27 मई 2009

प्रतिचिन्तन .

संवेदना संसार:
आलेख में आपने कर्म काण्ड को अनुपयुक्त बताया आज के सन्दर्भ में मानी है किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों में कार्यानुसार अर्थ व्यवस्था का आधार रहे हैं ये कर्म काण्ड . इसे जानने-समझाने के लिए बतादूँ कि आप किसी भी क्रिया को देखिए आपको तस्वीर का यह भाग भी दिखेगा. जन्म के समय से मृत्यु तक के संस्कार को कर्मकांड से जोड़ कर एक व्यवस्था को जन्मा भारतीय समाज ने. मृत्यु के 40 दिन तक शोक काल सभी धर्मों में मान्य है 13 दिवस अति महत्व पूर्ण होते हैं , चूंकि समाज का अधिसंख्यक भाग ग्रामीण था सो तदनुसार नियम बने . अब आप शवदाह करने वाले का शमशान घाट में स्नान करना परिवार का सादा रहना सर मुड़वाना आपकी नज़र में गलत हो सकता है किन्तु सच तो यह है कि कर्मकांड के इस उदाहरण में साफ़ तौर पर मृत्यु उपरांत शोक को महत्व दिया है जो मानवीयता से सम्बन्धित तथ्य है.
कभी लगता है भारतीय सामाजिक व्यवस्था में कर्म काण्ड तत्कालीन व्यवस्था के लिए परिहार्य थे .
वर्तमान में भले ही समयातीत हो चुके हैं . मुझे भी कर्मकांड से अरुचि सी है क्योंकि एक पंडित इसे
जिस तरह से प्रस्तुत करता है वो गलत है . इसके सटीक उदाहरण हैं प्रयाग राज के पंडे जो गिरोह बंद होकर
भावुक मन को धर्म के नाम पर ब्लेक-मेल करते हुए क्षतिग्रस्त करतें पावन व्यवस्थाओं को . इसका अर्थ ये कदापि नहीं
की मूल रूप से कर्मकान्ड सदैव गलत है.
ऐसा भी ठीक नहीं हैं कि हम और आप को तत्कालीन कर्मकांडों को यथा रूप स्वीकार ही करना चाहिए . किन्तु कर्मकांड को किस स्वरुप में स्वीकार्यना आप को तय करना है. वास्तव में वैकल्पिक व्यवस्थाओं का मार्ग सदैव कर्म काण्ड में खुला है . यहाँ मैं जयंत चौधरी की टिप्पणी से सहमत हूँ वे कहते हैं :संगीता जी,-सच है...जैसे मेरे पिता जी कहते हैं... हम लोग उन कर्म कांडों के पीछे के अर्थ और कारण से अनजान हैं.
इसका बहुत बड़ा कारण मुसलमान शासकों के द्वारा किया दमन (पंडितों और धार्मिक किताबों का) भी है.
तो कुछ पंडितों के अज्ञान और ज्ञान ना बाटने का भी है..
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं की सब बकवास हैं और हमें उन्हें त्याग देना चाहिए!!!
बहुत विचारणीय लेख.
बधाई..
इस आलेख में सब कुछ सार्थक और सटीक लिखा
मैं भी सहमत हूँ शेष आलेख पूर्णतया सहमत हूँ

4 टिप्‍पणियां:

  1. कर्मकाण्ड के पीछे लॉजिक है..धर्म का नाम तो पालन करवाने के लिए दिया गया.

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  2. आपके इस प्रतिचिन्तन हेतु आभारी हूँ....यदि आपने लिंक दे दिया होता तो और भी अच्छा रहता क्योंकि संयोगवश ही ब्लोग्वानी देखते समय इसपर नजर पडी.अन्यथा मैं आपके महत विचारों से अनभिग्य रहती.

    आपने बड़ा ही अच्छा लिखा है...धार्मिक कर्मकांडों के निष्पादन कर्ताओं ने जिस प्रकार से इन्हें विकृत और भारी बनाया है,यही कारण है कि लोग इससे बचना भागना चाहते हैं..अन्यथा इनमे निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण बड़े ही जीवनोपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं...
    मैं तो ज्यों ज्यों इनके तहों में जाती हूँ,अचंभित होती हूँ देखकर कि इनके प्रवर्ताओं के सोच और दूरदृष्टि कितनी बड़ी रही होगी.

    सदियों के दमन के उपरांत भी इसके कल्याणकारी गुणों के कारण ही ये आज भी जीवित हैं....

    समय आ गया है कि हमें इनके पुनरुत्थान एवं प्रतिष्ठा स्थापन के लिए आगे बढ़ना चाहिए..,.

    एक बार पुनः आपका बहुत बहुत आभार.

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  3. संवेदना संसार: में लिंक उपलब्ध है
    आपका चिंतन प्रभावी है संतुलित
    आलेखन आपकी विशेषता है
    आभार

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  4. आपके भीतर वैज्ञानिक विचारधारा बह रही है। यह देखकर प्रसन्नता हुई।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!