब्‍दील हो जायेगा ? तब क्‍या वह गांव वापस लौट पायेगा ।
संजीव तिवारी

2 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!