बहुत दुःख भी है और तनिक संतोष भी कि जल्दी ही हकीकत से रु-ब-रु हो गया.. बहुत कुछ सोच कर और उम्मीदें लेकर आया था ब्लॉगजगत में लेकिन.... खैर छोड़िये यहाँ बात करते हैं पहले अहसास की.. लेकिन इतना फिर भी कहना चाहूंगा कि इस चापलूसी लोक(ब्लॉगजगत) में अच्छे इंसां मिले मगर फिर भी कम. सब सिर्फ अपने को दुनिया की नज़र में जानदार और शानदार बताने में लगे हैं. इसलिए ऐसी दुनिया को मेरा नज़दीक आके परखने के बाद प्रणाम, ऐसा तो नहीं कि औरों की तरह चिल्लाऊं कि 'ऐ भाई मेरा हाथ पकड़ो मैं ब्लोगिंग छोड़ कर जा रहा हूँ' लेकिन हाँ नियमित भी नहीं रहूँगा बस कभी आऊंगा तो सिर्फ उस विषय पर अपनी बात कहने जो जरूरी समझता हूँ, कभी कहानी, कभी ग़ज़ल, कभी लघुकथा , कभी कविता या गीत तो कभी पोएम के रूप में.. और शायद अब 'मसिकागद' पर कम और अपने अन्य अजीजों के ब्लॉग पर ज्यादा.. ना मुझे चटके चाहिए ना टिप्पणी और ना किसी का मान मनौवल.. बस कुछ अच्छे लोगों का स्नेह चाहिए तो मिलता रहेगा ऐसी उम्मीद है, नहीं भी मिलेगा तो अगर मैं सच्चा होऊंगा तो ऊपरवाले का आशीष तो मिलेगा ही..
कल लन्दन से लौट के आया हूँ कई नए अनुभवों के साथ.. कुछ बहुत अच्छे इंसानों से भी मिला जो साहित्यकार भी हैं, साथ ही उनके जीवन के तजुर्बात सुनकर 'प्यासा' फिल्म का अहसास भी जागा कि- ''ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है''
दुःख होता है कहते हुए कि इस जगत के ज्यादातर लोग सिर्फ अपने को बहुत अच्छा साबित करने के चक्कर में बहुत अच्छा करना भूल जाते हैं और बस एक लकीर पर चलते जाते हैं अपनी पलकें मूदें हुए, पर मैं किसी को सुधारना भी नहीं चाहता बस खुद ही सुधर जाऊं इतना काफी है मेरे लिए. हाँ प्रिंट मीडिया और साहित्य से जरूर जुड़ा रहूँगा.
यहाँ मैं अपने पहले अहसास के बारे में बताने जा रहा हूँ जो कि जुड़ा हुआ है मेरे किसी भी खेल प्रांगन(स्टेडियम) को देखने को लेकर..
मैंने अगर अपने जीवन में कोई पहला स्टेडियम देखा तो वो है लोर्ड्स क्रिकेट मैदान जिसे कि 'क्रिकेट का मक्का' भी कहते हैं और इसे ऊपरवाले का अहसान ही मानूंगा कि सीधा उस मैंदान को पहली बार देखने का अवसर दिया जहाँ से क्रिकेट शुरू हुआ..
सुबह १२ बजे लन्दन में उस जगह से निकला जहाँ ठहरा हुआ था, निकलते ही सबसे पहले लोर्ड्स स्टेडियम के रिसेप्शन पर फोन लगाया तो पता चला कि १२ बजे वाला ट्रिप पहले ही शुरू हो चुका है अब मैं २ बजे पहुंचूं वही बेहतर था.. तो कुछ समय इम्पीरियल कोलेज लन्दन में अपने मित्र की प्रयोगशाला में गुज़ारा उसके बाद अपने गंतव्य का रास्ता अंतर्जाल के माध्यम से पता करके वहाँ के लिए प्रस्थान किया. पेडिंगटन बस स्टॉप से बस पकड़ कर बेकर स्ट्रीट पहुंचा. वहाँ पहुँच कर पता चला कि अभी भी ४५ मिनट बाकी हैं तो पैदल ही रास्ता खोजते हुए बढ़ दिया लोर्ड्स की दिशा में, लेकिन फिर भी करीब २० मिनट पहले बारिश और तेज़ हवा को झेलता वहाँ पहुँच ही गया.
