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3 दिस॰ 2009

नवगीत: बस इतना है रोना... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

हम भू माँ की छाती खोदें,
वह देती है सोना.
आमंत्रित कर रहे नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
हमें स्वार्थ अपना प्यारा है,
नहीं देश से मतलब.
क्रय-विक्रय कर रहे रोज हम,
ईश्वर हो या हो रब.
कसम न सीखेंगे सुधार की
फसल रोपना-बोना
आमंत्रित कर रहे नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
जोड़-जोड़ जीवन भर मरते,
जाते खाली हाथ.
शीश उठाने के चक्कर में
नवा रहे निज माथ.
काश! पाठ पढ लें, सीखें हम
जो पाया, वह खोना.
आमंत्रित कर रहे नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
निर्मल होने का भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?, कटेगा कैसे?
'सलिल' निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे नाश निज,
बस इतना है रोना...
*

3 टिप्‍पणियां:

  1. निर्मल होने का भ्रम पाले
    ओढ़े मैली चादर.
    बने हुए हैं स्वार्थ-अहम् के
    हम अदना से चाकर.
    किसने किया?, कटेगा कैसे?
    'सलिल' निगोड़ा टोना.
    आमंत्रित कर रहे नाश निज,
    बस इतना है रोना...

    bahut hi vicharaniy kavita...

    जवाब देंहटाएं
  2. सब लोग भ्रम में जी रहे है और क्षणिक सुख को अनंत कालीन आनंद समझ कर प्रकृति से भी खिलवाड़ करने से बाज नही आते ..बढ़िया रचना..धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. निर्मल होने का भ्रम पाले
    ओढ़े मैली चादर.
    बने हुए हैं स्वार्थ-अहम् के
    हम अदना से चाकर.
    Superb

    जवाब देंहटाएं

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

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