दिखाई
दे जाती है
अपने ही
घर के
झरोखे से
छत की मुंडेर
सब्जी बाज़ार
किसी दूकान
गली-पनघट
किसी मोड़ पर
या फ़िर
किसी बाग़ में
मन-भावन
सुमन जैसी
अल्हड़पन की
दहलीज़ को
पार करती
खुशियों भरी
" ज़िंदगी "
-०-
मयकदा पास हैं पर बंदिश हैं ही कुछ ऐसी ..... मयकश बादशा है और हम सब दिलजले हैं !!
ब्रिग्रेडियर किसलय जी का स्वागत है
जवाब देंहटाएंजबलपुर ब्रिगेड
सुन्दर रचना लिखी है बधाई।
जवाब देंहटाएंbehad khubsurat allad si nazm.waah
जवाब देंहटाएंक्या बात कही डॉ. साहब बहुत ख़ूब!
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