स्मृति दीर्घा:
संजीव 'सलिल'
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स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
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पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
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ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
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टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
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मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
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बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
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ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
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स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
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मयकदा पास हैं पर बंदिश हैं ही कुछ ऐसी ..... मयकश बादशा है और हम सब दिलजले हैं !!
बहुत सुंदर रचना धन्यवाद
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