मेनगेट पर दो सेक्युरिटी गार्ड थे तो उन्होंने अन्दर जाकर टिकट लेने कि सलाह दी लेकिन चूंकि पहले से ही लन्दन पास था मेरे पास तो सीधा रिसेप्शन पर दस्तक दी और स्टीकर लेने के बाद सीधा संग्रहालय में. जहाँ गावस्कर का वो हेलमेट रखा हुआ था जो चीनी मिट्टी से बना था और अस्सी के दशक में प्रयोग किया गया था तो साथ में ही नवाब पटौदी की तस्वीर और लारा का हेलमेट था. डेनिस लिली कि ऐतिहासिक गेंद थी तो जिम लेकर की टेस्ट में १९ विकेट चटकाने वाली गेंद भी, विवियन रिचर्ड्स का हेलमेट, कोट और बल्ला भी. जेफ़ बायकोट का एक अलग ही सेक्शन बना हुआ था. हाँ सचिन से सम्बंधित कोई चीज नहीं मिली अलबत्ता गांगुली की वो टी-शर्ट जरूर थी जो उसने वहाँ फ्लिंटोफ़ को चिढ़ाने के लिए उतारी थी.
क्रिकेट का इतिहास देखा सुना कि किस तरह के बल्ले सबसे पहले १७३० में चलते थे फिर क्या रूप आया और किस तरह पहले ३ के बजाए सिर्फ २ विकेट जमा कर खेल होता था.. ना पैड थे, ना ग्लब्स, ना हेलमेट और ना ही कोई और सुरक्षा उपकरण.
सुनकर हंसी भी आई कि जब इंग्लैण्ड की टीम पहली बार आस्ट्रेलिया गई तो आस्ट्रेलिया ने इंग्लैण्ड के ११ खिलाड़ियों के मुकाबले २२ खिलाड़ी मैदान में उतारे क्योंकि उनका मानना था कि उनकी टीम बहुत कच्च्ड थी और शुरुआती अवस्था में थी(हुई ना बच्चों वाली बात).
वहीँ एक कोने में उस चिडिया की मृत देह भी उसी बॉल से चिपकी आज भी रखी है जिससे कि उसकी मौत हुई थी(एक तेज़ गेंदबाज की गेंद के रास्ते में आ जाने का खामियाजा).
एशेज की वो असली ट्रॉफी देखी जिसने इस श्रृंखला को नाम दिया और उसकी कहानी सुनी तो दूसरी ओर W G Grace की पेंटिंग और मूर्ति देखी. सर डोन ब्रेडमेन की भी पेंटिंग देखी और फिर लौंज रूम देखा जहाँ इंग्लैण्ड की टीम और भारत की टीम नाश्ता और खाना खाती हैं, फिर उनके ड्रेसिंग रूम और पविलियन और फिर वो रूम जहाँ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे जैसे कि रिकी पोंटिंग को कार्बन के हेंडिल वाले बल्ले से ना खेलने देने का निर्णय.
वो बालकनी देखी जहाँ सौरव ने अपनी टी-शर्ट उतारी थी और वो जगह जहाँ सचिन और द्रविड़ बैठते हैं और जहाँ अगरकर ने लोर्ड्स में शतक बना कर अपना दमखम साबित किया.
एक बहुत ही मजेदार बात जो बताई गई वो ये थी कि W.G.Grace जो कि एक अच्छे फिजिशियन थे वो जब एक अच्छे क्रिकेटर के रूप में प्रसिद्द हो गए तो उनके खेल को देखने के लिए टिकट की कीमत १ पेंस से बढ़ाकर २ पेंस कर दी गई और तभी यह पहली बार हुआ कि किसी क्रिकेटर ने अपने खेल को देखने वालों की वजह से प्रायोजकों से पैसे की मांग की. उनका कहना था कि जब MCC उनकी वजह से पैसा कम रहा है तो उन्हें भी इसमें से हिस्सा दिया जाना चाहिए और तभी पहली बार किसी खिलाडी को उसके प्रशंसकों की वजह से पैसा मिला.
उसके बाद एक बार जब वो जल्दी आउट हो गए तो W.G.Grace महोदय सीधा अम्पायर के पास जाकर बोले कि यहाँ लोग मेरा खेल देखने आये हैं तुम्हारी अम्पायरिंग नहीं.. :)
वहाँ का प्रसिद्द प्रेसबॉक्स भी देखा और उसमे बैठने का मज़ा भी लिया. तो इस तरह पूरा हुआ मेरा पहली बार किसी स्टेडियम को देखने का सपना.
दीपक 'मशाल'
तस्वीरें-खुद के कैमरे से
दीपक भाई, हमेशा की तरह विचारणीय बातें है आपके इस लेख में। बहुत वाजिब। आजकल हम भी इन्हीं बातों पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं जी।
जवाब देंहटाएंखै़र।
इतना गम्भीर होके ्सन्ज़ीदा होके ब्लाग-पोस्ट लिखोगे भैया तो उथलों का क्या होगा
जवाब देंहटाएंबधाईयां जारी रहे स्वागत है