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18 मार्च 2009

सच तुम्हारी वज़ह से ही


तुम जो कल तक
आंकते थे कम
आज भी आंको
उतने ही नंबर दो मुझे जितने देते आए हो
मित्र ..?
मत मेरे यश को सराहो
मुझे याद है तुम्हारे
पीठ पीछे कहे विद्रूप स्वरों के शूल
जो चुभे थे
जी हाँ वे शूल जो विष बुझे थे
मित्र
अब सुबह हो चुकी है
तुम्हारी वज़ह से
सच तुम्हारी वज़ह से ही
मैंने बदला था पथ
जहां था ईश्वर
बांह पसारे मुझे सहारा दे रहा था
उसे ने ये ऊंचाई दी है मुझे
काश तुम होते मुझे
कम आंकने वाले
तो आज मैं यहाँ होता !!

5 टिप्‍पणियां:

  1. आभार हम भी आपके उस मित्र के लिए दत्ज करते हैं आपके साथ साथ!!!


    बहुत उम्दा कार्यक्रम रहा ’बावरे फकीरा’ का.

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  2. क्या बत है मुकुल भाई! बहुत बेह्तरीन कविता। दिल से उतरती चली आई। वाह वाह।

    जवाब देंहटाएं
  3. आप के विचार काफी अच्छे है, हिन्दी के विकास के लिये मुझे आपके शब्दो की जरूत है, इसके लिये आप मुझे अपने लेख मेल कर सकते है,आपके सहयोग से टूटते हुए देश को बचाया जा सकता है

    जवाब देंहटाएं
  4. आपका आभारी हूँ किन्तु आप सिर्फ शब्द ही मांग रहे हैं या विचार (धारा) भी ...?

    जवाब देंहटाएं

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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