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29 अक्टू॰ 2009

ज़िंदगी

दिखाई

दे जाती है

अपने ही

घर के

झरोखे से

छत की मुंडेर

सब्जी बाज़ार

किसी दूकान

गली-पनघट

किसी मोड़ पर

या फ़िर

किसी बाग़ में

मन-भावन

सुमन जैसी

अल्हड़पन की

दहलीज़ को

पार करती

खुशियों भरी

" ज़िंदगी "
-०-
- विजय तिवारी " किसलय "

4 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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