6 दिस॰ 2009

आज के दौर में मीडिया की भूमिका

http://upload.wikimedia.org/wikipedia/hi/thumb/2/2e/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BF_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A6.jpeg/200px-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BF_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A6.jpeg                                   यदि हम ब्रह्मर्षि नारद जी को पत्रकारिता का जनक कहें तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक स्थान पर रुकते ही नहीं थे. आशय ये हुआ कि नारद जी भेंटकर्ता एवं घुमंतू प्रवृत्ति के थे. और आज की पत्रकारिता से ये गुण लुप्तप्राय हो गये हैं. इनकी जगह दूरभाष, विज्ञप्तियाँ और एजेंसियाँ ले रहीं हैं. सारी की सारी चीज़ें प्रायोजित और व्यावसायिक धरातल पर अपने पैर जमा चुकी हैं. आज की पत्रकारिता के गुण-धर्म और उद्देश्य पूर्णतः बदल गये हैं. आजकल पत्रकारिता प्रचार-प्रसार और अपनी प्रतिष्ठा पर लगातार ध्यान केंद्रित रखती है. पहले यह कहा जाता था कि सच्चे पत्रकार किसी से प्रभावित नहीं होते थे, चाहे सामने वाला कितना ही श्रेष्ठ या उच्च पदस्थ क्यों न हो, लेकिन आज केवल इन्हीं के इर्दगिर्द पत्रकारिता फलफूल रही है. आज हम सारे अख़बार उठाकर देख लें, सारे टी. वी. चेनल्स देख लें. हम पत्र- पत्रिकाएँ या इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देख लें, आपको हर जगह टी. आर. पी. बढाने के फार्मूले नज़र आएँगे. हर सीधी बात को नमक-मिर्च लगाकर या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का चलन बढ़ गया है. बोला कुछ जाता है, समाचार कुछ बनता है. घटना कुछ होती है, उसका रूप कुछ और होता है. कुछ समाचार एवं चेनल्स तो मन माफिक समाचारों के लिए एजेंसियों की तरह काम करने लगे हैं. इससे भी बढ़कर कुछ धनाढ्य व्यक्तियों अथवा संस्थानों द्वारा बाक़ायदा अपने समाचार पत्र और टी. वी. चेनल्स संचालित किए जा रहे हैं. हमें आज ये भी सुनने को मिल जाता है कि कुछ समाचार पत्र और चेनल्स काला बाज़ारी पर उतार आते हैं. मैं ऐसा नहीं कहता कि ये कृत्य हर स्तर पर है, लेकिन आज हम इस सत्यता से मुकर नहीं सकते. आज के मीडिया की भूमिका कैसी हो ? प्रश्न ये उठता है कि पत्रकारिता कैसी होना चाहिए ? पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं और गतिविधियों को समाज के सामने उजागर कर जन-जन को उचित और सार्थक दिशा में अग्रसर करना है. हमारी ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं के साथ ही उनकी कार्यप्रणाली से भी अवगत कराना पत्रकारिता के कर्तव्य हैं. हर अहम घटनाओं तथा परिस्थिजन्य आकस्मिक अवसरों पर संपादकीय आलेखों के माध्यम से समाज के प्रति सचेतक की भूमिका का निर्वहन करना भी है. एक जमाने की पत्रकारिता चिलचिलाती धूप,कड़कड़ाती ठंड एवं वर्षा-आँधी के बीच पहुँचकर जानकारी एकत्र कर ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाता था, लेकिन आज की पत्रकारिता वातानुकूलित कक्ष, अंतर-जाल, सूचना-तंत्र, ए. सी. वाहनों और द्रुतगामी वायुयान-हेलिकॉप्टरों से परिपूर्ण व्यवस्था ने ले ली है, लेकिन बावज़ूद इसके लगातार पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण चिंता का विषय है. आज आपके मोहल्ले की मूलभूत समस्याओं को न्यूज चेनल्स या समाचार पत्रों में स्थान नहीं मिलता , लेकिन निरुद्देशीय किसी नेता, अभिनेता या किसी धार्मिक मठाधीश की छींक प्रमुखता से छापी या दिखाई जाएगी. ऐसा क्यों है? इसके पीछे क्या कारण हैं? यहाँ केवल उच्च जीवन शैली, लोकप्रियता एवं महत्वाकांक्षा की भावना आड़े आती है. हर छोटा आदमी बड़ा बनाना चाहता है और बड़ा आदमी उससे बड़ा . आख़िर ये कब तक चलेगा ? क्या शांति और सुख से मिलीं घर की दो रोटियों की तुलना हम फ़ाइव स्टार होटेल के खाने से कर सकते हैं? शायद कभी नहीं. हर वक्त एक ही चीज़ श्रेष्ठता की मानक नही बन सकती . यदि ऐसा होता तो आज तुलसी, कबीर,विनोबा, जयप्रकाश या परम पूज्य साईं को इतना महत्व प्राप्त नहीं होता . जब तक हमारे जेहन में स्वांतःसुखाय से सर्वहिताय की भावना प्रस्फुटित नहीं होगी, पत्रकारिता के मूल्यों का निरंतर क्षरण होता रहेगा. आज हमारे पत्रकार भाई निष्पाप पत्रकारिता करके तो देखें ! उन्हें वो पूँजी प्राप्त होगी जो धन-दौलत और उच्च जीवन शैली से कहीं श्रेष्ठ होती है. आपके अंतःकरण का सुकून, आपकी परोपकारी भावना , आपके द्वारा उठाई गई समाज के आखरी इंसान की समस्या आपको एक आदर्श इंसान के रूप में प्रतिष्ठित करेगी. क्या आज का पत्रकार कभी आत्मावलोकन करता है कि वह पत्रकारिता धर्म का कितना निर्वहन कर रहा है. कुछ प्रतिष्ठित या पहुँच वाले पत्रकार स्वयं को अति विशिष्ट श्रेणी का ही मानते हैं. ऐसे पत्रकार कभी ज़मीन से जुड़े नहीं होते, वे आर्थिक तंत्र और पहुँच तंत्र से अपने मजबूत संबंध बनाए रखते हैं. लेकिन यह भी वास्तविकता है कि ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता कभी खोखली नहीं होती, वह कालजयी और सम्मान जनक होती है. वहीं आज के अधिकांश पत्रकार कब काल कवलित हो जाते हैं, उन्हें न कोई जानता है और न ही कोई उन्हें याद रखने की आवश्यकता महसूस करता है. आज मीडिया की भूमिका हमारे समाज में नये स्वरूप में देखने को मिल रही है. आज पत्रकारिता की नयी नयी विधियाँ जन्म ले चुकीं हैं. डेस्क पर बैठ कर सारी सामग्री एकत्र की जाती है, जो विभिन्न आधुनिक तकनीकि, विभिन्न एजेंसियों एवं संबंधित संस्थान के नेट वर्क द्वारा संकलित की जाती हैं . इनके द्वारा निश्चित रूप से विस्तृत सामग्री प्राप्त होती है, लेकिन डेस्क पर बैठा पत्रकार / संपादक प्रत्यक्षदर्शी न होने के कारण समाचारों में वो जीवंतता नहीं ला पाता, वो भावनाएँ उमड़कर नहीं आ पातीं. क्योंकि वो दर्द और वो खुशी समाचारों में आ ही नहीं सकती जो एक प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की हो सकती है. अंततः हमारे सामने यह निष्कर्ष निकलता है कि आज किसी भी क्षेत्र का मीडिया हो उसका ऐसी भूमिका में आना अनिवार्य हो गया है कि पत्रकारिता यथा संभव यथार्थ के धरातल पर चले, अपनी आँखों से देखे, अपने कानों से सुने और पारदर्शी गुण अपनाते हुए समाज को आदर्शोन्मुखी बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे, आज विकृत हो रहे समाज में पत्रकारिता की ऐसी ही भूमिका की ज़रूरत है।

-डॉ. विजय तिवारी " किसलय " जबलपुर

4 टिप्‍पणियां:

  1. आज इस आलेख की ज़रुरत को नकारना संभव नहीं और नाही चौथे स्तम्भ को यह सोचना चाहिए की पाठक बन्दर है वो जो परोसेंगें पडा जाएगा. हम आप उन पत्रकारों के सानिध्य पा चुके हैं जो वास्तव में ब्रह्मर्षि के सामान ही थे किन्तु अब .............क्या कहें जो दिल में आयेगा २४ दिसंबर को कह दूंगा
    अब तो पांचवे स्तम्भ का दौर लाना ही होगा वर्ना आने वाली पीड़ी की नज़र में हम बन्दर के बन्दर ही माने जावेंगे

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  2. आपके इस लेख को पढ़कर बहुत अच्‍छा लगा, आज आपने आचरण को देखने के बजाय लोग नारद की हस्‍यास्‍पद स्थिति बना दिये है। आज के पत्रकार आपनी भूमिका का सही निर्वहन नही कर रहे है। जैसा कि आपने अपने लेख में लिखा है। पत्रकारो की स्थिति चटपटी खबरो तक सीमित नही रहनी चाहिये बल्कि जनमानस की आपेक्षाओ तक पहुँचनी चाहिये।

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  3. अंकुर बढ़कर वृक्ष बन, देता सबको छाँव.
    जुड़ ब्रिगेड से आ गया, अब ब्लोगिंग के गाँव..
    *.
    उड़नतश्तरी जमीं पर, नहीं अजूबा जान.
    है समीर भी लाल अब, 'सलिल' वही रस-खान..
    *
    स्वागत

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!